अल्लामा इक़बाल: आप ही गोया मुसाफ़िर आप ही मंज़िल हूं मैं…

जन्मदिन विशेष: अपनी शायरी में इक़बाल की सबसे बड़ी ताकत यह है कि वे बेलौस होकर पढ़ने या सुनने वालों के सामने आते हैं. बिना परदेदारी के और अपनी सीमाओं को स्वीकार करते हुए...

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अल्लामा इक़बाल. (फोटो: साभार: विकीमीडिया कॉमन्स)

जन्मदिन विशेष: अपनी शायरी में इक़बाल की सबसे बड़ी ताकत यह है कि वे बेलौस होकर पढ़ने या सुनने वालों के सामने आते हैं. बिना परदेदारी के और अपनी सीमाओं को स्वीकार करते हुए…

अल्लामा इक़बाल. (फोटो: साभार: विकीमीडिया कॉमन्स)

वर्ष 1904 में ‘सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा’ जैसा अमर तराना लिखकर 1905 में उसे सबसे पहले लाहौर के एक कॉलेज में सुनाने वाले मुहम्मद इकबाल (जो बाद में अल्लामा इकबाल के नाम से भारतीय उपमहाद्वीप के प्रतिष्ठित शायरों में शुमार किए गए और जिनकी आज जयंती है), महज 25 साल बाद धर्म के आधार पर देश के विभाजन की मांग उठाकर अपने व्यक्तित्व के अंतर्विरोधों को बेपरदा न करने लगते तो कौन कह सकता है कि आज की तारीख में वे उसके एक टुकड़े (पाकिस्तान) के ही राष्ट्रकवि होकर रह गए होते!

बहुत संभव है कि तब वे नोबेल पुरस्कार विजेता गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर से भी ज्यादा सौभाग्यशाली सिद्ध होते, जिन्हें भारत व बांग्लादेश दोनों के राष्ट्रगानों का रचयिता होने का श्रेय हासिल है.

लेकिन क्या कीजिएगा, अब इस विडंबना से पीछा छुड़ाना कतई मुमकिन नहीं कि इकबाल द्वारा शायर व राजनेता के तौर पर की गई लंबी यात्रा में अनेक ऐसे मुकाम हैं, जो हमें ‘जो यूं होता तो यूं होता’ की कसक तक ले जाते हैं. इस सवाल तक भी कि उनकी जो शख्सियत एक समय ‘वतन की फिक्र कर नादां मुसीबत आने वाली है, तेरी बरबादियों के मशवरे हैं आसमानों में. न संभलोगे तो मिट जाओगे ऐ हिंदोस्तां वालो! तुम्हारी दास्तां तक भी न होगी दास्तानों में लिखकर हमें भविष्य के अंदेशों व अंधेरों से आगाह कर रही थी, वह अंततः हमें इस कसक के हवाले क्यों कर गई?

एक समय तो वह बता रही थी कि ‘गुलामी में न काम आती हैं शमशीरें न तदबीरें, जो हो जौके यकीं पैदा तो कट जाती हैं जंजीरें.’ इतना ही नहीं, बेलौस होकर देख रही थी कि ‘है राम के वजूद पै हिंदोस्तां को नाज, अहले नजर समझते हैं उनको इमामः-ए-हिंद’. यह भी दौरे जमां की सदियों की दुश्मनी के बावजूद और ‘कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी. फिर क्योंकर वही आगे चलकर खुद विभाजन जैसी विभीषिका की अगवानी करने लगी? क्यों मुस्लिम लीग ने 29 दिसंबर, 1930 को उसी के नेतृत्व में इस महादेश में हिंदुओं व मुसलमानों के दो राष्ट्र होने की बात उठाई, जिसे बाद में मोहम्मद अली जिन्ना ने हर कीमत पर अंजाम तक पहुंचाकर दम लिया?

क्यों इस सिलसिले में उनकी शायरी के कई प्रेमियों द्वारा किया जाने वाला उनका यह बचाव भी नाकाफी व गैरवाजिब लगता हैं कि मुस्लिम लीग के मंच से अपने उस दिन के भाषण में उन्होंने उत्तर-पश्चिम भारत के मुस्लिमबहुल प्रांतों को अलग देश नहीं अलग राज्य बनाने की मांग की थी, जिसमें मुस्लिम आबादी अधिकारपूर्वक रह सके. अलबत्ता, उनके समर्थकों द्वारा यह भी कहा ही जाता है कि धर्मराज्य के प्रति उनका मोह के पीछे दूसरे पक्ष के रवैये की भी भूमिका थी.

हां, इस सबके बावजूद वे इस अर्थ में बदकिस्मत नहीं ही हैं कि भारत समेत समूचे एशियायी उपमहाद्वीप ने उन पर बहुत कुछ न्यौछावर किया हुआ है- उन्हीं की इस काव्य पंक्ति को सार्थक सिद्ध करते हुए कि ‘सितारों के आगे जहां और भी हैं’. इसीलिए उनका ‘तराना-ए-हिंद: सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा’ हमारी आजादी के पचहत्तर साल बाद भी सबसे लोकप्रिय राष्ट्रीय गीत बना हुआ है और देश के राष्ट्रीय जीवन में उत्सव व उल्लास का शायद ही कोई मौका हो, जब उसे न गाया या बजाया जाता हो. मशहूर सितारवादक पंडित रविशंकर उसे सुरों में पिरो गए हैं तो स्वरसाम्राज्ञी लता मंगेशकर अपनी आवाज से सजा गई हैं. याद रखना चाहिए, ये दोनों ही शख्सियतें ‘भारत रत्न’ से विभूषित हैं.

भारत में तराना-ए-हिंद का यह सम्मान तब है, जब 15 अगस्त, 1947 को रात 12 बजे उसके संसद भवन में इसे गाया जा रहा था तो एक लेखक के शब्द उधार लेकर कहें तो उसमें भारत को अपना गुलिस्तां और खुद को उसकी बुलबुल बता गए अल्लामा इकबाल इस गुलिस्तां से तो क्या दुनिया से भी बहुत दूर जा चुके थे.

वे न उसके आजादी के सपने को साकार होते देख पाए थे और न खुद को अभीष्ट अलग मुस्लिम राष्ट्र को साकार होते. क्योंकि इस सबसे नौ साल पहले 1938 में ही 21 अप्रैल को गले के भीषण संक्रमण से उनका इंतकाल हो गया था.

यहां यह दिलचस्प तथ्य भी काबिल-ए-गौर है कि इकबाल ने उन्हें सबसे ज्यादा प्रसिद्धि दिलाने वाले इस तराने को बच्चों के लिए रचा था, न कि बड़ों के लिए. बच्चों के समझने के लिए ही उन्होंने उसकी भाषा अपेक्षाकृत आसान रखी थी.

अंग्रेजों की ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति के शिकार होने और अंधकांग्रेसविरोध के फेर में फंसकर मुस्लिम लीग की गोद में जा गिरने से पहले तक अन्य बहुत से शायरों की तरह वे भी यही मानते थे कि शायर को किसी मजहब व सरहद तक सीमित नहीं होना चाहिए. हां, उन्होंने गोरे शासकों द्वारा भारतीयों की इच्छा के विपरीत भारतीय सैनिकों को प्रथम विश्वयुद्ध में की आंधी में झोंक देने का विरोध भी किया था. भले ही 1922 में उनके द्वारा दी गई नाइट की उपाधि खुशी-खुशी स्वीकार कर ली थी.

बात को और आगे ले जाएं तो आम भारतवासी आज भी विभिन्न अवसरों पर जिंदगी के नाना फलसफों से लबरेज उनके शे’रों को बेगानगी के किसी भी भाव से सर्वथा परे होकर जिस बेझिझक अपनत्व के साथ उद्धृत करते हैं, वह दूसरे नामचीन शायरों की ईर्ष्या का कारण हो सकता है. ऐसा करते हुए भारतीयों को कतई याद नहीं आता कि इकबाल जिन्ना या पाकिस्तान के पैरोकार थे.

मिसाल के तौर पर: खुदी को कर बुलंद इतना कि हर तकदीर से पहले, खुदा बंदे से ये पूछे बता तेरी रजा क्या है? … जिस खेत से दहकां को मयस्सर न हो रोटी, उस खेत के हर ख़ोशा-ए-गंदुम को जला दो….और…जम्हूरियत इक तरर्जे हुकूमत है कि जिसमें, बंदों को गिना जाता है तौला नहीं जाता….वगैरह-वगैरह.

जानकारों के अनुसार इकबाल की शायरी के इस कदर फलसफों से लबरेज होने का एक बड़ा कारण छुटपन से ही दर्शनशास्त्र में उनकी गहरी दिलचस्पी है. उनके नाम के साथ अल्लामा शब्द भी उनकी इस दिलचस्पी के कारण ही जुड़ा.

शुरुआती अनौपचारिक शिक्षा के बाद उन्होने लाहौर के सरकारी कॉलेज में दाखिला ले लिया, तो दर्शनशास्त्र उनका सबसे प्रिय विषय था. वहीं प्रोफेसर सर थॉमस अर्नोल्ड से प्रभावित होकर वे आगे की पढ़ाई के लिए इंग्लैंड गए, जहां 1906 में कैम्ब्रिज के ट्रिनिटी कॉलेज से बीए किया. फिर जर्मनी जाकर म्यूनिख के एक विश्वविद्यालय से पीएचडी. की उपाधि प्राप्त की.

1908 में स्वदेश लौटे तो कुछ दिनों बाद ही लाहौर के ही एक कॉलेज में पढ़ाने लगे. कुछ दिनों तक उन्होंने लाहौर के हाईकोर्ट में वकालत भी की लेकिन जल्दी ही उनका मन दूसरी सब चीजों से ऊब गया और वे पूरी तरह से शायरी में डूब गए. अपनी शायरी में उनकी सबसे बड़ी ताकत यह है कि वे सर्वथा बेलौस होकर पढ़ने या सुनने वालों के सामने आते हैं.

बिना परदेदारी के और अपनी सीमाओं को स्वीकार करते हुए: ढूंढ़़ता फिरता हूं मैं इकबाल अपने आपको, आप ही गोया मुसाफिर आप ही मंजिल हूं मैं….तिरे आजाद बंदों की न ये दुनिया न वो दुनिया, यहां मरने की पाबंदी वहां जीने की पाबंदी! … इकबाल कोई महरम अपना नहीं जहां में, मालूम क्या किसी को दर्द-ए-निहां हमारा.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)