भ्रष्टाचार से जुड़े एक मामले पर सुनवाई करते हुए दिल्ली की एक अदालत ने कहा कि आरोपी को ऐसी जानकारी देने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता है और इस संबंध में वह भारतीय संविधान के अनुच्छेद 20 (3) के साथ-साथ आपराधिक दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 161(2) द्वारा संरक्षित है.
नई दिल्ली: दिल्ली की एक अदालत ने हाल ही में एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा कि एक आरोपी को केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) द्वारा अपना पासवर्ड प्रदान करने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता है और उनकी सहमति के बिना यह जानकारी प्राप्त करना आत्म-अपराध के खिलाफ अधिकार का उल्लंघन होगा.
रिपोर्ट के अनुसार, विशेष न्यायाधीश नरेश कुमार लाका ने भ्रष्टाचार से जुड़े एक मामले में आरोपी की हिरासत से जब्त किए गए कंप्यूटर का पासवर्ड और यूजर आईडी मांगने वाली सीबीआई की अर्जी खारिज करते हुए यह टिप्पणी की.
29 अक्टूबर 2022 को सुनाए गए आदेश में जज ने कहा, ‘…आरोपी को ऐसी जानकारी देने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता है और इस संबंध में वह भारतीय संविधान के अनुच्छेद 20 (3) के साथ-साथ (आपराधिक प्रक्रिया संहिता की) धारा 161 (2) द्वारा संरक्षित है.’
संविधान के अनुच्छेद 20(3) में प्रावधान है कि ‘किसी भी अपराध के आरोपी व्यक्ति को खुद के खिलाफ गवाह बनने के लिए मजबूर नहीं किया जाएगा’, जबकि सीआरपीसी की धारा 161(2) में कहा गया है कि कोई भी व्यक्ति ऐसे सवालों का जवाब नहीं देगा, ‘जिनका स्वभाव उसे आपराधिक आरोप या दंड या जब्ती के लिए बेनकाब करने का होगा.’
अदालत ने स्पष्ट किया कि जांच अधिकारी को किसी विशेषज्ञ एजेंसी या व्यक्ति की मदद से कंप्यूटर सिस्टम और उसके सॉफ्टवेयर के डेटा तक पहुंचने का अधिकार है, यहां तक कि आरोपी के डेटा खोने के जोखिम की स्थिति में भी.
महत्वपूर्ण रूप से अदालत ने पासवर्ड और बायोमीट्रिक जानकारी जैसे उंगलियों के निशान, चेहरे या आंखों की पहचान के बीच एक रेखा खींची. न्यायाधीश ने कहा, ‘… हाल ही में लागू आपराधिक प्रक्रिया (पहचान) अधिनियम, 2022 के मद्देनजर … इस अदालत का विचार है कि आरोपी के पासवर्ड और बायोमीट्रिक्स के लिए एक अलग दृष्टिकोण अपनाने की जरूरत है.’
यह मामला सितंबर 2020 में सीबीआई द्वारा की गई उन गिरफ्तारियों से संबंधित है, जब केंद्रीय अप्रत्यक्ष कर बोर्ड (सीबीआईटी) के एक पूर्व डिप्टी कमिश्नर और दो अन्य पर रिश्वत लेने का आरोप लगा था. उन्होंने अधिकारियों द्वारा रोकी गई आयातित खिलौनों की एक खेप को मंजूरी दिलाने के लिए कथित तौर पर सरकारी कर्मचारियों को प्रलोभन देने की साजिश रची थी.
सीबीआई के अभियोजक ने कहा कि आरोपी को इस शर्त पर जमानत पर रिहा किया गया है कि वह जांच में सहयोग करेगा और मांगी गई जानकारी से निष्पक्ष जांच हो सकेगी.
48 पन्नों के आदेश में, सीबीआई अदालत ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने यह पहचानने के लिए परीक्षण निर्धारित किया है कि क्या कोई विशेष तथ्य, सूचना, गवाही या साक्ष्य ‘बयान संबंधी तथ्य’ या ‘भौतिक सामग्री या साक्ष्य’ की श्रेणी में आता है.
पहली श्रेणी को संविधान के अनुच्छेद 20(3) द्वारा संरक्षित किया गया है और इसलिए आरोपी यह जानकारी देने के लिए बाध्य नहीं है, लेकिन दूसरी श्रेणी संरक्षित नहीं है और एक आरोपी व्यक्ति को मजबूर करके हासिल की जा सकती है.
लाइव लॉ द्वारा उपलब्ध कराई गई आदेश की प्रति में कहा गया है, ‘वर्तमान आवेदन में, सीबीआई /जांच अधिकारी आरोपी से उसके कंप्यूटर का पासवर्ड मांग रहे हैं, ताकि उसके डेटा का पहुंच बनाई जा सके, यह तुलना या पहचान करने के उद्देश्य के लिए नहीं है. इसलिए जांच अधिकारी का उक्त अनुरोध पहली श्रेणी में आता है.
सुप्रीम कोर्ट का हवाला देते हुए आदेश में कहा गया है कि क्योंकि लाई डिटेक्शन टेस्ट के नार्कोएनालिसिस में आरोपी की व्यक्तिगत जानकारी शामिल होती है और इन प्रक्रियाओं को आरोपी की सहमति के बिना नहीं किया जा सकता है, पासवर्ड पर भी यही तर्क लागू होता है.
इसके अतिरिक्त, अदालत ने कहा कि एक आरोपी को ऐसा सिक्योरिटी पैटर्न बनाने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता है, जो एक फोन या किसी अन्य इलेक्ट्रॉनिक उपकरण को अनलॉक करता है क्योंकि इसके लिए दिमाग और व्यक्तिगत ज्ञान इस्तेमाल करने की जरूरत होती है और यह पासवर्ड के समान होता है.
अदालत ने यह भी कहा कि भारत में, अवैध तरीकों से या कानून की प्रक्रिया का उल्लंघन करके प्राप्त साक्ष्य अभी भी कुछ परिस्थितियों में उपयोग किए जा सकते हैं. इसलिए, एक जोखिम है कि यदि किसी आरोपी को अपना पासवर्ड देने के लिए मजबूर किया जाता है और एक्सेस किए गए डेटा से कुछ ऐसा पता चलता है, जो ‘आरोपी के खिलाफ जा सकता है’ तो इससे आत्म-अपराध के खिलाफ अधिकार खतरे में पड़ सकता है.