वर्धा के महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में ‘गो-बारस’ के मौक़े पर पूजा के आयोजन में कर्मचारियों को सपरिवार उपस्थित रहने को कहा गया. आए दिन ऐसे आयोजन कई विश्वविद्यालयों के कैलेंडर का हिस्सा बनते जा रहे हैं और ऐसा करते हुए विश्वविद्यालय अपनी अवधारणा, सिद्धांत और कर्तव्य से बहुत दूर हो रहे हैं.
बिहार की मगही भाषा में एक कहावत प्रचलित है कि ‘जिए के न मरे के, हुकुर-हुकुर करे के.’ मतलब यह कि ज़िंदगी जी नहीं जाती और मौत भी नहीं आती. यही हाल अभी भारत के विश्वविद्यालयों का हो गया है. पिछले कुछ वर्षों के भारत का मूल्यांकन किया जाए तो यह पता चलता है कि भारत के विश्वविद्यालय क्रमशः अपनी मृत्यु की ओर बड़ी तेजी से बढ़ते चले जा रहे हैं. अभिधा के अर्थ में मृत्यु नहीं बल्कि अपने विचार और अवधारणा की कसौटी पर!
अभी ताजा उदाहरण, शायद भारत के एकमात्र विश्वविद्यालय जिस के नाम में ही ‘अंतरराष्ट्रीय’, लगा हुआ है, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा (महाराष्ट्र) का है. यहां बाकायदा कुलसचिव के हस्ताक्षर से एक सूचना प्रसारित की गई है जिसमें यह कहा गया कि ‘विश्वविद्यालय के उत्तरी परिसर में संचालित हो रही गोशाला में ‘गो-बारस’ के पावन पर्व पर दिनांक 21 अक्टूबर, 2022 को प्रात:काल 8:30 बजे गाय एवं बछड़े के पूजन का आयोजन किया गया है.’
इतना ही नहीं हिंदी को अंतरराष्ट्रीय फलक पर पहचान और स्वीकृति दिलाने के लिए बनी इस संस्था की हिंदी का नमूना भी हमें इसी सूचना के दूसरे वाक्य में मिल जाता है. लिखा गया है कि ‘आप सभी विद्यार्थियों, अध्यापकों, कर्मचारियों से अनुरोध है कि इस पूजन में सपरिवार अपनी सहभागिता सुनिश्चित करने का कष्ट करें.’ अब सोचा जा सकता है कि एक ही वाक्य में ‘अनुरोध’ भी किया जा रहा है और फिर उसे ‘सुनिश्चित’ करने को भी कहा जा रहा है. अनुरोध में सुनिश्चितता कैसे हो सकती है?
हम अनुरोध जिससे भी करते हैं यह उसकी उदारता, इच्छा और परिस्थिति पर निर्भर है कि वह हमारे अनुरोध को माने या न माने! स्पष्ट है कि विश्वविद्यालय प्रशासन की इच्छा तो यही है कि सभी लोग (विश्वविद्यालय के विद्यार्थी, अध्यापक, कर्मचारी) इस में शामिल हों पर इसे सीधे-सीधे आदेश के रूप में प्रसारित करना कई तरह की तकनीकी बाधाओं को जन्म दे सकता है इसलिए ‘अनुरोध’ शब्द की ढाल रख ली गई है.
ऐसा ही शिक्षा मंत्रालय और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग, नई दिल्ली द्वारा ज़ारी सूचनाओं में भी देखा गया है जिनमें ‘अनुरोध’ का इस्तेमाल होता है पर ‘विश्वविद्यालय’ उसे अनिवार्य मानकर सारे क्रिया-कलाप संपादित करने लगते हैं. दूसरी बात यह भी कि इस आयोजन में सपरिवार आने का क्या तर्क है? विश्वविद्यालय में पढ़ रहे या काम कर रहे लोगों के लिए वह एक पेशेवर जगह है न कि कोई निजी स्थान!
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के प्रतीक-चिह्न (‘लोगो’) में तीन शब्दों का उल्लेख है. पहला शब्द ‘ज्ञान’ है, दूसरा ‘शांति’ और तीसरा ‘मैत्री’ है. महात्मा गांधी के नाम पर बने विश्वविद्यालय की प्राथमिकता में ये तीनों हों तो यह गांधी के जीवन और विचार के अनकूल ही है. इन तीन श्रेष्ठ मानवीय मूल्यों की रोशनी में ऊपर की सूचना पर यदि विचार करें तो यह लगता है कि इस सूचना में कहीं भी ज्ञान के प्रति प्रतिबद्धता दिखलाई नहीं पड़ रही है.
पहली बात तो यही है कि इस में गाय के प्रति आस्था से अधिक भारत की वर्तमान केंद्रीय सरकार और उसके सहयोगी संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा का प्रभाव है. भारतीय जनता पार्टी और संघ लंबे समय से ‘गाय’ की राजनीति करते रहे हैं. उन्हें इस बात से भी घोर आपत्ति रही है कि प्राचीन भारत में लोग गोमांस खाते थे. गोमांस के संदेह मात्र में अख़लाक़ ही नहीं बल्कि अनेक लोग मारे जा चुके हैं.
दूसरी बात यह कि क्या विश्वविद्यालय का काम ‘आस्था’ जगाना है? और यदि आस्था जगाना एक क्षण के लिए मान भी लें तो क्या आस्था सिर्फ़ हिंदुओं की ही है? क्या बकरीद के मौक़े पर इस तरह का कोई भी आयोजन होने की उम्मीद विश्वविद्यालय से की जा सकती है? इसका जवाब हमेशा नहीं ही होगा.
इससे यह स्पष्ट है कि इस तरह के आयोजन करने में विश्वविद्यालय अपनी अवधारणा, अपने सिद्धांत और अपने कर्तव्य से बहुत दूर हो जाते हैं जहां से लौटना लगभग असंभव लगने लगता है. विश्वविद्यालय का काम आस्था की परीक्षा करना है. विश्वविद्यालय बने ही इसलिए हैं कि वे हर चीज़ की परीक्षा कर सकें.
ऊपर की ‘सूचना’ में जिस ‘गो-बारस’ पर्व की बात है उस भी समझने की आवश्यकता है. दरअसल यह व्रत है. ‘व्रत’ में केवल धार्मिक क्रियाएं संलग्न होती हैं लेकिन ‘पर्व’ में धार्मिक क्रियाओं के साथ-साथ उत्सव का भी प्रावधान होता है. हालांकि कुछ व्रत पर्व भी बना दिए गए हैं. जैसे छठ.
‘गो-बारस’ को ही ‘गोवत्सद्वादशी’ भी कहते हैं. इसे दीपावली के तीन दिन पहले मनाने की प्रथा है. इस का उद्देश्य ‘पुत्र’ की मंगलकामना है. इसीलिए इसमें गाय के साथ बछड़े की पूजा का विधान है न कि गाय के साथ बछिया की पूजा-अर्चना की जाती है. स्पष्ट है कि यह ‘व्रत’ मूलतः पितृसत्तात्मक है. हिंदुओं के ज़्यादातर ‘व्रत’ पितृसत्तात्मक ही हैं क्योंकि व्रत का मूल संबंध स्त्री से स्थापित कर दिया गया है. उदाहरण के लिए ‘तीज’, ‘करवा चौथ’, ‘कर्मा’ आदि.
यहां तक कि जिस छठ व्रत को पर्व में बदल कर ‘लोक-आस्था’ से जोड़ दिया गया है वह भी मूलतः पितृसत्तात्मक ढांचे का ही है. छठ का एक प्रचलित गीत बिहार में गाया जाता है जिस में यह कहा जाता है कि ‘हे दीनानाथ! हे छठी मइया! घोड़ा चढ़ने के लिए बेटा मांगती हूं और रुनकी-झुनकी बेटी मांगती हूं.’ इसमें भी देखा जा सकता है कि शक्ति का संबंध पुत्र से माना जाता है तो उसके लिए घोड़ा की कल्पना है और लड़की या बेटी की ‘कोमल-कांत’ कल्पना है इसलिए उसे ‘रुनकी -झुनकी’ कहा जा रहा है.
इस विवेचन से स्पष्ट है कि जिसे वर्धा के महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में आयोजित ‘गो-बारस’ पर्व कहा जा रहा है वह बहुत अधिक भेदभाव पर टिका है. विश्वविद्यालय की परिकल्पना और तमाम अधिनियमों, अध्यादेशों एवं परिनियमों में यह कहा जाता है कि वह किसी भी प्रकार के भेदभाव के विरुद्ध है. ‘गो-बारस’ व्रत या पर्व का आयोजन भेदभावपरक और पितृसत्तात्मक चेतना के निर्माण को बढ़ाने वाला है.
‘गो-बारस’ या ऐसे और पर्व का आयोजन ज्ञान-निर्माण एवं समाज के सकारात्मक परिवर्तन की जिस भावना से विश्वविद्यालयों का निर्माण किया गया था, उसके भी खिलाफ़ है. भारतीय संविधान में जिस वैज्ञानिक प्रवृत्ति तथा चेतना के प्रसार की बात है यह उस नागरिक दायित्व के भी विरुद्ध है.
पिछले कुछ वर्षों से भारत के विश्वविद्यालयों में ऐसे आयोजन बढ़ते जा रहे हैं. किसी नए केंद्रीय विश्वविद्यालय में मंदिर बना दिया जाता है तो कहीं गौशाला! ऐसा क के हम श्रेष्ठता और गुणवत्ता की ओर नहीं बल्कि पतन की ओर बड़ी तेजी से जा रहे हैं जिसके आगे कोई राह नहीं!
(लेखक दक्षिण बिहार केंद्रीय विश्वविद्यालय में हिंदी पढ़ाते हैं.)