पाकिस्तान में सेवण शरीफ़ और अलग-अलग सूफ़ी दरगाहों पर हाल ही के सालों में हुए आतंकी हमले दिखाते हैं कि इस्लामी आतंकी लोगों में सूफ़ी इस्लाम की बढ़ती लोकप्रियता से डरा हुआ महसूस कर रहे हैं.
मैं नहीं जानती कि सेवण शरीफ़ के बाहर बैठने वाला वो चूड़ी वाला ज़िदा भी बचा कि नहीं. जो चूड़ियां मैंने उससे खरीदी थीं, वो तो अब तक मेरे पास हैं. वो औरत जो कंधे पर अपनी बच्ची को बैठाए ड्रम की आवाज़ से पहले ही अपने अंदर बज रही धुन पर थिरक रही थी, क्या वो बीती 16 फरवरी को अपने घर पहुंची होगी? वो उस बम धमाके में बचे या नहीं?
मैंने उन्हें पिछले अप्रैल में देखा था जब मैं हिंदुस्तान से आए अपने कुछ दोस्तों को लेकर सेवण शरीफ़ गई थी. पूरे दक्षिण एशियाई सूबे में मशहूर इस दरगाह पर हर हफ़्ते जुमे से एक रोज़ पहले यानी जुमेरात को सबसे ज़्यादा भीड़ रहती है.
एक जाने-माने धार्मिक गुरु की कब्र पर बनी इस दरगाह के बारे में ज़ायरीन कहते हैं कि जब तक ‘दरगाह’ आपको नहीं बुलाती, आप यहां नहीं आ सकते. शायद मैं ख़ुशनसीब हूं कि मुझे दरगाह कई बार ‘बुला’ चुकी है.
यह सूफ़ी दरगाहें इस इलाके की मिली-जुली संस्कृति का प्रतीक हैं, जहां इस्लाम और स्थानीय तहज़ीब का अनूठा मेल देखने को मिलता है. कहते हैं कि सूफ़ी-संतों और शायरों की अमन और प्यार की शिक्षाओं की वजह से ही पूरे उपमहाद्वीप में इस्लाम फैला. यही वो बात है जिसका ये वहाबी सोच वाले कट्टर इस्लामी विरोध कर रहे हैं.
पिछले कई सालों में इस इलाके में कई ऐसे मदरसे खुले हैं जिन्हें सऊदी अरब या अन्य स्रोतों से फंड मिल रहा है. ऐसा इलाका जहां सदियों से हर मज़हब, समुदाय के लोग शांति से रहते आए हों, जहां सिर्फ़ पारंपरिक मस्जिदें ही बनी रही हों, वहां इन मदरसों की बड़ी-बड़ी इमारतें डरावनी और अनजानी-सी लगती हैं.
पिछले साल अप्रैल में अपनी मां के कंधे से मग़रिब की नमाज़ के बाद हो रहे ‘धमाल’ को देखती उस बच्ची की आंखें मुझे याद आती हैं. अधमुंदी आंखों से वो उन सैकड़ों लोगों को देख रही थी जो नगाड़े की आवाज़ पर उस ‘एक’ के होने में अपना सबकुछ भूलकर नाच रहे थे. हाथ ऊपर किए उस ‘ऊपरवाले’ के सामने ख़ुद को मानो समर्पित कर चुके हों…
शायद बिल्कुल यही दृश्य उस वक़्त भी रहा होगा जब उस रोज़ एक आत्मघाती हमलावर ने वहां विस्फोट किया होगा. कौन जाने वो कबसे दरगाह की भीड़ में छिपा किसी कोने में बैठा था.
दरगाह में काफी संख्या में हिंदू, ईसाई और सिख ज़ायरीन भी आते हैं जो यहां की जालियों, खंभों में मन्नत के धागे बांधते हैं. हालांकि ज़्यादातर ज़ायरीन मुस्लिम आबादी से होते हैं, जो बहुत ग़रीब लोग होते हैं, जो कड़ी मुश्किलों में बसर कर रहे होते हैं. जैसे- किसान और मजदूर.
इन ज़ायरीनों में काफ़ी औरतें भी होती हैं, जिनके लिए यह दरगाह में खुद को अभिव्यक्त करने का एक जरिया है… एक ऐसी जगह जो उन्हें बाकी कहीं नहीं मिलती. एक वो जगह जहां भले ही भीड़ हो पर वो उसमें अपनी रोज़मर्रा की ज़िंदगी के इतर अपने बारे में कुछ सोच सकती हैं. यह दरगाह एक ऐसी जगह है जहां आप जो असल में हैं, वो हो सकते हैं और कोई इसके बारे में कुछ नहीं सोचता, कोई आलोचना नहीं करता.
पर सोशल मीडिया और रुढ़िवादी उग्रवाद इस पारंपरिक खुले माहौल के दुश्मन साबित हो रहे हैं. मोबाइल फोन के कैमरा दरगाह की प्राइवेसी ख़त्म कर रहे हैं. और ये उग्रवादी, जो ऐसी जगहों को धर्म विरोधी मानते हैं, इन्हें 2009 से अपना निशाना बनाए हुए हैं.
3 मार्च, 2009 को लाहौर में श्रीलंका की क्रिकेट टीम पर हुए हमले के बाद मेरे एक हिंदुस्तानी पत्रकार दोस्त ने लिखा था कि पाकिस्तान के पास क्रिकेट ही इकलौता ऐसा रास्ता है जो उसे अपनी सेकुलर छवि बनाने में मदद कर सकता है और शायद उग्रवादी इस्लामियों के लिए पाकिस्तानियों के दिमाग बस में करने की चुनौती भी क्रिकेट ही है.
इस पर मैंने उन्हें जवाब देते हुए ईमेल लिखा कि नहीं, क्रिकेट से बड़ी चुनौती इन उग्रवादियों के सामने सूफ़ी मान्यताओं, धागा या ताबीज़ बांधने जैसी रवायतों का होना और उनका बड़ी संख्या में लोगों को प्रभावित कर पाना है.
मेरा उनको ये लिखना ही था कि इन उग्रवादियों में सूफ़ी इस्लाम के प्रति अपनी नफरत उजागर कर दी. 5 मार्च, 2009 को पेशावर के बाहरी इलाके में 17वीं सदी की बनी सूफ़ी शायर रहमान बाबा की दरगाह पर बमों से हमला किया गया.
रहमान बाबा को शांति और सहिष्णुता के प्रति उनके प्रेम के चलते पश्तून आध्यात्मिकता का आइकॉन माना जाता है. कई पश्तून घरों में तो क़ुरान के साथ लोग रहमान बाबा की कविताओं को रखते हैं. रहमान बाबा अदबी जिरगा के अध्यक्ष युसूफ़ अली दिलसोज़ बताते हैं, ‘स्वात घाटी के एक संत सैयदू बाबा की कही यह बात तो ख़ासी मशहूर है कि अगर पश्तूनों से क़ुरान के अलावा किसी एक और क़िताब की इबादत के लिए कहा जाए तो वे रहमान बाबा की क़िताबों का ही नाम लेंगे.’
इस हमले के तीन दिन पहले दरगाह की देखभाल करने वाले व्यक्ति के पास एक ख़त आया था जिसमें इस सूफ़ी रवायत को लेकर विरोध किया था, साथ ही औरतों के दरगाह आकर इबादत करने पर भी एतराज़ जताया था.
सुबह-सवेरे हुए इस हमले में कोई जान तो नहीं गई थी पर दरगाह का एक हिस्सा क्षतिग्रस्त हो गया था. पाकिस्तान के बाकी हिस्सों में तो इससे बेहद ख़तरनाक हमले हुए हैं. बताया जा रहा है कि सेवण शरीफ़ पर हुए हमले की ज़िम्मेदारी इस्लामिक स्टेट ने ली है. इस्लामिक स्टेट वहाबी विचारधारा पर अमल करने वाला सबसे कट्टर ग्रुप बनकर उभरा है. 1980 के अफ़गान युद्ध के बाद इस वहाबी विचारधारा को संयुक्त राष्ट्र अमेरिका, सऊदी अरब और पाकिस्तान ने कम्युनिस्ट सोवियत के ख़िलाफ़ बढ़ावा देना शुरू किया था.
जेद्दाह और वॉशिंगटन के समर्थन के अलावा इस्लामाबाद के पास मुजाहिदीन को समर्थन देने की राजनीतिक, आर्थिक और विदेश नीति से जुड़ी वजहें भी हैं. और अफ़गान युद्ध के बाद के माहौल में खर-पतवार से उग आए मदरसों में अपनी तालीम बांट रहे तालिबान ने देश की राजनीति में अपनी जगह बनानी शुरू की. वक़्त के साथ इस्लाम को लेकर उनकी तंग सोच उनको सिखाई गई कट्टरता से भी आगे बढ़ गई. हार के बाद ये तालिबानी कई टुकड़ों में बंट गए और पूरे पाकिस्तान में छोटे-छोटे उग्रवादी समूहों के रूप में बढ़ने लगे.
और आज भी अपने घर में पल रहे इस आतंकवाद को पहचानने की बजाय पाकिस्तानी सुरक्षा प्रतिष्ठान अब भी सेवण शरीफ़ जैसे हमलों के लिए बाहरियों को ज़िम्मेदार ठहराते हैं.
वैसे तो इन आतंकी संगठनों में बहुत फर्क़ है पर एक बात है जो इन सब में एक-सी है… जिससे सहमत न हो, उसे ख़त्म कर दो. उनके इस्लाम में करुणा, इंसाफ़ और अमन के लिए कोई जगह ही नहीं है, जिसका ज़िक्र क़ुरान में लगातार किया गया है.
उन्हें इस दरगाह के रिवाज़ से भी परेशानी है क्योंकि उन्हें लगता है कि ये क़ब्रों की इबादत करना है. वो इसका विरोध इसलिए करते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि इससे लोग अल्लाह को छोड़ किसी और की इबादत करने लगेंगे. 2014 में सऊदी सरकार ने हज़रत मुहम्मद साहब के मक़बरे को ख़त्म करने का प्रस्ताव रखा था पर दुनिया भर में हुए विरोध के बाद शायद इसे टाल दिया गया.
वे दक्षिण एशियाई मुसलमानों के सूफ़ी लेखन और कविताओं को इज्ज़त देने को धर्म विरोधी समझते हैं. वे सार्वजानिक जगहों पर औरतों का निकलना पसंद नहीं करते. वैसे पाकिस्तान में औरतों के दरगाह या मज़ारों के अंदरूनी हिस्सों तक जाने पर कोई कोई पाबंदी नहीं है जैसी हिंदुस्तान में है, जिसके लिए सामाजिक कार्यकर्ताओं को लड़ना पड़ा है. हिंदुस्तान में यह पाबंदी कुछ हालिया दशकों में आई रूढ़िवादिता का नतीजा है.
कई इस्लामिक स्कॉलर पर्दे और लैंगिक भेदभाव को किसी रवायत के बजाय मज़हब से जोड़ते हैं पर ऐसा नहीं है. इस्लाम क़ुरान के हिसाब से चलता है और क़ुरान में औरत और मर्द में किसी भी तरह के भेदभाव की बात नहीं कही गई है. यहां तक की हज पर जाने के मामले में भी क़ुरान किसी पर कोई पाबंदी नहीं लगाता.
पाकिस्तान के सिंध प्रांत में बाकी हिस्सों से ज्यादा सूफ़ी परंपराओं का प्रभाव देखने को मिलता है, यही वजह है कि यह इलाका लगातार इन आतंकियों के निशाने पर है.
सूफ़ी मज़ारों पर हो रहे ये हमले राजनीतिक सत्ता पाने की एक बड़ी रणनीति का हिस्सा हैं. इसके तहत हिंदू लड़कियों को अगवा किया जा रहा, ज़बर्दस्ती उनका धर्म परिवर्तन करवाया जा रहा है, ईशनिंदा क़ानून का ग़लत उपयोग हो रहा है, अहमदियों, शियाओं को और उन सभी को जिसे ये उग्रवादी ‘अपने इस्लाम’ के ख़िलाफ़ समझते हैं, उन्हें मारा जा रहा है.
और ऐसे कामों में उन्हें इस्लामाबाद की कुख्यात लाल मस्जिद के मुल्ला अब्दुल अज़ीज़ जैसे कट्टर लोगों का समर्थन भी मिल रहा है. ये मुल्ला अब्दुल अज़ीज़ वही हैं जिन्होंने 16 दिसंबर, 2014 को पेशावर में 140 स्कूली बच्चों के मारे जाने को जायज़ ठहराया था. स्थानीय आतंकी तो 5 मार्च को मुमताज़ क़ादरी की मौत की बरसी भी मनाने की तैयारियों में लगे हैं, जिसे पंजाब के गवर्नर सलमान तासीर के क़त्ल के जुर्म में पिछले साल फांसी दी गई थी.
पाकिस्तान को बचाने की लड़ाई में ये आतंकी इतिहास की ग़लत ओर से लड़ रहे हैं. भिट शाह के शाह अब्दुल लतीफ़ भिट्टाई के ख़ानदानी सैय्यद वक़ार शाह लतीफ़ी कहते हैं, ‘इन आतंकियों के जीतने का कोई रास्ता ही नहीं है.’
पर इस लड़ाई में हमें और कई जानें गंवाने के लिए तैयार रहना होगा. पर मैं उम्मीद करती हूं इन जान गंवाने वालों में वो लाल कपड़े पहने नन्ही बच्ची न हो.
(बीना सरवर वरिष्ठ पाकिस्तानी पत्रकार हैं)