सवर्ण समाज झूठ बोलता रहा है कि वह समानता के उसूल को मानता है. उसने किसी भी स्तर पर दलितों के साथ साझेदारी से इनकार किया. दलितों का हिंदू बने रहना मात्र एक जगह उपयोगी है- कि ‘मुसलमान, ईसाई’ के प्रति द्वेष और घृणा पर आधारित राजनीति के लिए ऐसे हिंदुओं की संख्या बढ़ती रहनी चाहिए.
दिल्ली में हज़ारों लोगों के द्वारा हिंदू धर्म छोड़कर बौद्ध मत अपनाने की घटना के बाद उत्तर प्रदेश और बिहार से भी इसी प्रकार की खबरें आई हैं. जो ऐसा कर रहे हैं, वे दलित समुदायों के ही सदस्य होंगे, इसमें संदेह नहीं. इस समाचार से हिंदू समाज में प्रायः नाराज़गी देखी जा रही है. तकलीफ़ नहीं. कहीं कोई आत्मनिरीक्षण होता नहीं दिखता.
यह नाराज़गी क्यों है? साफ़ तौर पर इसलिए कि इससे हिंदू जनसंख्या में ह्रास होता है. इस संख्या का जनतंत्र में उपयोग है. मतदाता को हिंदू बनाकर या उसे हिंदू की तरह संबोधित करके उसका समर्थन हासिल करने वाली राजनीति की ताक़त ऐसी घटनाओं से घटेगी, ऐसी आशंका होती है.
लेकिन हिंदू की तरह किसी को देखने का अर्थ क्या है? क्या वेदांत, गीता, राम, शिव या दुर्गा में विश्वास या आस्था से यह हिंदू पहचाना जाता है? लेकिन एक शिव उपासक होने से यह कैसे तय होगा कि वह किसके पक्ष मतदान करेगा या करेगी?
अगर उसे ऐसा हिंदू बनाया जा सके जो मुसलमानों या ईसाइयों से ख़ुद को अलग माने, मात्र अलग नहीं बल्कि यह माने कि उनके हित परस्पर विरोधी हैं, तो वह अवश्य ही एक खास राजनीति के लिए उपयोगी होगा. यह हिंदू राम, शिव, कृष्ण, या दुर्गा का उपासक हो न हो, मुसलमान विरोधी या मुसलमान को लेकर शंकालु अवश्य है. ऐसे हिंदुओं की संख्या अगर घट जाए तो हिंदुत्व की राजनीति का आधार संकुचित होता है. इसलिए भारतीय जनता पार्टी इस धर्मांतरण से नाराज़ है. हालांकि वह कहती रही है कि बौद्ध धर्म भारतीय है.
बौद्ध होने का अर्थ अनिवार्य रूप से विद्वेष, घृणा और हिंसा से मुक्त हो जाना नहीं. यह तो श्रीलंका और म्यांमार को देखकर जाना जा सकता है. या अभी ब्रिटेन की गृह सचिव को देखकर भी जाना जा सकता है कि बौद्ध होने मात्र से आप में अनिवार्य रूप से करुणा या दूसरों के प्रति सहानुभूति अथवा अहिंसा का संचार नहीं होता. फिर भी बौद्ध होने पर एक अलग तरीक़े से सोचने का रास्ता तो खुलता है.
उससे भी आगे बाबा साहब ने शायद यही सोचकर अपने रास्ते को महायान और हीनयान से भिन्न नवयान की संज्ञा दी थी. इसका एक पहलू आध्यात्मिक है लेकिन यह प्राथमिक रूप से इस संसार में समाज के संगठन में अपनी भूमिका के निर्धारण का तरीक़ा सुझाता है. नवयान बराबरी और बंधुत्व के आधार पर सामाजिक जीवन की कल्पना है.
बाबा साहब आंबेडकर समतापूर्ण और बंधुत्व के सूत्र में बंधी सामाजिकता की कामना करते हैं. वही कामना या कल्पना भारत के संविधान में भी है. यह कैसे होगा? अगर हम एक दूसरे के जीवन में भागीदारी, साझेदारी करें तभी तो बंधुत्व संभव होगा. अगर हम एक दूसरे से उदासीन रहें और हमारे बीच कोई राह-रस्म न हो तो फिर यह नई सामाजिकता कैसे निर्मित होगी?
कौन इस नए समाजीकरण की मांग कर रहा है और किसकी इसमें कोई रुचि नहीं है? किसका इससे विरोध है? इस प्रकार की मांग को स्वीकार करने का अर्थ है पुराने विभेदीकृत समाज के तौर तरीक़ों को अस्वीकार करना. लेकिन इसके प्रति उन तबकों में उत्साह नहीं देखा गया है जो ख़ुद को जातिवाद से मुक्त बतलाते हैं. ये ही तबके पिछले दिनों परशुराम का फरसा लेकर जुलूस निकालते देखे गए हैं. परंपरा की रक्षा या उसका स्मरण कहकर ऐसे कृत्यों को उचित ठहराया जाता है.
क्या ऐसे कर्मकांड में समाज के सभी तबके शामिल हो सकते हैं? उत्तर हम जानते हैं.देवी की प्रतिमा का स्पर्श करने पर हिंसा या मंदिर प्रवेश पर हिंसा के उदाहरण कितने हैं!
स्कूलों में दलित समुदाय के लोगों का बनाया भोजन न करने की घटना कितनी सामान्य मानी जाती है? क्या इसे लेकर कोई आंदोलन हमारे समाज में है? बल्कि यह कहा जाता है कि साथ भोजन करना, मंदिर में प्रवेश इत्यादि व्यर्थ की ज़िद है. क्या दलित घर में पूजा नहीं कर सकते? क्या यह ज़रूरी है कि स्कूल में दलित ही खाना बनाए? दलित बच्चे अलग पंक्ति में बैठकर पढ़ तो सकते ही हैं?
दलित, ग़ैर दलित में प्रेम या विवाह से अगर ख़लल पैदा होता है तो उसकी ज़िद क्यों? क्या दलित आपस में रिश्तेदारी नहीं कर सकते? क्यों समाज में अनावश्यक तनाव पैदा करें? गांव के लोग भड़कते हैं तो क्या दलित बिना घोड़ी चढ़े बारात नहीं निकाल सकता? क्यों वह अपनी पहचान को लेकर इतना संवेदनशील रहता है?
बाबा साहब ने मित्रता की मांग की थी. गांधी ने पूना समझौते के बाद कहा था कि अपने जीवन के दारुण अनुभवों के बाद भी यह समझौता डॉक्टर आंबेडकर का बड़प्पन है. अब तथाकथित उच्च जाति के लोगों को साबित करना है कि डॉक्टर आंबेडकर ने समझौता करके गलती नहीं की थी.
लेकिन अगर आज़ाद भारत का इतिहास देखें तो समझ पाएंगे कि डॉक्टर आंबेडकर क्यों हिंदुओं से निराश होने को बाध्य हुए? क्यों हिंदू धर्म की सामाजिकता में इतना विस्तार नहीं हो पाया कि दलितों को उसमें बराबरी का एहसास मिल सके? वह इन 75 सालों में भी नहीं हुआ? जैसा गांधी ने किया था, वैसा और उससे आगे का कोई प्रयास क्यों सवर्ण समाज के भीतर नहीं हुआ कि वह ख़ुद को बदले, कि वह समानता के सिद्धांत को स्वीकार करे?
सवर्ण समाज ख़ुद से और दूसरों से झूठ बोलता रहा कि वह समानता के उसूल को मानता है. उसने सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक, किसी भी स्तर पर दलितों के साथ साझेदारी से इनकार किया. उनकी साधनहीनता के लिए उन्हें ही ज़िम्मेदार ठहराया. उन्हें ख़ुद को न ‘सुधार’ पाने के लिए उन पर लानत भेजी. जितनी जगहों पर उसका क़ब्ज़ा था, उन सबको अपना अधिकार माना.
ये सारी बातें अनेक बार कही जा चुकी हैं. फिर भी बार बार दोहराने की ज़रूरत बनी हुई है. दलितों का हिंदू बने रहना मात्र एक जगह उपयोगी है. ‘मुसलमान, ईसाई’ के प्रति द्वेष और घृणा पर आधारित राजनीति के लिए ऐसे हिंदुओं की संख्या बढ़ती रहनी चाहिए.
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ दलितों के बीच काम करके अपना आधार बड़ा कर रहा है. लेकिन वह उनके बीच कर क्या रहा है? वह उनके भीतर मुसलमान विरोधी घृणा के बीज बो रहा है.
क्या आरएसएस सवर्ण समुदायों में जातिगत भेदभाव के ख़िलाफ़ कोई अभियान चला रहा है? क्योंकि इस बीमारी से पीड़ित तो वे हैं. विडंबना यह है कि व्याधि उनकी है और उससे हानि दलितों को होती है. क्या आरएसएस की शाखाओं, उसके विद्यालयों, उसके प्रचार अभियानों में यह सबसे प्रमुख विषय है?
क्या आरएसएस अभी भी सिर पर मैला ढोने या सीवर साफ़ करने में दलितों की मौत को लेकर कभी कुछ करता है?
जो दिल्ली, उत्तर प्रदेश या बिहार में हाल में हुआ, उससे मुसलमान विरोधी हिंदू जनसंख्या के घटने की आशंका है. उससे मानवता के प्रति अपने कर्तव्य को लेकर सजग मनुष्यों की संख्या बढ़ने की संभावना है.
दोहरा दें कि यह म्यांमार या श्रीलंका का हिंसक और बौद्धमत नहीं है जिसे इन सम्मेलनों में स्वीकार किया गया है. यह बाबा साहब द्वारा संशोधित आधुनिक जनतांत्रिक समाज में सद्भावपूर्ण सहजीवन को संभव करने का एक बौद्ध सूत्र है. इसमें सांसारिक शांति ही आध्यात्मिक मुक्ति की राह दिखलाती है. यह नवयान मनुष्य-द्वेष से मुक्ति की राह है.
अगर भारतीय इस रास्ते भारतीय बने रहना चाहते हैं तो किसी को क्यों ऐतराज होना चाहिए? जिससे कभी लगाव नहीं, जिससे कोई संबंध बनाने की इच्छा नहीं, उन्हें अपने घेरे में रखने की इच्छा क्यों? यह प्रश्न उन सबको करना चाहिए जो कुछ हज़ार लोगों के नव बौद्ध मत में जाने के निर्णय से क्षुब्ध हैं. वे सुन लें जो ये नव बौद्ध कह रहे हैं: हम मुसलमान विरोधी हिंदुत्व की आग जलाए रखने को ईंधन बने रहने को अब तैयार नहीं.
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)