स्मृति शेष: नई कहानी भावों, मूड की कहानी थी. यहां वैयक्तिकता केंद्र में थी. पर शेखर जोशी इस वैयक्तिकता में भी एक ख़ास क़िस्म की सामाजिकता लेकर आते हैं, क्योंकि बक़ौल जोशी, लेखन उनके लिए ‘एक सामाजिक ज़िम्मेदारी से बंधा हुआ कर्म है.’
हिंदी के चर्चित रचनाकार शेखर जोशी की कहानी ‘कोसी का घटवार‘ जब पहले पहल विविध भारती पर सुनाी थी, तो यह समझ नहीं आया कि कैसे प्रेम को, संवेदना को व्यक्त करने के लिए इतने सहज शब्दों का प्रयोग किया जा सकता है, और वह प्रयोग ‘सुनकर’ इतना प्रभावकारी लग सकता है. पर बाद में जब उस कहानी का कई दफ़े पुनर्पाठ किया तो लगा कि छायावादी भावुकता और उसके बाद बच्चन और दिनकर के उत्तेजना और आवेग से भरे प्रेम के बाद प्रेम को ऐसा भी चित्रित किया जा सकता है, जिसमें जीवन झलकता है.
शेखर जोशी का लिखा प्रेम, रुमानियत का दावा नहीं करता, पर जीवन की वास्तविकताओं की ज़मीन से उपजे होने की गारंटी ज़रूर देता है.
शेखर जोशी के पहाड़ी संस्कारों ने उन्हें कठिन और संघर्षपूर्ण जीवन के लिए जो सम्मान सिखलाया था, संभवतः वह उनकी कहानियों के पात्रों को भी आसान ज़िंदगी देने के पक्ष में नहीं था. यही वजह है कि चाहे वह ‘बदबू’ कहानी में दिन-रात कारख़ाने में अपने हाथ से ही नहीं बल्कि अपनी आत्मा से भी केरोसिन की बदबू महसूसने वाला कामगर हो, या कहानी ‘दाज्यू’ में प्रवासी पहाड़ी मदन, या ‘कोसी का घटवार’ का वह सेवानिवृत गुसांई, हर जगह उनके पात्र जीवन के स्पंदनों से रचे-बसे हैं, संघर्ष करना जानते हैं.
जोशी नई कहानी की पीढ़ी के रचनाकार हैं, मतलब, 1950 से 1960 के दशक की पौध , इसलिए उनकी कहानियों में वह ‘लघुमानव’ बार-बार आता है जो अपनी ज़िंदगी और परिस्थितियों में निहायत ही साधारण होने के बावजूद भी साधारण नहीं है. पर यहां बात उसी कोसी का घटवार की, जो न केवल शेखर जोशी की प्रमुख कहानियों में से एक है, बल्कि हिंदी नई कहानी में भी उल्लेखनीय है.
मुख्यतः स्मृति पर आधारित रचना है ‘कोसी का घटवार’, जहां मुख्य पात्र गुसांई अपने जीवन पर विचार करते-करते पीछे जाता है, पर वापस वर्तमान में आता है -जहां अतीत एक बार फिर एक नए रूप में उसके सामने खड़ा दिखाई पड़ता है. लिखी, निर्मल वर्मा ने भी परिंदे, जो प्रेम की ही कहानी है, पर परिंदे का प्रेम अतीत से व्यामोह का प्रेम है, जोशी प्रेम में में एक तटस्थ सक्रियता भरकर लाते हैं.
कहानी शुरू में ही स्पष्ट कर देती है कि गुसांई निपट अकेला है. फ़ौज से छूटकर अपने पहाड़ी गांव में आकर कोसी के किनारे आटा पीसने की पनचक्की चलाता है. पनचक्की के काठ की चिड़िया की चर्र-चर्र आवाज़ न केवल उस सुदूर कोसी किनारे बने चक्की की निर्जनता को रह-रहकर तोड़ती है, बल्कि गुसांई के अकेलेपन में भी सोच की लहरें उठाती है.
‘आज इस अकेलेपन में कोई होता, जिसे गुसाईं अपनी जिंदगी की किताब पढ़कर सुनाता! शब्द-अक्षर… कितना देखा, कितना सुना और कितना अनुभव किया है उसने…’
कहानी का वातावरण और संदर्भ दोनों ही स्थानीय संस्कृति के अनुरूप जोशी ढालते हैं, जिससे कि पहाड़ी अंचल के लोक जीवन की झांकी साकार हो उठती है.आटा चक्की प्रतीक है रोज़ के जीवन के कोलाहलपूर्ण निरंतरता की-
‘खस्स-खस्स की ध्वनि के साथ अत्यंत धीमी गति से ऊपर का पाट चल रहा था’.
यह धीमापन पहाड़ के उस जीवन की भी गति में था जिसमें जिंदगियां और उम्र चुकती जाती थीं और इस धीमेपन और शब्दों के कोलाहल के बावजूद एक नीरवता हर कहीं विद्यमान थी. चाहे वह- ‘छिच्छर-छिच्छर की आवाज़ के साथ पानी को काटती हुई मथानी’ हो या ‘खस्सर-खस्सर चलता हुआ चक्की का पाट’ या ‘किट-किट-किट-किट खप्पर से दाने गिराने वाली चिड़िया का पाट पर टकराना’- हर जगह ही एक शब्दमय गति है और यह गति, जीवन की, दिनचर्या की निरंतरता का प्रतीक है.
शेखर जोशी, जीवन की इसी साधारण, संभवतः असाधारण, निरंतरता के लेखक थे. वह पहाड़ी संस्कृति से रचे-पगे, जीवन के चित्रकार थे, इसलिए यह कहानी व्यक्ति को केंद्र में रख कर भी अंततः मानवीय करुणा और प्रेम को रेखांकित करती है.
लछमा -जिससे फ़ौजी गुसांई प्रेम करता है, जीवन में उसकी साथी नहीं बन पाती, कारण सामाजिक हैं-
‘जिसके आगे-पीछे भाई-बहिन नहीं, माई-बाप नहीं, परदेश में बंदूक की नोक पर जान रखने वाले को छोकरी कैसे दे दें हम?’ लछमा के बाप ने कहा था.
इसलिए किसी और से ब्याह दी गई लछमा के जीवन से चले जाने के बाद जीवन से जैसा वैराग्य गुसांई ने ले लिया वह आजीवन बना रहा. अपने गांव का रुख भी उसने एक पूरी ज़िंदगी फ़ौज में तमाम कर देने के बाद ही किया.
‘पिछले बैसाख में ही वह गांव लौटा, पंद्रह साल बाद, रिजर्व में आने पर काले बालों को लेकर गया था, खिचड़ी बाल लेकर लौटा. लछमा का हठ उसे अकेला बना गया.’
पर विछोह की यह पीड़ा अनिर्वचनीय थी. लछमा जिसने आंखों में आंसू भर कर ‘गंगनाथज्यू की कसम, जैसा तुम कहोगे, मैं वैसा ही करूंगी’ कहा था, उसके यूं इस तरह अलग हो जाने से वह कहीं अंदर-ही-अंदर खिन्न हो आया था पर अपने प्रेम के प्रति उसके हृदय में सिर्फ़ स्नेह और शुभकामना ही अवशेष है.
‘वर्षों से वह सोचता आया है, कभी लछमा से भेंट होगी, तो वह अवश्य कहेगा कि वह गंगनाथ का जागर लगाकर प्रायश्चित जरूर कर ले. देवी-देवताओं की झूठी कसमें खाकर उन्हें नाराज करने से क्या लाभ?’
ऐसे में जब वह एक बार फिर जीवन के इस मोड़ पर लछमा से संयोग से मिलता है, तो दोनों ही विश्वास नहीं कर पाते हैं, क्योंकि गुसांई ने कभी भूलकर भी लछमा के ब्याह के बाद उसके बारे में किसी से नहीं पूछा था, और लछमा जो विधवा बन अपने एक बच्चे के साथ मायके में आश्रिता का जीवन गुज़ार रही है, वह गुसांई को वापस देख पाने की कल्पना भी नहीं कर सकती थी. इसलिए शेखर जोशी लिखते हैं:
‘विस्मय से आंखें फाड़कर वह उसे देखे जा रही थी, जैसे अब भी उसे विश्वास न हो रहा हो कि जो व्यक्ति उसके सम्मुख बैठा है, वह उसका पूर्व-परिचित गुसांई ही है. ‘तुम?’ जाने लछमा क्या कहना चाहती थी, शेष शब्द उसके कंठ में ही रह गए.’
यह सालों का विछोह उस निर्जन दुपहरी में कैसे घुलता गया और कैसे दोनों ही एक दूसरे को अपनी आपबीती और अपना वर्तमान सुनाते रहे, कहना मुश्किल है. पर प्रेम उम्र, परिस्थितियों के परिवर्तन के बाद भी शाश्वत था, हां अब उसका रूप ज़्यादा उद्दात था-करुणा से सिंचित. जिसके वशीभूत हो गुसांई गरम दुपहरी में अनगढ़ चूल्हे में आग जला कर रोटियां पकाता है और लछमा के छोटे बच्चे को, लछमा के लाख मना करने पर भी खिलाता है.
ऐसा लगता है मानो लछमा की विपन्नता और उसकी असहायता से उसके जीवन को एक दुपहरी भर के लिए ही सही, एक लक्ष्य-एक सार्थकता मिल गई हो. वह लछमा का किसी भी प्रकार हित कर सके- यह भाव गुसांई के प्रेम का विस्तार, उसका उद्दातीकरण था. अपने हिस्से से भी आटा मिलाकर उसकी पिसानी में मिला देकर वह जिस भाव से भर जाता है, वह अद्भुत है:
‘उसने जल्दी-जल्दी अपने निजी आटे के टीन से दो-ढाई सेर के करीब आटा निकालकर लछमा के आटे में मिला दिया और संतोष की एक सांस लेकर वह हाथ झाड़ता हुआ बाहर आकर बांध की ओर देखने लगा.’
और इस तरह वर्षों के अंतराल के बाद मिल रहे दो प्राणी जीवन के इस पड़ाव पर बस एक अकथनीय प्रेम से संचालित हितैषी बनकर फिर से अपने-अपने जीवन में लौट आते हैं अपने वर्तमान को जीने के लिए. शेखर जोशी लिखते हैं:
‘पानी तोड़ने वाले खेतिहर से झगड़ा निपटाकर कुछ देर बाद लौटते हुए उसने देखा सामने वाले पहाड़ की पगडंडी पर सिर पर आटा लिए लछमा अपने बच्चे के साथ धीरे-धीरे चली जा रही थी. वह उन्हें पहाड़ी के मोड तक पहुंचने तक टकटकी बांधे देखता रहा.
घट के अंदर काठ की चिडियां अब भी किट-किट आवाज कर रही थीं, चक्की का पाट खिस्सर-खिस्सर चल रहा था और मथानी की पानी काटने की आवाज आ रही थी, और कहीं कोई स्वर नहीं, सब सुनसान, निस्तब्ध!’
इस तरह जिस एकाकीपन और स्तब्धता के नोट पर कहानी शुरू होती है, वहीं पर समाप्त होती है, पर इस मौन में एक संतुष्टि , एक परिणति का भाव भी मिला हुआ है. किसी अधूरे काम की समाप्ति का-सा भाव. और यह भाव पाठक तक जोशी, हस्तांतरित करने में सफल होते हैं.
नई कहानी भावों की, मूड की कहानी थी. यहां वैयक्तिकता केंद्र में थी. पर शेखर जोशी इस वैयक्तिकता में भी एक ख़ास क़िस्म की सामाजिकता ले कर आ जाते हैं, क्योंकि बक़ौल जोशी, लेखन उनके लिए ‘एक सामाजिक जिम्मेदारी से बंधा हुआ कर्म है.’
वहां वह अमरकांत, भीष्म साहनी जैसे कथाकारों की श्रेणी में खड़े दिखते हैं जहां लेखन में एक जनवादी आग्रह प्रत्यक्ष है. उनके यहां निजी भी सामूहिक चेतना का हिस्सा है और इसलिए पात्रों का नितांत अपना अनुभव भी हर कोई महसूसने में सक्षम हो जाता है.
उन्होंने बहुत विस्तृत सहित्य नहीं लिखा है. ‘मेरा ओलियागांव‘ आत्मकथा के रूप में थोड़ी बड़ी है, जहां वह अपने बचपन को याद करते हैं. मुख्य रूप से उन्होंने कहानियां ही लिखी हैं- कोसी का घटवार(1958), साथ के लोग (1978), हलवाहा (1981), नौरंगी बीमार है (1990), मेरा पहाड़ (1989), डांगरी वाले(1994) और बच्चे का सपना (2004). पर जितना भी लिखा है वह हिंदी कहानी को एक नया कलेवर देने के लिए काफ़ी था क्योंकि आधुनिक हिंदी कहानियों का कोई भी संकलन उनकी कहानियों के बिना अधूरा है.
(अदिति भारद्वाज दिल्ली विश्वविद्यालय में शोधार्थी हैं.)