केंद्रीय क़ानून और न्याय मंत्री किरेन रिजिजू ने कहा कि न्यायाधीशों का आधा समय और दिमाग़ यह तय करने में लगा रहता है कि अगला न्यायाधीश कौन होगा. उन्होंने यह भी कहा कि जिस प्रकार मीडिया पर निगरानी के लिए भारतीय प्रेस परिषद है, ठीक उसी प्रकार न्यायपालिका पर निगरानी की एक व्यवस्था होनी चाहिए.
अहमदाबाद: केंद्रीय विधि और न्याय मंत्री किरेन रिजिजू ने कहा कि देश के लोग कॉलेजियम प्रणाली से खुश नहीं हैं और संविधान की भावना के मुताबिक न्यायाधीशों की नियुक्ति करना सरकार का काम है. साथ ही, उन्होंने जजों के कामकाज के तरीके और न्यायपालिका पर और भी सवाल उठाए हैं.
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) का ‘मुखपत्र’ माने जाने वाले ‘पांचजन्य’ की ओर से सोमवार को गुजरात के अहमदाबाद में आयोजित ‘साबरमती संवाद’ में रिजिजू ने कहा कि उन्होंने देखा है कि आधे समय न्यायाधीश नियुक्तियों को तय करने में ‘व्यस्त’ होते हैं, जिसके कारण न्याय देने का उनका प्राथमिक काम ‘प्रभावित’ होता है.
“आज न्याय देने से ज्यादा जज इस पर ज्यादा ध्यान लगाते हैं कि अगला जज किसे बनाना है।”
: पाञ्चजन्य के साबरमती संवाद में केंद्रीय कानून मंत्री किरण रिजिजू@KirenRijiju#SabarmatiSamvad #साबरमती_संवाद pic.twitter.com/SviqNAq9PQ
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मंत्री की यह टिप्पणी पिछले महीने उदयपुर में एक सम्मेलन में उनके बयान के बाद आई है जिसमें उन्होंने कहा था कि उच्चतम न्यायालय में नियुक्ति की कॉलेजियम प्रणाली पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता है.
न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रक्रिया पर एक सवाल के जवाब में रिजिजू ने कहा, ‘1993 तक भारत में प्रत्येक न्यायाधीश को भारत के प्रधान न्यायाधीश के परामर्श से कानून मंत्रालय द्वारा नियुक्त किया जाता था. उस समय हमारे पास बहुत प्रख्यात न्यायाधीश थे.’
उन्होंने कहा, ‘संविधान इसके बारे में स्पष्ट है. संविधान कहता है कि भारत के राष्ट्रपति न्यायाधीशों की नियुक्ति करेंगे, इसका मतलब है कि कानून मंत्रालय भारत के प्रधान न्यायाधीश के परामर्श से न्यायाधीशों की नियुक्ति करेगा.’
कॉलेजियम प्रणाली से जुड़े एक सवाल का जवाब देते हुए उन्होंने कहा कि 1993 तक सारे न्यायाधीशों की नियुक्ति मुख्य न्यायाधीश के साथ विमर्श कर सरकार ही करती थी.
गौरतलब है कि उच्चतम न्यायालय की कॉलेजियम की अध्यक्षता प्रधान न्यायाधीश करते हैं और इसमें अदालत के चार वरिष्ठतम न्यायाधीश शामिल होते हैं.
हालांकि, सरकार कॉलेजियम की सिफारिशों के संबंध में आपत्तियां उठा सकती है या स्पष्टीकरण मांग सकती है, लेकिन अगर पांच सदस्यीय निकाय उन्हें दोहराता है तो नामों को मंजूरी देना प्रक्रिया के तहत बाध्यकारी होता है.
उन्होंने कहा, ‘मैं जानता हूं कि देश के लोग न्यायाधीशों की नियुक्ति की कॉलेजियम प्रणाली से खुश नहीं हैं. अगर हम संविधान की भावना से चलते हैं तो न्यायाधीशों की नियुक्ति सरकार का काम है.’
उन्होंने कहा, ‘संविधान की भावना को देखा जाए तो न्यायाधीशों की नियुक्ति सरकार का ही काम है. दुनिया में कहीं भी न्यायाधीशों की नियुक्ति न्यायाधीश बिरादरी नहीं करती हैं.’
उन्होंने कहा, ‘देश का कानून मंत्री होने के नाते मैंने देखा है कि न्यायाधीशों का आधा समय और दिमाग यह तय करने में लगा रहता है कि अगला न्यायाधीश कौन होगा. मूल रूप से न्यायाधीशों का काम लोगों को न्याय देना है, जो इस व्यवस्था की वजह से बाधित होता है.’
उन्होंने कहा, ‘कॉलेजियम में कंसलटेशन बहुत ज्यादा होता है. लोगों को राजनीति की उथल-पुथल तो दिखती है, लेकिन न्यायपालिका में जो राजनीति होती है वो नहीं दिखती, वहां चयन प्रक्रिया में गुटबाजी तक होती है. किसको अगला जज बनाना है, ये प्रक्रिया पारदर्शी नहीं है.’
न्यायालय की अवमानना और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बीच तालमेल संबंधी और न्यायपालिका की रचनात्मक समीक्षा संबंधी सवाल पर रिजिजू ने कहा, ‘संसद सदस्य हो या जज, वे एक विशेषाधिकार लेकर चलते हैं, संसद में हम जो भी चर्चा करते हैं उसकी अदालत में समीक्षा नहीं की जा सकती, लेकिन संसद के अंदर ही एथिक्स कमेटी होती है. संसद अध्यक्ष या स्पीकर के तहत वहां असंसदीय शब्दों या बातों को वापस लिया जाता है. लेकिन, न्यायपालिका के अंदर अगर जज कुछ फैसला देते हैं या ऐसी कोई बात कहते हैं जो समाज के लिए अनुकूल नहीं हैं तो न्यायपालिका के अंदर कोई तंत्र नहीं है.’
जब हम अभिव्यक्ति की बात करते हैं तो क्या न्यायपालिका Positive Criticism से ऊपर है , इसे आप कैसे देखते हैं ?
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उन्होंने आगे कहा, ‘सरकार में बिल्कुल कठोर नियम होते हैं. कार्यपालिका, सरकारी तंत्र बिल्कुल नियम-कायदों से चलते हैं, प्रधानमंत्री से लेकर नीचे दरबारी तक. लोकतंत्र में यही नियम न्यायपालिका पर भी होना चाहिए. संसद सदस्य जो चाहे गाली दे, ऐसा नहीं कर सकते हैं. न्यायपालिका में कोई आंतरिक तंत्र विकसित किया जाए. हम नहीं चाहते कि हम कानून बनाएं, न्यायपालिका खुद करे.’
रिजिजू ने कहा कि जिस प्रकार मीडिया पर निगरानी के लिए भारतीय प्रेस परिषद है, ठीक उसी प्रकार न्यायपालिका पर निगरानी की एक व्यवस्था होनी चाहिए और इसकी पहल खुद न्यायपालिका ही करे तो देश के लिए अच्छा होगा.
साथ ही, उन्होंने कहा कि अगर एक जज दूसरे जज को नियुक्त करता है तो वह कार्यकारी-प्रशासनिक प्रक्रिया का हिस्सा बन जाता है, तब आप आलोचना से दूर नहीं रह सकते हैं. आप कार्यपालिका का काम करोगे तो समीक्षा जरूर होगी.
उन्होंने कहा कि न्यायाधीशों की चयन प्रक्रिया में कई बार गुटबाजी तक हो जाती है और यह बहुत ही जटिल है, पारदर्शी नहीं है.
उन्होंने कहा, ‘जज अपने जान-पहचान वालों को नियुक्त करते हैं. मेरे पास गोपनीय चीजें होती हैं. 1993 से पहले जज या कोर्ट के ऊपर अंगुली नहीं उठाते थे, क्योंकि तब जज लोग जजों की नियुक्ति में हिस्सेदार नहीं थे, उनकी भूमिका नहीं था. तभी तो जजों की आलोचना नहीं होती थी.’
रिजिजू ने कहा, ‘सोशल मीडिया में कई लोग तो (न्यायपालिका को) गालियां दे रहे हैं. सीजेआई ने मुझे पत्र लिखा कि सोशल मडियाा पर जो न्यायपालिका पर हमले हो रहे हैं, इसे नियंत्रित किया जाए और सरकार की ओर से कठोर कार्रवाई की जाए. लेकिन मैंने अब तक (पत्र का) जवाब नहीं दिया है, और सोच-समझकर ही जवाब नहीं दिया क्योंकि जवाब देंगे तो आगे बढ़ना पड़ेगा और आगे बढ़ेंगे तो देश के लिए क्या होगा… उसका चिंतन मनन करना करना होगा.’
ज्यूडिशियल एक्टिविज्म से जुड़े एक सवाल का जवाब देते हुए उन्होंने कहा कि कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका अगर अपने-अपने दायरे में रहें और अपने काम में ही ध्यान लगाए तो फिर यह समस्या नहीं आएगी.
उन्होंने कहा, ‘मुझे लगता है कि हमारी कार्यपालिका और विधायिका अपने दायरे में बिल्कुल बंधे हुए हैं. अगर वे इधर-उधर भटकते हैं तो न्यायपालिका उन्हें सुधारती है. समस्या यह है कि जब न्यायपालिका भटकती है, उसको सुधारने की व्यवस्था नहीं है.’
केंद्रीय मंत्री ने कहा, ‘कोई भी दल यह नहीं दिखाना चाहता कि हम न्यायपालिका के खिलाफ हैं. हमने आठ साल में मोदी जी के नेतृत्व में कोई ऐसा काम नहीं किया जिससे न्यायपालिका को नुकसान हो और उसके अधिकार को हम चुनौती दें या कम करें. जब हम राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजेएसी) लाए तो उसे चुनौती दी गई और सुप्रीम कोर्ट ने रद्द कर दिया… हम कदम उठा सकते थे.’
हालांकि, कठोर कदम उठाने के संबंध में पूछने पर उन्होंने बात टाल दी.
उन्होंने आगे कहा, ‘कई जजों की टिप्पणी फैसले का हिस्सा नहीं होती हैं. यह टिप्पणी उनकी सोच उजागर करती हैं और समाज में इसका विरोध भी होता है. जब भी मेरी जजों के साथ बातचीत होती है, तो मैं उन्हें खुलकर कहता हूं कि अगर जजों को जो कहना है उसे वह टिप्पणियों की बजाय अपने आदेश में कहें तो ज्यादा अच्छा होगा.’
वे न्यायपालिका को कार्यपालिका के कामकाज में हस्तक्षेप न करने की सलाह भी देते हैं. वे कहते हैं, ‘अगर एक जज कहता है कि कूड़ा यहां से हटाकर वहां डालो, इन लोगों की नियुक्ति दस दिन में पूरी करो, वे पीडब्ल्यूडी इंजीनियर को कोर्ट रूम में बुलाते हैं और कहते हैं कि ये काम करो… यह सारा काम कार्यपालिका का होता है. आपको (न्यायपालिका) नहीं पता होता प्रैक्टिकल कठिनाइयां क्या होती हैं, आर्थिक हालात क्या हैं.’
उन्होंने अपनी बात में एक उदाहरण देते हुए आगे कहा, ‘उत्तर प्रदेश में एक जज ने कहा कि इतने दिनों के भीतर सारे जिला अस्पतालों में कोविड दवाएं, एम्बुलेंस और ऑक्सीजन दे दो… उतना हमारे पास पर्याप्त (संसाधन/धन) होना चाहिए, एक देश की अपना क्षमता होती है.’
उन्होंने न्यायपालिका को संबोधित करते हुए आगे कहा कि जिसको जिस चीज के लिए दायित्व दिया गया है वो उस चीज पर अपना ध्यान रखे, तो ज्यादा अच्छा रहेगा.
उन्होंने आगे न्यायपालिका में हस्तक्षेप को लेकर सरकार पर उठते सवालों के संदर्भ में कहा, ‘इंदिरा गांधी के जमाने में तीन जजों को दरकिनार करके किसी और को मुख्य न्यायाधीश बना दिया. हमने तो ये नहीं किया, लेकिन अगर हम आज कुछ नियंत्रित करने के लिए कोई कदम उठाते हैं तो भी वही लोग जो न्यायपालिका को कब्जा करना चाहते थे, वो कहते हैं कि सरकार न्यापालिका के ऊपर हावी होना चाहती है, जजों की नियुक्ति में रोड़ा डाल रही है, सब अपने नियंत्रण में कर रही है, न्यायपालिका को प्रभावित कर रही है.’
केंद्रीय मंत्री ने कहा कि वह न्यायपालिका को कोई आदेश नहीं दे सकते हैं, लेकिन उसे सतर्क जरूर कर सकते हैं क्योंकि वह भी लोकतंत्र का हिस्सा है और लाइव स्ट्रीमिंग (इंटरनेट के माध्यम से कार्यवाही के सीधे प्रसारण) व सोशल मीडिया के जमाने में वह भी जनता की नजर में है.
उन्होंने एक सवाल के जवाब में न्यायपालिका को पूरी तरह से औपनिवेशिक व्यवस्था करार दिया.
साथ ही, कहा, ‘प्रधानमंत्री जी ने हम लोगों को कहा है कि गुलामी का कोई भी निशान नहीं रहना चाहिए. मैं खुद मानता हूं कि हमारी न्याय व्यवस्था में… आप देखिए कि सुप्रीम कोर्ट में जो अंग्रेजी अच्छा बोलते हैं, वही प्रभावी होते हैं. सुप्रीम कोर्ट में 40-50 वकील ऐसे हैं कि वो इतना एकाधिकार रखते हैं… वो बड़े-बड़े अंग्रेजी लफ्जों का इस्तेमाल करके जजों को भी धमकाते हैं.’
उन्होंने यह भी जोड़ा कि सुप्रीम कोर्ट व हाईकोर्ट में भारतीय भाषाओं को इस्तेमाल करने की आजादी मिलनी चाहिए.
(समाचार एजेंसी भाषा से इनपुट के साथ)