कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: भाषाओं की विविधता और उनमें रचना और विचार, ज्ञान और अनुभव की जो विपुलता और सक्रियता है उसे उजागर करें तो हर भारतीय को यह अभिमान सहज हो सकता है कि वह एक बहुभाषिक, बहुधार्मिक राष्ट्र का नागरिक है जिसके मुकाबले भाषाओं और बोलियों की संख्या कहीं और नहीं है.
ऐसे थोड़े विचित्र नाम की लवली प्रोफ़ेशनल यूनीवर्सिटी का परिसर इतना छात्रबहुल और सक्रिय होगा ऐसा सोचा नहीं था. वहां मुकेश कुमार के निमंत्रण पर हिन्दी दिवस पर दास्तानगो महमूद फारूकी और साहित्यकार असगर वज़ाहत के साथ जाना हुआ. जिस सभागार में आयोजन था वह बहुत बड़ा और छात्रों से ठसाठस भरा था. जो छात्र संचालन कर रहे थे वे अटपटी हिन्दी में हिन्दी का वैसा ही महिमामण्डन कर रहे थे जैसा कि हर कहीं ऐसे अवसर पर होता है. ऐसे माहौल में कुछ कड़वी सचाई कहना मुझे ज़रूरी लगा.
पहली तो यही कि हिन्दी राष्ट्र भाषा नहीं है- उसे संविधान ने राजभाषा भर बनवाया है जो कि वह आज तक ठीक से हो भी नहीं पाई है. वह भारत में सबसे अधिक बोली-बरती जाने वाली भाषा ज़रूर है पर अगर वह राष्ट्रभाषा है तो बांग्ला, तमिल, मलयालम, मराठी, असमिया आदि सभी भाषाएं भी राष्ट्रभाषाएं हैं: एक राष्ट्र की कई राष्ट्रभाषाएं हों यह भारत जैसे विविध और विशाल राष्ट्र के लिए उचित और स्वाभाविक है.
यह अनदेखा नहीं जाना चाहिए कि अगर भारत की एक राष्ट्रभाषा होगी तो फिर एक राष्ट्रधर्म की बाध्यता भी होगी. हमारे संविधान ने इन दोनों ही अवधारणाओं को शुरू में ही भारत के अनुकूल नहीं पाया था. हमारी एकता हमारी बहुलता में ही बद्धमूल है, किसी भाषिक या धार्मिक एकरूपता में नहीं.
तकनीकी अनुशासनों में दीक्षित छात्र अक्सर और बहुसंख्यक रूप से अपनी मातृभाषाओं से दूर फिंक जाते हैं. उन्हें अनिवार्यता अपनी शिक्षा और करिअर अंग्रेज़ी में ही पाने-बनाने पड़ते हैं. उन्हें अपने परिवार से बाहर जो बड़ी दुनिया है उसमें रहने-बरतने का कोई पाठ नहीं सिखाया जाता. यह दुनिया अपनी कठोर-निर्मम सचाइयों में साहित्य में ही प्रगट होती है और इन छात्रों को अगर व्यापक दुनिया में कुछ करना-समझना है तो ज़रूरी है कि साहित्य और कलाओं के माध्यम से दुनिया से अपना रिश्ता बनाएं, उससे संवाद कर सकने की क्षमता अर्जित करें. सिर्फ़ टेक्नोलॉजी और प्रबंधन की दुनिया में महदूद होना अपनी शिक्षा, मानवीयता और नागरिकता को सीमित करने जैसा है.
ऐसे विश्वविद्यालयों में लेखकों-कलाकारों को कुछ प्रवास पर बुलाना चाहिए ताकि छात्र उनके संपर्क में आकर रचनात्मकता के कुछ अनजाने पहलू जान-समझ सकें. मुकेश जी ने उचित ही कहा कि हिन्दी दिवस को सर्वभाषा दिवस के रूप में मनाना चाहिए.
भाषाओं की विविधता और उनमें रचना और विचार, ज्ञान और अनुभव की जो विपुलता और सक्रियता है उसे उजागर करें तो हर भारतीय को यह अभिमान सहज हो सकता है कि वह एक बहुभाषिक और बहुधार्मिक राष्ट्र का नागरिक है जिसके मुकाबले भाषाओं और बोलियों की संख्या कहीं और नहीं है. यह हमारी अद्वितीयता है और इसे युवाओं को समझाना-सिखाना ज़रूरी है.
विश्व कविता
आम तौर पर जब हम विश्व कविता पद का इस्तेमाल करते हैं तो अभिप्राय उस सारी कविता से होता है जो संसार की विभिन्न भाषाओं में किसी समय, बिना एक-दूसरे से परिचय या संवाद के लिखी जा रही होती है. उसमें अपार विविधता होती है: विषय, अंतर्वस्तु, शिल्प, स्थानीयता, अनुभव आदि में. उसमें कभी-कभार कुछ साझी प्रवृत्तियां भर उभरती हैं. वह तरह-तरह की राजनीतिक और सामाजिक व्यवस्थाओं के अंतर्गत लिखी जाती है.
आम तौर पर उसे मनुष्य के विभिन्न भाषाओं में तरह-तरह से सत्यापित होने से भी जोड़ा जाता है: हम पहचानते हैं कि इतने रंग-रूपों, विन्यासों और विडंबनाओं में न्यस्त होकर भी हम मनुष्य हैं और तरह-तरह की कविता इसका इज़हार करती है.
अपनी नई पुस्तक ‘मुक्तिबोध की लालटेन’ पर एक सार्वजनिक चर्चा के दौरान आलोचक और बुद्धिजीवी अपूर्वानंद एक पते की बात कही. प्रसंग था यह उल्लेख कि मुक्तिबोध की क्लासिक का दर्ज़ा पा चुकी लंबी कविता ‘अंधेरे में’ में वर्णित सचाई जो आज से लगभग साठ साल पहले भारत का अतियथार्थ लगती है, आज सीधा आज का यथार्थ लगती है.
इस पर अपूर्वानंद ने कहा कि यह कविता अकेले भारतीय संदर्भ की कविता नहीं है: वह विश्व कविता है. आशय यह था कि कुछ कविताएं अपने वितान और विन्यास में, मानवीय रूप से, इतनी प्रासंगिक हो जाती है कि उन्हें विश्व कविता का दर्ज़ा मिल जाता है.
इस प्रसंग में यह याद आता है कि एक ज़माने में अंग्रेज़ी कवि टीएस इलियट की लंबी कविता ‘द वेस्टलैंड’ को विश्व कविता माना गया था. यह बात रिकॉर्ड पर लाने की बात है कि ‘अंधेरे में’ कविता के आरंभिक प्रारूप को सागर में मुक्तिबोध से सुनकर मैंने उन्हें 1960 में जो पत्र लिखा था उसमें इस कविता को ‘द वेस्टलैण्ड’ कविता के समकक्ष मानने का आग्रह किया था. यह एक तरुण का शायद अपरिपक्व आकलन था. पर आज वह सच होता नज़र आता है.
विश्व कविता के बारे में इस संदर्भ में सोचने पर लगता है कि रिल्के की ‘दुओनो एलिजीज़’, डब्ल्यू बी. यीट्स की कुछ कविताएं, पाब्लो नेरूदा की कुछ कविताएं, आक्तावियो पाज़ और ईब बोनफ़ुआ की कुछ कविताएं, एलेन गिंसबर्ग की लंबी कविता ‘हाउल’ आदि कुछ और विश्व कविताएं हैं. ज़ाहिर है कि यह सूची ख़ारी नाकाफ़ी और अधूरी है. उसमें आग्रह लंबी कविताओं पर है जबकि कई विश्व स्तर पर महान छोटी या मझले आकार की कविताएं भी विश्व कविता में शामिल होना चाहिए.
कभी फुर्सत होगी तो अपने हिसाब से ऐसी एक सूची बनाना अच्छा लगेगा. ऐसी सूचियां हमेशा विवादास्पद होती हैं तो वह भी होगी: विवाद से बचने का मुझे अभ्यास भी नहीं है.
कला-निरक्षर
पहली बार 1960 से 1965 तक दिल्ली में था: पहले छात्र के रूप में, फिर थोड़े समय के लिए अध्यापन में. एक छोटे शहर से महानगर में आने के कारण उन पांच बरसों में मैंने अपने को कला-साक्षर बनाने का काम लगभग ज़िद पर किया. उन दौरान दिल्ली में शायद ही कोई कला-प्रदर्शनी, नाट्य प्रस्तुति, शास्त्रीय संगीत सभा, शास्त्रीय नृत्य समारोह, विचार-गोष्ठी आदि हुई हो, जिसे मैंने सुना या देखा न हो. दिल्ली की यह कला-विपुलता न सिर्फ़ बरक़रार है, वह कई तरह से बढ़ी ही है.
दूसरी बार 1992 के मध्य से दिल्ली में फिर हूं और कोशिश करता हूं कि निजी कला-साक्षरता के अपने अभियान को जारी रखूं. अब हर जगह हो पाना यातायात की कठिनाइयों के कारण संभव नहीं हो पाता. फिर भी हर सप्ताह काफ़ी समय इन गतिविधियों में शामिल होने में बिताता हूं. अक्सर पहले निर्मल वर्मा, कृष्ण बलदेव वैद आदि वरिष्ठ लेखक भी कहीं न कहीं रसास्वादन के लिए आए मिल जाते थे. लेकिन अब वे नहीं हैं.
युवा लेखकों में, जिनमें से अधिकांश मेरी ही तरह किसी छोटे शहर या कस्बे से दिल्ली आए हैं, कला-साक्षर होने की उत्सुकता नहीं पाता हूं. इस तरह के बहुत से आयोजन तो मैं ही करता, कराता हूं. पर उनमें युवा लेखकों की उपस्थिति नगण्य होती है.
हिन्दी अंचल में पहले ही साहित्य और कलाओं के बीच, अन्य भाषाओं की तुलना में, दूरी अधिक रही है. युवा उसे कम करने के बजाय लगता है बढ़ा रहे हैं, अपनी उदासीनता और अरुचि से. यह दुखद है और इसके फलितार्थ और परिणतियां दोनों और दुखद होंगी. हिन्दी में ऐसी अनेक पीढ़ियां हो जाएंगी जो शायद कला-निरक्षर होंगी; हिन्दी संस्कृति और विपन्न हो जाएगी.
(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं.)