हिंदुओं को यह सोचने की ज़रूरत है कि आखिर क्यों हिंदू ही धर्म परिवर्तन को बाध्य होता है? क्यों उसमें रहना दलितों के लिए सचमुच एक अपमानजनक अनुभव है? क्यों हिंदू इसकी याद दिलाए जाने पर अपने भीतर झांककर देखने की जगह सवाल उठाने वाले का सिर फोड़ने को पत्थर उठा लेता है?
आम आदमी पार्टी के नेता और दिल्ली सरकार में मंत्री राजेंद्र पाल गौतम ने आखिरकार क्षणिक वीरता के बाद राजनीतिक बुद्धिमत्ता दिखलाते हुए उन सबसे माफ़ी मांगी है जिनकी धार्मिक भावनाएं उनके कारण किसी रूप में आहत हो गई थीं. गौतम जी ने कहा कि वे खुद धार्मिक व्यक्ति हैं और सभी देवी-देवताओं का सम्मान करते हैं. लेकिन यह माफ़ी मांगने की नौबत क्यों आई?
राजेंद्र पाल गौतम अशोक विजयादशमी के अवसर पर दिल्ली में तकरीबन 10,000 लोगों के बौद्ध धर्म ग्रहण करने के कार्यक्रम के मुख्य आयोजक थे. यह दिन अशोक के बौद्ध मत ग्रहण करने का है. इस रोज़ ही डॉक्टर भीमराव आंबेडकर ने बौद्ध धर्म में दीक्षा ली थी. उनके साथ 3,65,000 लोगों ने हिंदू धर्म छोड़कर बौद्ध मत ग्रहण किया था. इसका अर्थ था अपने धार्मिक अतीत से मुक्त होना.
चलो बुद्ध की ओर मिशन जय भीम बुलाता है।
आज "मिशन जय भीम" के तत्वाधान में अशोका विजयदशमी पर डॉ०अंबेडकर भवन रानी झांसी रोड पर 10,000 से ज्यादा बुद्धिजीवियों ने तथागत गौतम बुद्ध के धम्म में घर वापसी कर जाति विहीन व छुआछूत मुक्त भारत बनाने की शपथ ली।
नमो बुद्धाय, जय भीम! pic.twitter.com/sKtxzVRYJt
— Rajendra Pal Gautam (@AdvRajendraPal) October 5, 2022
इसके लिए कुछ प्रतिज्ञाएं करनी पड़ती हैं. ऐसे 22 संकल्प या प्रतिज्ञाएं डॉक्टर आंबेडकर के साथ उन सबने कीं, जो हिंदू धर्म का त्याग कर रहे थे. हिंदू होने का अर्थ ब्रह्मा, विष्णु, महेश, राम और कृष्ण में श्रद्धा या आस्था भी है. इसलिए अगर आप हिंदू नहीं रहेंगे तो जाहिरा तौर पर इस आस्था से भी मुक्ति हासिल करनी होगी.
जो जीवन भर का अभ्यास रहा है, उससे छुटकारा पाना क्या इतना आसान है? इसीलिए शायद सार्वजनिक प्रतिज्ञा के बारे में सोचा गया होगा ताकि व्यक्ति समाज के सामने इन प्रतिज्ञाओं से खुद को बंधा हुआ महसूस करे. उसके अनुसार आचरण भी करे.
ये प्रतिज्ञाएं प्रत्येक वर्ष इस दीक्षा के स्मरण में आयोजित कार्यक्रम में, विशेषकर नागपुर की दीक्षा भूमि में दोहराई जाती रही हैं. इन कार्यक्रमों में भारतीय जनता पार्टी के नेता शामिल होते रहे हैं. आज तक किसी ने राम, कृष्ण को न पूजने की प्रतिज्ञा पर एतराज नहीं जतलाया. लेकिन इस बार भाजपा ने नेताओं ने गौतम पर हमला कर दिया. इस आयोजन को हिंदू विरोधी घोषित किया गया.
उसके प्रमाणस्वरूप राम, कृष्ण को न पूजने की इस प्रतिज्ञा की वीडियो क्लिप दिखलाई गई. अब उसे प्रसारित करके पूछा जा रहा है कि आखिर आम आदमी पार्टी और अरविंद केजरीवाल हिंदुओं से इतनी घृणा क्यों करते हैं!
शुरू में तो गौतम ने इस आक्रमण का बहादुरी से सामना किया. उन्होंने आंबेडकर की दीक्षा की याद दिलाई. दीक्षा के समय की उनकी 22 प्रतिज्ञाओं की याद दिलाई. बतलाया कि इस दीक्षा का राजनीति से कोई लेना-देना नहीं. यह हर वर्ष होता है. ये 10,000 लोग अपनी मर्जी से दीक्षा ले रहे थे. लेकिन भाजपा का हमला जारी रहा.
आखिरकार राजनीतिक यथार्थवाद जीत गया और गौतम को खुद को धार्मिक घोषित करते हुए सफाई देनी पड़ी कि वे सभी देवी और देवताओं का सम्मान करते हैं.
इसका कारण स्पष्ट है. सामने गुजरात का चुनाव है. वहां आप और केजरीवाल यह खतरा मोल नहीं ले सकते कि उन्हें हिंदू विरोधी साबित कर दिया जाए. उन्हें गौतम की इस माफी मांगने के बाद भी इसके लिए तैयार रहना चाहिए कि भाजपा का यह अभियान चलता रहेगा. बेहतर हो कि वे अपने सुरक्षात्मक तर्क तैयार कर लें.
इस प्रकरण से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि हिंदू धर्म में आत्मावलोकन की क्षमता आज से 60 साल पहले तो नहीं ही थी, आज और नहीं है. या शायद यह बात सारे धर्मों के बारे में ऐसे ही कही जा सकती है.
आखिर बाबा साहब ने कड़ी आलोचना के बाद ही हिंदू धर्म का त्याग किया था. वह उन्हें नर्क की तरह लगने लगा था. उनका निर्णय किसी क्षणिक उत्तेजना में, किसी एक घटना के कारण लिया गया हो, ऐसा नहीं. कोई 20 साल के गहन चिंतन के बाद उन्होंने हिंदू धर्म के दायरे से निकलने का निर्णय किया.
यह तो दलितों को हिंदू धर्म में ही रखने को प्रतिबद्ध गांधी को भी मानना पड़ा था कि जिन अनुभवों से आंबेडकर और शेष दलित गुजरते रहे हैं, उन्हें देखते हुए उनके कड़वे शब्द कम ही हैं.
आखिर उस देवी या देवता की पूजा कोई क्यों करे जिसकी प्रतिमा छूने पर उसके आधिकारिक आराधक खाल उधेड़ लेते हों? क्या यह आंबेडकर साहब के वक्त जितना था, आज उससे कम है? कितनी ही घटनाएं रोज़-रोज़ घटती रहती हैं जिनमें दलित सिर्फ इसलिए पीटे जाते हैं कि वे मंदिर में प्रवेश चाहते हैं या देव प्रतिमा को वैसे ही स्पर्श करना चाहते हैं जैसे असवर्ण करते हैं. फिर इस देवी के प्रति श्रद्धा या स्नेह क्योंकर हो?
लेकिन गौतम साहब या कोई भी राजनीतिक नेता अब सार्वजनिक रूप से यह बहस करने की हिम्मत नहीं कर सकता. वह करे या नहीं, सच्चाई इससे बदलती नहीं.
गौतम साहब को छोड़ दें, जो लोग इस दीक्षा में शामिल थे, उनमें से कोई क्यों नहीं भाजपा का जवाब देने को प्रस्तुत है? वे सब जो बाबा साहब के उत्तराधिकारी होने का दावा करते हैं, वे क्यों चुप हैं?
इसका उत्तर हरीश वानखेड़े ने हिंदू अखबार में छपे अपने लेख में दिया है. उन्होंने भारत में नव बौद्ध आंदोलन के थक जाने की गाथा लिखी है. भारत में बौद्ध जनसंख्या अत्यंत लघु है. हिंदू सामाजिक व्यवस्था को नव बौद्ध आंदोलन कोई कारगर चुनौती नहीं दे पाया है. यह महाराष्ट्र में सबसे प्रभावी है.
फिर भी सच यह है कि महार समुदाय के लोग ही नव बौद्ध आंदोलन में अधिक शामिल हुए हैं या फिर कुछ मातंग और मराठा समुदाय के लोग. शेष दलित अभी भी बौद्ध मत अपनाने में झिझकते ही रहे हैं. हालांकि बाबा साहब से जुड़े हुए प्रतीक जगह जगह देखे जा सकते हैं. लेकिन बंगाल, ओडिशा या पंजाब में, जहां दलित अच्छी तादाद में हैं, बौद्ध मत को आध्यात्मिक विकल्प के रूप में देखा नहीं गया है.
वानखेड़े ने इस दिलचस्प तथ्य की तरफ भी इशारा किया है कि भारत के पड़ोसी बौद्ध मत बहुल देशों ने भी इस नव बौद्ध आंदोलन में रुचि नहीं दिखलाई है. वे गया जैसे बौद्ध स्थलों पर मंदिर और स्तूप आदि के निर्माण में ही व्यस्त हैं.
नव बौद्ध आंदोलन को वर्चस्वशाली हिंदू वर्ग के सामाजिक और राजनीतिक विचारों को चुनौती देनी थी. वह ऐसा नहीं कर पाया. एक तो उसे भारतीय सभ्यता का अंग बतलाकर हिंदू धर्म ने ही हड़प लेने की कोशिश की. बुद्ध को अवतार मानने वाले बड़ी संख्या में हैं.
बौद्ध मत एक समय क्रांतिकारी विचार था और उसे उसी रूप ने आंबेडकर साहब को आकर्षित किया था. लेकिन धीरे-धीरे वह भी एक कर्मकांड में शेष हो गया और औपचारिक रूप से क्रांतिकारी रह गया. इस तरह उसमें और पहले से व्याप्त हिंदू धर्म में बहुत काम अंतर रह गया.
यह कहने का साहस अब कम लोगों को है कि डॉक्टर आंबेडकर की अध्यक्षता में निर्मित संविधान ने धर्म परिवर्तन का अधिकार सबको दिया है. हिंदू धर्म के ध्वजावाहक किसी को जबरन हिंदू बनाए नहीं रख सकते और किसी के धर्म परिवर्तन के अधिकार पर सवाल नहीं उठा सकते. उसे जिससे तकलीफ हुई है, वह उसकी आलोचना भी कर सकता है.
हिंदुओं को भी यह सोचने की ज़रूरत है कि आखिर क्यों हिंदू ही धर्म परिवर्तन को बाध्य होता है? क्यों उसमें रहना दलितों के लिए सचमुच एक अपमानजनक अनुभव है? क्यों हिंदू इसकी याद दिलाए जाने पर अपने भीतर झांककर देखने की जगह सवाल उठाने वाले का सिर फोड़ने को पत्थर उठा लेता है?
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)