अच्छा ही है कि दुर्गा आख़िर आज विदा हो जाएंगी. उनकी आंखों के आगे जिस क्षुद्रता का, हिंसा का प्रदर्शन पूरे देश में और अब देश के बाहर भी किया जा रहा है, उसे झेलते रहने को वे मजबूर नहीं रहेंगी.
विजयादशमी की सुबह बैठा हूं. अम्मी अपना आई पैड लेकर धीरे-धीरे कमरे से निकल आई हैं. ‘ठुमक चलत रामचंद्र…’, कोई गा रहा है.
राम की इस छवि को तो अब भूल ही चले हैं.
‘चाय दूं?’
भूल जाता हूं कि अम्मी का व्रत अष्टमी का होता है, दशमी का नहीं. चाय लेते अम्मी एक दूसरे मैथिली गीत की खोज करती हैं.
‘जय दुर्गे, दुर्गति नासिनी मां…’, प्रार्थना उठती है.
मन में कल्मष है, क्षुद्रता है, ईर्ष्या है. दुर्गा से इन सबसे मुक्ति की कामना की जा रही है. मैं पापी हूं फिर भी तुम्हारी संतान ही तो हूं, मुझे इन सबसे उबारो. जगत प्रपंच मेरा साथी है, मुझे उससे निकालो.
दुर्गा के स्नेह के बिना इस जीवन के दिए की बाती कैसे जल सकती है? आख़िर भगवती, जगत महतारी के सामने मिथ्या आचरण कैसे किया जा सकता है? कवि की यह विनम्रता झूठी नहीं है और न गायिका का स्वर छल कर रहा है.
एक दूसरी गायिका विद्यापति के गीत का परिचय दे रही हैं. पड़वा (प्रतिपदा) से दशमी तक की यात्रा गीत में है. गायिका कह रही हैं कि आज भगवती मायके से विदा होंगी. और मुझे बचपन के दुर्गा पंडाल की याद आ जाती है.
आज की सुबह उदास हुआ करती है. मां को, जो बेटी है, विदा करना ही होगा. वह उस शिव के बिना अधिक दिन नहीं रह सकती. सो, वे सब उदास हैं जो नौ दिनों तक उसका स्वागत-सत्कार करने में व्यस्त थे.
बचपन में लौट जाता हूं. दशहरा अवसर था नए कपड़े मिलने का. होली की तरह ही. अब तो नए वस्त्र का कोई समय नहीं रहता. उस समय नए कपड़े पहनकर सबके सामने आने का अर्थ मात्र बहिरंग की श्रेष्ठता नहीं थी. हम अपना सर्वोत्तम, अपने भीतर का श्रेष्ठ लेकर संसार के सामने आना चाहते थे. एक नवीनता का लाभ.
मैं बचपन की दशमी की उदासी को याद करने की कोशिश कर रहा हूं. क्यों आज वह उदासी राहत में बदल गई है? क्यों लग रहा है कि अच्छा ही है कि दुर्गा आख़िर आज विदा हो जाएंगी?
राहत इसलिए कि दुर्गा की आंखों के आगे जिस क्षुद्रता का, हिंसा का प्रदर्शन पूरे देश में और अब देश के बाहर भी किया जा रहा है, उसे झेलते रहने को वे मजबूर नहीं रहेंगी.
लेकिन, उनसे अधिक यह राहत अब ग़ैर हिंदुओं के लिए है. पिछले कुछ सालों से दुर्गा का आना ग़ैर हिंदुओं के लिए त्रास के आगमन की तरह ही है.वे उनके लिए जगत तारिणी नहीं हैं.
दुर्गा के आने का अर्थ ग़ैर हिंदुओं के लिए क्या है? वे हैरानी से देखते हैं सामने दुर्गा के आराधकों का कल्मष, उनकी क्षुद्रता ,उनकी हिंसा. उनकी कुत्सा, अश्लीलता और उनका कपट.
जिस दुर्गा की आराधना से कवि अपने कल्मष को धो डालना चाहता है, उनका आना अब इन मलिन, निकृष्ट भावों को उत्तेजित करता है. लोग कह सकते हैं कि वे दुर्गा के असल भक्त नहीं हैं. लेकिन जो असल भक्त हैं, वे इस क्षुद्रता से, इस हिंसा से विरक्त हों, ऐसा कोई प्रमाण नहीं मिलता. उलटे जो दिखता है, वह यह है कि वे इसमें एक विकृत आनंद हासिल कर रहे हैं.
बाबूजी किसी से फ़ोन पर पूछ रहे हैं, गरबा की तस्वीर नहीं भेजी?
‘गरबा?’ कौन सी तस्वीर? इतनी सारी रोज़ आ रही हैं. गरबा में, गरबा के बाहर मुसलमानों पर हमले की तस्वीरें. गरबा की असली तस्वीरें तो यही हैं अब.
बाहर मैदान में दो लड़कियां हल्के संगीत पर अभ्यास कर रही हैं. गरबा की तैयारी है.
लेकिन गरबा की तैयारी एक और तरह से होती है. लाठियों के साथ.
क्या यही दुर्गा का प्रसाद है? वे अपने भक्तों का प्रमाद अब दूर नहीं कर पा रहीं. उनकी उपस्थिति अब उनके दंभ से उन्हें मुक्त नहीं करती, बल्कि उनके आने से वे और उद्धत हो उठते हैं.
पूरी दुनिया अचरज से देखती है. ये ही हैं दुर्गा के मायके वाले? इतने संकुचित? इतने हिंसक? इन्हीं से मिलने वह हर साल आती हैं?
जो दुर्गा दुर्मति का नाश न कर कर सके, जिसके आने का अर्थ ही हो दुर्गति, उसका आने का उत्साह कैसे हो? कैसे कहें कि और रुक जाओ. सो, कहता हूं, दुर्गा अब इस देश में न आओ. वहीं कैलास पर उस औघड़ शिव के साथ ही रहो. पहले वह शक्ति लो जो शांति का स्रोत हो. तभी आओ.
हर बार कहता था, फिर आओ. अब नहीं. अभी तो जाओ. जाओ कहना दुष्कर है, असभ्य है, फिर भी कहता हूं, जाओ.
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)