दिल्ली दंगे: गृह मंत्रालय द्वारा अतिरिक्त बलों की तैनाती में देरी से हिंसा और भड़की- रिपोर्ट

सुप्रीम कोर्ट और विभिन्न हाईकोर्ट के पूर्व जज वाली फैक्ट-फाइंडिंग समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि गृह मंत्रालय की लापरवाह प्रतिक्रिया, हिंसा में दिल्ली पुलिस की मिलीभगत, मीडिया की विभाजनकारी रिपोर्टिंग और सीएए विरोधी प्रदर्शनकारियों के ख़िलाफ़ भाजपा का घृणा अभियान दिल्ली दंगों के लिए ज़िम्मेदार थे.

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(फाइल फोटो: पीटीआई)

सुप्रीम कोर्ट और विभिन्न हाईकोर्ट के पूर्व जज वाली फैक्ट-फाइंडिंग समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि गृह मंत्रालय की लापरवाह प्रतिक्रिया, हिंसा में दिल्ली पुलिस की मिलीभगत, मीडिया की विभाजनकारी रिपोर्टिंग और सीएए विरोधी प्रदर्शनकारियों के ख़िलाफ़ भाजपा का घृणा अभियान दिल्ली दंगों के लिए ज़िम्मेदार थे.

(फोटो: पीटीआई)

यह रिपोर्ट पहली बार 10 अक्टूबर, 2022 को प्रकाशित हुई थी. तीन साल पहले 24 फरवरी 2000 को उत्तर-पूर्व दिल्ली में दंगे हुए थे.

नई दिल्ली: पूर्वोत्तर दिल्ली में 2020 में हुए सांप्रदायिक दंगों की जांच के लिए सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश मदन बी. लोकुर की अध्यक्षता में गठित एक फैक्ट फाइंडिंग समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि केंद्रीय गृह मंत्रालय ने साफ तौर पर हिंसा प्रभावित क्षेत्रों में अतिरिक्त बलों की तैनाती में देरी की, जबकि सांप्रदायिक दंगे 23 फरवरी से 26 फरवरी 2020 के बीच बेरोकटोक जारी रहे.

समिति ने पाया कि दिल्ली पुलिस नेतृत्व को 23 फरवरी को विशेष शाखा और खुफिया इकाइयों से कम से कम छह आंतरिक चेतावनी (अलर्ट) प्राप्त हुई थीं, इसके बावजूद भी अतिरिक्त बलों की तैनाती 26 फरवरी को की गई. अलर्ट में चेतावनी दी गई थी कि समुदायों के बीच हिंसा बढ़ सकती है. ज्ञात हो कि 23 फरवरी को ही दंगों की शुरुआत हुई थी.

समिति ने कहा कि गृह मंत्रालय द्वारा दिखाए गए कथित ढुलमुल रवैये ने अप्रत्यक्ष रूप से दंगाइयों को तीन दिन अनियंत्रित तरीके से लक्षित हिंसा फैलाने में मदद की.

समिति के दावे का समर्थन दिल्ली पुलिस द्वारा एफआईआर-59 से संबंधित अदालत में पेश आरोप-पत्र भी करता है. इसमें कार्यकर्ता उमर खालिद, खालिद सैफी, इशरत जहां और गुलफिशा फातिमा, सफूरा जरगर, नताशा नरवाल, देवंगाना कलीता व इन जैसे अन्य छात्रों के खिलाफ यूएपीए लगाया गया है.

आरोप-पत्र में कहा गया है कि हिंसा के पहले तीन दिनों में जब प्रभावित क्षेत्रों से मदद के लिए अधिकतम फोन (डिस्ट्रेस कॉल) आ रहे थे, तब दिल्ली पुलिस और केंद्रीय पुलिस बलों के कर्मियों की संख्या 1,400 से कम थी. 26 फरवरी को जब पूर्वोत्तर दिल्ली के कई हिस्सों में हिंसा काफी हद तक नियंत्रण में थी, तब बलों की तैनाती बढ़ाकर 4,000 की गई.

रिपोर्ट में कहा गया है, ‘वास्तव में, 24 फरवरी को नागरिक पुलिस और अर्धसैनिक बल दोनों की संख्या 23 फरवरी की तुलना में कम थी. 26 फरवरी को ही तैनाती में वृद्धि हुई थी, जबकि यह वो दिन था जब राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ने स्थिति के नियंत्रण में होने का ऐलान किया था. ‘

फैक्ट फाइंडिंग समिति में सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज मदन बी. लोकुर, दिल्ली और मद्रास हाईकोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश एपी शाह, दिल्ली हाईकोर्ट के पूर्व जज आरएस सोढ़ी, पटना हाईकोर्ट के पूर्व जज अंजना प्रकाश और पूर्व केंद्रीय गृह सचिव जीके पिल्लई शामिल थे.

अपनी 170 पेज से अधिक की विस्तृत रिपोर्ट में समिति ने निष्कर्ष निकाला है, ‘केंद्रीय गृह मंत्रालय की लापरवाह प्रतिक्रिया, हिंसा में दिल्ली पुलिस की खुली मिलीभगत, मीडिया द्वारा घटना का विभाजनकारी वर्णन और दो महीने से अधिक समय से विवादास्पद नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) का विरोध कर रहे मुसलमानों के खिलाफ भारतीय जनता पार्टी का घृणा अभियान दिल्ली के सांप्रदायिक दंगों के लिए सामूहिक तौर पर जिम्मेदार थे. ‘

समिति ने अपने रिपोर्ट में कहा है कि केंद्रीय गृह मंत्रालय ने यह झूठा माहौल बनाया कि ‘स्थिति नियंत्रण में थी.’

समिति ने 758 एफआईआर में से 752 की समीक्षा की और पाया कि सीएए विरोधी प्रदर्शनकारियों, जिनमें अधिकांश मुस्लिम थे, और सीएए का विरोध कर रहे हिंदुत्व कार्यकर्ताओं के खिलाफ पुलिस की प्रतिक्रिया परस्पर विरोधी और पक्षपातपूर्ण थी.

समिति ने यह भी कहा कि हिंदुत्व कार्यकर्ताओं के नेतृत्व वाली हिंसा में पुलिस ने भी इसलिए भाग लिया, ताकि पूर्वोत्तर दिल्ली के कई स्थानों पर सीएए के विरोध प्रदर्शन स्थलों को खत्म किया जा सके.

साथ ही, रिपोर्ट में कहा गया है कि कई मामलों में दिल्ली पुलिस के जवान पूर्वोत्तर दिल्ली में रहने वाले मुस्लिम निवासियों को निशाना बनाते हुए पाए गए, वे सीएए विरोधी प्रदर्शनों के खिलाफ अपना गुस्सा निकाल रहे थे.

Uncertain Justice – The Report by The Wire

इस संबंध में रिपोर्ट में पुलिस की क्रूरता के संबंध में उस घटना का भी जिक्र किया गया है जिसमें 5 मुस्लिम युवकों को पुलिस ने निशाना बनाया और जिनमें से एक ‘फैजान’ की मौत हो गई थी. इस घटना का वीडियो भी वायरल हुआ था, जिसमें देखा जा सकता था कि मुस्लिम युवक जमीन पर पड़े हुए थे और पुलिस उन्हें पीट रही थी तथा राष्ट्र गान और वंदे मातरम गाने के लिए कह रही थी. बाद में चोटों के कारण फैजान की मौत हो गई थी.

रिपोर्ट में जामिया मिलिया इस्लामिया के छात्रों और विश्वविद्यालय के सीसीटीवी फुटेज के हवाले से भी पुलिस के पक्षपाती रवैये का उल्लेख किया गया है.

रिपोर्ट में सीएए विरोधी प्रदर्शनकारियों और हिंदुत्ववादी कार्यकर्ताओं व भाजपा नेताओं के खिलाफ पुलिस की कार्रवाईयों के बीच भी तुलना की गई है कि किस तरह पुलिस ने दोनों पक्षों के प्रति कार्रवाई में भेदभाव किया.

रिपोर्ट का अध्ययन करने पर पाते हैं कि एक तरफ तो पुलिस ने सीएए विरोधी प्रदर्शनकारियों के खिलाफ हर मोर्चे पर कड़ा रुख अपनाया, तो दूसरी तरफ सीएए के समर्थन में सत्तारूढ़ दल (भाजपा) के नेताओं द्वारा हिंसा की वकालत करने वाले प्रदर्शनों और हरकतों पर कोई हस्तक्षेप तक नहीं किया.

रिपोर्ट में पुलिस की जांच पर भी सवाल उठाए गए हैं कि वह पूरी तरह से भाजपा और उसके समर्थकों के पक्ष में सांप्रदायिक रंग लिए हुए थी.

रिपोर्ट में कहा गया है कि 700 मामले दर्ज करने के बावजूद भी दिल्ली पुलिस ने केवल छह मामलों में अक्टूबर 2021 से जनवरी 2022 के बीच आरोप-पत्र पेश किया है.

इसमें कहा गया है कि कई कारक इस संभावना की ओर इशारा करते हैं कि सीएए विरोधी कार्यकर्ताओं पर लगाए गए कई आरोप झूठे व गढ़े हुए प्रतीत होते हैं.

रिपोर्ट में कहा गया है कि कई मामलों में अदालत ने पाया कि आरोपियों के कॉल डिटेल रिकॉर्ड (सीडीआर) की लोकेशन अपराध स्थल पर आरोपी की उपस्थिति के संबंध में अभियोजन पक्ष के दावों में विरोधाभास प्रकट करती है.

समिति ने यह भी पाया कि एफआईआर 59 में यूएपीए लगाना अनुचित था, क्योंकि पुलिस ऐसा कोई भी सबूत पेश करने में विफल रही जो इस कानून के इस्तेमाल को उचित ठहराता हो. इसके अलावा, जांच एजेंसियों की कपिल मिश्रा, प्रवेश वर्मा या हिंदुत्ववादी नेताओं जैसे यति नरसिंहानंद सरस्वती, रागिनी तिवारी और अन्य लोगों की जांच करने में विफलता, जिन्होंने अपने भाषणों में सार्वजनिक रूप से हिंसा भड़काई, जांच की पक्षपातपूर्ण प्रकृति को खुले तौर पर साबित करती है.

समिति ने अपनी जांच में पाया कि समुदायों के बीच तनाव जानबूझकर पैदा किया गया था. कुछ समाचार चैनलों ने भाजपा की सोशल मीडिया मशीनरी के साथ मिलकर हिंदू बनाम मुस्लिम का माहौल बनाया था.

इस संबंध में रिपोर्ट में मुख्यधारा के टीवी चैनलों- जी न्यूज, रिपब्लिक टीवी, इंडिया टीवी, आज तक- का उल्लेख किया है.

समिति ने यह भी कहा कि इन टेलीविजन चैनलों ने कपिल मिश्रा, प्रवेश वर्मा और इन जैसे अन्य भगवा नेताओं के नफरत भरे भाषणों को बढ़ावा दिया. इन भाषणों में हिंदुओं से बार-बार एकजुट होने की अपील की गई थी.

(इस रिपोर्ट को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)