सुप्रीम कोर्ट वर्ष 2016 में दायर एक जनहित याचिका पर सुनवाई कर रही थी, जिसमें आपराधिक मामलों में दोषी ठहराए जाने पर राजनेताओं के चुनाव लड़ने पर आजीवन प्रतिबंध लगाने की मांग के अलावा सांसद-विधायकों के ख़िलाफ़ दर्ज मामलों में तेज़ सुनवाई की मांग की थी.
नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को सभी उच्च न्यायालयों को सांसदों-विधायकों के खिलाफ पांच साल से अधिक समय से लंबित आपराधिक मामलों और उनके शीघ्र निपटारे के लिए उठाए गए कदमों समेत पूरा विवरण उपलब्ध कराने को कहा.
जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ और जस्टिस हिमा कोहली की पीठ ने 10 अगस्त, 2021 को दिए गए न्यायालय के आदेश में संशोधन कर दिया, जिसमें यह कहा गया था कि न्यायिक अधिकारियों, जो सांसदों-विधायकों के खिलाफ मामले की सुनवाई कर रहे हैं, को अदालत की पूर्व मंजूरी के बिना बदला नहीं जा सकता.
शीर्ष अदालत ने न्यायमित्र वरिष्ठ अधिवक्ता विजय हंसारिया की दलील को संज्ञान में लेते हुए कहा कि न्यायिक अधिकारियों द्वारा बड़ी संख्या में आवेदन दायर किए गए हैं, जिसमें विशेष अदालत के प्रभार से मुक्त करने की अनुमति देने की मांग की गई है, क्योंकि या तो उनकी प्रोन्नति हो गई है या फिर स्थानांतरण हो चुका है.
शीर्ष अदालत ने 10 अगस्त 2021 के आदेश में संशोधन करते हुए कहा कि उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को यह अधिकार होगा कि वह ऐसे न्यायिक अधिकारियों के तबादले का आदेश दे सकेंगे.
शीर्ष अदालत ने कहा कि सभी उच्च न्यायालयों को चार सप्ताह के अंदर एक हलफनामा दाखिल करके सांसद-विधायक के खिलाफ पांच साल से अधिक समय से लंबित आपराधिक मामलों की संख्या और उनके शीघ्र निपटारे के लिए उठाए गए कदमों के बारे में बताना होगा.
पीठ अधिवक्ता अश्विनी उपाध्याय द्वारा वर्ष 2016 में दायर एक जनहित याचिका पर सुनवाई कर रही थी, जिसमें आपराधिक मामलों में दोषी ठहराए जाने पर राजनेताओं के चुनाव लड़ने पर आजीवन प्रतिबंध लगाने की मांग के अलावा सांसद-विधायक के खिलाफ दर्ज मामलों में तेज सुनवाई की मांग की थी.
समाचार एजेंसी पीटीआई के मुताबिक, अधिवक्ता स्नेहा कलीता की माध्यम से हंसारिया ने कहा कि कानून निर्माताओं के खिलाफ आपराधिक मामलों के त्वरित निपटान के लिए विशेष अदालतों की आवश्यकता है, क्योंकि अदालत के कई निर्देशों के बावजूद उनके खिलाफ मामलों की संख्या बढ़ रही है.
अगस्त में शीर्ष अदालत जनहित याचिका पर विचार करने के लिए सहमत हुई थी, जिसमें किसी आपराधिक मामले में दोषी ठहराए जाने के बाद एक निर्वाचित प्रतिनिधि को चुनाव लड़ने से आजीवन प्रतिबंध लगाने की मांग की गई थी.
इसने इस बात पर ध्यान दिया था कि सरकारी सेवाओं में कार्यरत अन्य नागरिकों की तुलना में जनप्रतिनिधित्व अधिनियम के तहत आपराधिक मामलों में दोषी ठहराए जाने के बाद सांसदों की अयोग्यता से संबंधित कानून में गंभीर असमानता मौजूद है.
शीर्ष अदालत उपाध्याय द्वारा दायर याचिका पर समय-समय पर कई निर्देश पारित करती रही है, ताकि सांसदों के खिलाफ मामलों की त्वरित सुनवाई और सीबीआई और अन्य एजेंसियों द्वारा त्वरित जांच सुनिश्चित की जा सके.
पिछले साल 10 अगस्त को शीर्ष अदालत ने राज्य के अभियोजकों की शक्ति को कम कर दिया था और फैसला सुनाया था कि वे उच्च न्यायालयों की पूर्व स्वीकृति के बिना आपराधिक प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) के तहत सांसदों के खिलाफ मुकदमा वापस नहीं ले सकते.
पिछले साल 26 अगस्त को राजनेताओं के खिलाफ मुकदमे वापस लेने को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि उचित निर्देश पहले ही जारी किए जा चुके हैं, जिसमें राज्यों द्वारा मौजूदा या पूर्व सांसदों के खिलाफ मुकदमा वापस लेने के लिए उच्च न्यायालय की अनुमति अनिवार्य हो गई है और आगे किसी निर्देश की आवश्यकता नहीं है.
पीठ ने कहा था कि वह बाद में इस तर्क पर विचार करेगी कि एक सांसद को आपराधिक मामले में दोषी ठहराए जाने के बाद संसद या राज्य विधानमंडल की सदस्यता से अयोग्य घोषित कर दिया जाना चाहिए या उसे जीवन भर चुनाव लड़ने से वंचित कर दिया जाना चाहिए.
इसने केंद्र और सीबीआई जैसी एजेंसियों द्वारा अपेक्षित स्थिति रिपोर्ट दाखिल न करने पर कड़ी नाराजगी व्यक्त की थी और संकेत दिया था कि वह नेताओं के खिलाफ आपराधिक मामलों की निगरानी के लिए शीर्ष अदालत में एक विशेष पीठ का गठन करेगी.
(समाचार एजेंसी भाषा से इनपुट के साथ)