काशी विद्यापीठ का हालिया घटनाक्रम भारतीय विश्वविद्यालयों में व्याप्त गहरे संकट की चेतावनी है

काशी विद्यापीठ द्वारा एक सोशल मीडिया पोस्ट को लेकर गेस्ट लेक्चरर पर की गई कार्रवाई किसी एक संस्था के किसी एक शिक्षक के ख़िलाफ़ उठाया गया क़दम नहीं है बल्कि आज के भारत में हो रही घटनाओं की एक कड़ी है. यह आरएसएस की गिरफ़्त में बिना सचेत हुए लगातार बीमार होते जा रहे हिंदू समाज की दयनीयता का प्रमाण है.

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(फोटो साभार: एबीवीपी/फेसबुक पेज)

काशी विद्यापीठ द्वारा एक सोशल मीडिया पोस्ट को लेकर गेस्ट लेक्चरर पर की गई कार्रवाई किसी एक संस्था के किसी एक शिक्षक के ख़िलाफ़ उठाया गया क़दम नहीं है बल्कि आज के भारत में हो रही घटनाओं की एक कड़ी है. यह आरएसएस की गिरफ़्त में बिना सचेत हुए लगातार बीमार होते जा रहे हिंदू समाज की दयनीयता का प्रमाण है.

(फोटो साभार: एबीवीपी/फेसबुक पेज)

ख़बर है कि बनारस में महात्मा गांधी के नाम पर बने ‘महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ’, जो एक विश्वविद्यालय है, में एक अतिथि अध्यापक डॉ. मिथिलेश कुमार गौतम को भारत के पंथनिरपेक्ष संविधान रहते हुए नवरात्र व्रत करने की जगह महिलाओं को संविधान पढ़ने की सलाह देने के कारण हटा दिया गया है. इतना  ही नहीं अतिथि अध्यापक को ‘विद्यापीठ परिसर’ में प्रवेश करने से भी रोक दिया गया है.

ऐसा उन अतिथि व्याख्याता के ‘सोशल मीडिया पोस्ट’ पर कुछ विद्यार्थियों की शिकायत पर हुआ है जैसा कि ‘विद्यापीठ’ की कुलसचिव ने अपने द्वारा निर्गत कार्यालय आदेश में लिखा है. कुलसचिव ने यह भी लिखा है कि डॉ. गौतम के इस कृत्य के कारण विश्वविद्यालय परिसर के छात्रों में आक्रोश व्याप्त होने, विश्वविद्यालय का वातावरण ख़राब होने और परीक्षा एवं प्रवेश बाधित होने को दृष्टिगत किया गया है.

भारतीय राजनीति के वर्तमान माहौल में यह सहज ही समझा जा सकता है कि शिकायत करने वाले विद्यार्थी ‘अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद’ से जुड़े हैं जैसा कि प्रसिद्ध अंग्रेजी अख़बार ‘द हिंदू’ ने इसे प्रकाशित भी किया है.

कहने को तो इस विराट भारत में इतने अधिक शिक्षण-संस्थानों के संदर्भ में यह घटना अत्यंत महत्त्वहीन लग सकती है. पर यदि इस पर ठहरकर सोचा जाए तो लगता है कि यह घटना भारतीय विश्वविद्यालयों में व्याप्त गहरे संकट को चेतावनी के तौर पर बता रही है. या फिर और गहराई से सोचें तो लगता है कि समाज का, ख़ासकर हिंदुओं का, मानसिक स्वास्थ्य कितना नाजुक हो चुका है?

ऐसा इसलिए कि डॉ. गौतम के ‘पोस्ट’ में न तो कोई आपत्तिजनक बात थी और न ही उन की भाषा में किसी प्रकार की अपमानजनक भंगिमा थी. महिलाओं द्वारा भी किए जाने वाले नवरात्र व्रत के बारे में उनकी एक राय थी जिसे उन्होंने प्रकट किया था. ऐसा कहना उनका संवैधानिक अधिकार है. हिंदू व्रत, मान्यताओं और धार्मिक क्रिया-कलापों के प्रति एक आलोचनात्मक रवैया सदा रहा है.

उदाहरण के लिए हिंदी साहित्य के अंतर्गत भक्तिकाल की निर्गुण काव्यधारा के अनेक कवियों ने धार्मिक कर्मकांडों की तीखी आलोचना की है. क्या इसी बनारस के कबीर ने नहीं कहा था कि हाथों की माला छोड़कर मन की माला फेरो?

सवाल यह है कि एक वाक्य का ‘सोशल मीडिया पोस्ट’ इतना अधिक महत्त्वपूर्ण हो गया कि उस से महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ जैसे बड़े विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों में आक्रोश व्याप्त हो गया, विश्वविद्यालय का वातावरण ख़राब होने लगा और परीक्षा एवं प्रवेश भी बाधित होने लगा? यानी एक ‘पोस्ट’ विश्वविद्यालय के पूरे विचार और उस की संरचना को क्षतिग्रस्त कर दे रहा है?

अगर सच में यही वास्तविकता है तो इस से यही लगता है कि विश्वविद्यालय जैसी संस्थाओं को कुछ दिन सारे कार्यों को छोड़कर आत्मालोचन करना चाहिए.

दूसरी चिंताजनक बात इस प्रसंग में यह है कि कुछ विद्यार्थियों का समूह जो ‘अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद’ से जुड़ा है वह अनेक विश्वविद्यालयों में इसी प्रकार की ‘गतिविधियों’ को बढ़ावा दे रहा है. चूंकि भारत में केंद्रीय स्तर पर एवं उत्तर प्रदेश में राज्य स्तर पर भी भारतीय जनता पार्टी की सरकार है और ‘अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद’ का गहरा जुड़ाव भारतीय जनता पार्टी तथा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से है इसलिए विश्वविद्यालयों के उच्चाधिकारी तुरंत कार्रवाई करने लगते हैं.

केरल केंद्रीय विश्वविद्यालय,  डॉ. हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर और ऐसे ही अनेक विश्वविद्यालयों में ‘अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद’ का हस्तक्षेप बढ़ता जा रहा है. यह कई उदाहरणों से स्पष्ट है कि यदि दूसरे समूह, छात्र-संगठन या शिक्षक किसी प्रकार का आयोजन करना चाहते हैं तो उन्हें ‘विश्वविद्यालय’ का ‘हॉल’ तक नहीं मिलता और ‘अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद’ को खुली छूट मिली हुई है कि वे ‘विश्वविद्यालय’ के क्रिया-कलापों में हस्तक्षेप करती रहे.

जैसा कि ऊपर यह संकेत किया गया कि इस एक घटना पर मनोवैज्ञानिक दृष्टि से विचार करें तो यह साफ़ महसूस होता है कि हिंदू नागरिकों और हिंदू नौजवानों की बहुत ही डरावनी एवं चिंताजनक स्थिति कर दी गई है. ऐसा नहीं है कि हिंदुओं के मन में हिंदू धर्म को ले कर असुरक्षा  और डर का वातावरण पहली बार निर्मित हो रहा है या उनमें मुसलमानों के प्रति नफ़रत का भाव भरा जा रहा है.

मुसलमानों के प्रति पूर्वाग्रह हिंदू घरों में लड़के-लड़कियों के मन में बचपन से भरा जाता रहा है. पर अभी भारत में केंद्रीय स्तर पर दो बार लगातार भारतीय जनता पार्टी के सत्ता प्राप्त करने से उसके अभिभावक संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का अपरिमित प्रसार नज़र आ रहा है.

इस अपरिमित प्रसार ने दो तरह की स्थितियां उत्पन्न की हैं. पहली यह कि हिंदुओं का मन हमेशा खौलता रहे और असुरक्षा, ‘संस्कृति’, धर्म के नाम पर उनके भीतर लगातार ‘नफ़रत का ज़हर’ भरा जाता रहे. दूसरी यह कि मुसलमानों को भारतीय सार्वजनिक जीवन से पूरी तरह बहिष्कृत कर दिया जाए.

पहली स्थिति को लगातार बनाए रखने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का पूरा पर्यावरण जी-जान से लगा रहता है. तमाम तरह के ‘वॉट्सऐप’ संदेश, वीडियो, ‘मीम्स’ सुबह से रात तक लोगों के मोबाइल पर प्रसारित एवं अग्रसारित होते रहते हैं.

थोड़े ही सर्वेक्षण के बाद यह समझा जा सकता है कि इस के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने लगभग 16-18 वर्ष से लेकर 30-35 वर्ष तक के नौजवानों और गृहिणियों को लक्ष्य बनाया है. ज़्यादातर अधेड़ और बुजुर्ग सवर्ण पुरुष पहले से ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से आपादमस्तक प्रभावित हैं.

इन सबमें तकलीफ़देह यह है कि जो नौजवान इन सबसे प्रभावित है उस की मानसिक शांति ही भंग रहती है. अगर आप किसी भी ऐसे नौजवान से बात करें तो वह तुरंत ही क्रोध और असंतुलन की मनोदशा में चला जाता है. यह बात कितनी ही कड़वी लगे पर सच यही लगता है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने हिंदुओं के मानसिक स्वास्थ्य को पूरी तरह अस्थिर कर दिया है.

आप यदि हिंदुओं से जुड़े तमाम पर्व-त्योहारों को देखिए और उन से जुड़ी गतिविधियों की कड़ी मिलाइए तो आप को यह स्पष्ट होगा कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने हिंदू समाज को बीमार कर दिया है. क्या बिना बीमारी के ही सरस्वती-पूजा में ‘जय श्रीराम’ के आक्रामक नारे लगते हैं? क्या बिना बीमारी के ही रामनवमी में परंपरा से प्रचलित लाल झंडे मतलब ‘महावीरी झंडे’ को धीरे से ‘भगवा’ कर दिया जाता है? क्या बिना बीमारी के ही ‘आशुतोष’, ‘औढरदानी’, ‘भोले बाबा’ के रूप में प्रचलित शिव को ‘महाकाल’ की उग्रता में सीमित कर दिया गया है. ऐसे ही अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं.

अत: यह स्पष्ट है कि अतिथि अध्यापक डॉ. मिथिलेश कुमार गौतम पर की गई कार्रवाई केवल किसी एक संस्था के किसी एक शिक्षक पर की गई क्रिया नहीं है बल्कि यह अभी के भारत में हो रही घटनाओं की एक कड़ी है. यह भारत के विश्वविद्यालयों पर ‘अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद’ के निरंतर बढ़ते हस्तक्षेप का सूचक है. यह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की गिरफ़्त में बिना सचेत हुए लगातार बीमार होते जा रहे हिंदू समाज की दयनीयता का प्रमाण है. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के हाथों हिंदू समाज एक अंधे कुएं में लगातार धकेला जा रहा है और निरंतर पतन की ओर धंसता जा रहा है.

(लेखक दक्षिण बिहार केंद्रीय विश्वविद्यालय में हिंदी पढ़ाते हैं.)