संविधान की मूल संरचना का आधार समानता है. आज तक जितने संवैधानिक संशोधन किए गए हैं, वे समाज में किसी न किसी कारण से व्याप्त असमानता और विभेद को दूर करने वाले हैं. पहली बार ऐसा संशोधन लाया गया है जो पहले से असमानता के शिकार लोगों को किसी राजकीय योजना से बाहर रखता है.
सर्वोच्च न्यायालय ने आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के लिए नौकरियों और विभिन्न स्थानों में दाख़िले में 10% आरक्षण के संवैधानिक संशोधन पर मुहर लगा दी है. 5 सदस्यों की पीठ हालांकि इस पर एकमत नहीं है. मुख्य न्यायाधीश उदय उमेश ललित ने जस्टिस श्रीपति रवींद्र भट साथ इस प्रावधान को ग़लत माना है और रद्द किया है.
चूंकि पीठ के अन्य 3 सदस्यों ने (जस्टिस दिनेश माहेश्वरी, बेला त्रिवेदी और जेबी पारदीवाला ) इसे संविधान सम्मत माना है, फ़ैसला 2 के मुक़ाबले 3 के मत से 10% आरक्षण के पक्ष में रहा. लेकिन अब इससे यह संभावना भी पैदा हुई है कि इस बंटे हुए फ़ैसले के बाद एक बड़ी संविधान पीठ इसपर पुनर्विचार करे. कई सामाजिक कार्यकर्ताओं ने कहा है कि वे इसके लिए अर्ज़ी लगाएंगे. जब यह होगा तब देखना दिलचस्प होगा कि एकमत किस जगह बनता है.
यह फ़ैसला कितना महत्त्वपूर्ण है, ख़ासकर समाज के अभिजन के लिए, यह एक अख़बार की पूरे पन्ने को घेरती पहली सुर्ख़ी से मालूम हो जाता है: ‘सामान्य ग़रीबों के लिए आरक्षण पर सबसे ऊंची अदालत की मुहर’. दूसरे अख़बार ने लिखा, ‘ग़रीबों के लिए आरक्षण’.
यह तो हर कोई जानता है कि यह आरक्षण सामान्य ग़रीबों के लिए, या हर गरीब के लिए नहीं है. यह ख़ास समुदायों के ग़रीबों के लिए है. वे जो ख़ुद को उच्च जाति का या ‘फॉरवर्ड’ मानते हैं, ऐसे ग़रीबों के लिए. ग़रीबों की इस सामान्य श्रेणी में जिन विशेष लोगों को जगह नहीं मिलेगी, वे अनुसूचित जाति और जनजाति के साथ पिछड़े तबकों के लोग हैं.
इसका अर्थ यही है कि सामान्य श्रेणी का मतलब ‘सामान्य’ बुद्धि के लिए उच्च जाति है. उच्च जातियों के अलावा जो कुछ भी है, वह वह विशेष है. इसीलिए आरक्षण विशेषाधिकार मान लिया जाता है और उच्च जातियों के लोग आरक्षण न मिलने के कारण ख़ुद को वंचित मानते हैं.
सर्वोच्च न्यायालय ने इस फ़ैसले के ज़रिये बराबरी के सिद्धांत पर वार किया है और भेदभाव को संवैधानिक मान्यता दी है. ऐसा भेदभाव जो समाज में असमानता को बढ़ाएगा और कटुता और दूरियां बढ़ाएगा. इसे समझना कठिन नहीं है.
सरकार को अगर यह लगता है कि आर्थिक विपन्नता के कारण लोगों को स्कूल, कॉलेज आदि में दाख़िले और नौकरी मिलने में मुश्किल पेश आ रही है तो वह ऐसे लोगों के लिए विशेष आर्थिक प्रावधान कर सकती है. लेकिन इस सरकार ने 10% आरक्षण का प्रावधान समाधान के रूप में लागू किया.
आर्थिक विपन्नता किसी एक सामाजिक समुदाय में ही नहीं है. ऐसा नहीं कि ग़रीबी सिर्फ़ उच्च जातियों में है. जैसा जस्टिस भट्ट ने लिखा कि यदि ग़रीबी रेखा को आधार मानें तो अनुसूचित जाति के 38%, अनुसूचित जनजाति के 48%, अन्य पिछड़े वर्गों के 33.1% लोग ग़रीबी रेखा के नीचे जबकि उच्च जातियों के मात्र 18.2% लोग इस हिसाब से गरीब हैं. इसका मतलब यह है कि उच्च जातियों की अपेक्षा पिछड़े तबकों और दलितों तथा आदिवासियों में आर्थिक विपन्नता कई गुना अधिक है. फिर यह किस तरह उचित या न्यायसंगत है कि अपेक्षाकृत अधिक गरीब लोगों को उस प्रावधान से बाहर कर दिया जाए जो सिर्फ़ ग़रीबों के लिए किया जा रहा हो! यह अनुसूचित जाति और जनजातियों और पिछड़े वर्गों के ग़रीबों के ख़िलाफ़ स्पष्ट भेदभाव है.
इसी कारण जस्टिस भट और मुख्य न्यायाधीश ललित ने सिर्फ़ उच्च जातियों के लिए 10% आरक्षण को भेदभावपूर्ण ठहराया और कहा कि यह संविधान की मूल संरचना को चोट पहुंचाता है. मूल संरचना का आधार समानता है. आज तक जितने संवैधानिक संशोधन किए गए हैं, वे समाज में किसी न किसी कारण से व्याप्त असमानता और विभेद को दूर करने वाले हैं. पहली बार ऐसा संशोधन लाया गया है जो पहले से असमानता के शिकार लोगों को किसी राजकीय योजना से बाहर रखता है.
कई लोग इस बात को नहीं समझ पा रहे हैं. लेकिन क्या इसे समझना इतना कठिन है? एक गरीब ब्राह्मण या राजपूत अगर दाख़िले या नौकरी के लिए किसी इंटरव्यू में जाए तो क्या गरीब पृष्ठभूमि के कारण उसे कोई कठिनाई झेलनी होगी? जिस पूर्वाग्रहपूर्ण विद्वेष का सामना पीढ़ियों से अनुसूचित जाति और जनजातियों के लोग करते आ रहे हैं, वह कभी भी तथाकथित उच्च जातियों के लोगों का अनुभव नहीं रहा है.
यह विद्वेषपूर्ण पूर्वाग्रह सामाजिक है. आरक्षण इस पूर्वाग्रह से पार पाने का एक उपाय है. यानी इस सामाजिक पूर्वाग्रह के बावजूद, न चाहते हुए भी इन समुदायों के एक ख़ास प्रतिशत का प्रवेश शिक्षा और नौकरियों में आरक्षण के रास्ते होगा ही.
उच्च जाति के गरीब लोगों को अगर आर्थिक सहायता दे दी जाए तो वे इच्छित शिक्षा हासिल करके जहां चाहें, प्रवेश कर सकते हैं. उचित आर्थिक संसाधनों से अपेक्षित योग्यताएं हासिल सकते हैं, जितनी उनकी प्रतिभा है. उनके रास्ते कोई सामाजिक पूर्वाग्रह नहीं आड़े आने वाला है. बल्कि उनकी ग़रीबी उनके लिए सहानुभूति ही पैदा करेगी. उच्च जाति के गरीब बच्चों को कोई अध्यापक नहीं कहता कि तुम पढ़कर क्या करोगे. कोई उसे दरवाज़े के बाहर नहीं बिठाता. तो आर्थिक कठिनाई का उपाय आर्थिक ही किया जाना चाहिए.
यह बात बार-बार समझाई जा चुकी है कि आरक्षण आर्थिक स्थिति में सुधार लाने का उपाय नहीं है. सदियों से जो सामाजिक भूमि असमतल बना दी गई है, उसमें नीचे के स्तरों पर धकेल दिए गए लोगों को उच्च जातियों के बराबर मौक़ा देने का वह एक तरीक़ा है. अपनी सामाजिक अवस्था के कारण जो अब तक सार्वजनिक स्थलों से बहिष्कृत कर दिए जाते रहे थे, सार्वजनिकता में अर्थपूर्ण तरीक़े से भागीदारी का अवसर उनके लिए जगहें आरक्षित करके पैदा किया जाता रहा है. इस प्रकार आरक्षण शामिल करने का, समान बनाने का एक उपाय है. एक लेकिन एकमात्र नहीं, यह तो डॉक्टर आंबेडकर ने साफ़ कहा था.
इससे ठीक उलट, 10% आरक्षण के प्रावधान में साफ़ तौर पर इन समुदायों को बाहर कर दिया गया है. तर्क यह है कि वे अन्यत्र तो आरक्षण ले रहे हैं. लेकिन यह उनके साथ किए गए लंबे अन्याय के बाद एक दूसरा अन्याय है. यह बात भी हम भूल रहे हैं कि यह उनके स्वतंत्र चयन के अधिकार को सीमित कर देता है. वे अपनी सामाजिक, या जातीय स्थिति के कारण इस रास्ते पर कदम ही नहीं रख सकते, ऐसा यह क़ानून कहता है.
इसके पक्ष में कहा जा सकता है कि जाति आधारित आरक्षण में भी तो भेदभाव है. ख़ास संख्या या प्रतिशत स्थान कुछ सामाजिक समुदाय के लिए आरक्षित करने का अर्थ है शेष को उससे बाहर रखना. क्या यह समानता के सिद्धांत का उल्लंघन नहीं? एक प्रकार से यह है और इसी वजह से, जैसा इस विषय के अध्येता कहते रहे हैं, आरक्षण के लिए आधार बहुत मज़बूत होना चाहिए. यानी यह तय होना चाहिए कि क्या आरक्षण के बिना समानता हासिल करने का कोई उपाय नहीं? आरक्षण विकल्पहीनता का नतीजा है.
क्या अनुसूचित जाति या जनजाति के लोगों को आर्थिक रूप से सक्षम होने के बाद कोई भेदभाव नहीं झेलना पड़ता? यह प्रश्न ईमानदारी से करना होगा. क्या आरक्षण न रखने पर इन सामाजिक समुदाय के लोगों के चयन में कोई भेदभाव नहीं होगा? क्या आरक्षण न हो तो शिक्षा संस्थाओं और अन्य स्थलों में इन समुदायों की उपस्थिति देखी जा सकेगी?
आरक्षण एक तरह की ज़बरदस्ती है. समाजशास्त्री सतीश देशपांडे ने कहा, ‘यह ज़बरदस्ती उन समुदायों के साथ की जा रही है जिन्होंने सदियों तक ज़बरदस्ती सारी जगहों पर क़ब्ज़ा कर रखा है और उसे वे अपना कुदरती हक़ मानते रहे हैं. उन सारी जगहों से एक हिस्सा निकालकर दूसरों के यानी उनके लिए जिन्हें कहीं घुसने नहीं दिया गया था, आरक्षित करने के पक्ष में सदियों की नाइंसाफ़ी की गवाहियां मौजूद हैं. ये समुदाय, जो ख़ुद को सामान्य कहते हैं, मानते रहे हैं कि यह उनकी प्रतिभा के कारण है. अब वे कह रहे हैं कि इस प्रतिभा को भी राजकीय संरक्षण चाहिए. इस संरक्षण का आधार आर्थिक होने कारण इसे भेदभावपूर्ण नहीं बताना चाहिए. भले इससे समाज बहुलांश को बाहर कर दिया जाए.’
यह तर्क आरक्षण के सैद्धांतिक आधार पर ही कुठाराघात है. लेकिन जैसा हम जानते हैं, मात्र कुछ दशकों के आरक्षण के कारण यह ‘सामान्य’ समुदाय ख़ुद को वंचित मानने लगा है और प्रतिशोध की भावना से भरा हुआ है. इसलिए इस 10% आरक्षण पर इस तरह मुदित है जैसे हाथ से गई ज़मीन का एक टुकड़ा तो वह वापस ले आया है. इस विजय भाव से उसे कौन मुक्त कर सकता है?
यह वर्ग अरसे से कहता रहा है, और तीनों जस्टिसों ने उस बात को दोहराया है कि आरक्षण अनंत काल तक नहीं चल सकता. फिर सतीश देशपांडे का ही जवाब उन्हें सुनाना होगा कि ज़्यादा नहीं, सिर्फ़ एक महीना ऐसा निकालकर दिखा दीजिए जिसमें कहीं जाति आधारित उत्पीड़न या भेदभाव न हो रहा हो, फिर आरक्षण का भी अवधि-निर्धारण कर लीजिए.
क्या जातीय भेदभाव सिर्फ़ क़ानून व्यवस्था के बिगड़ने का मामला है? या वह हमारा सांस्कृतिक और सामाजिक स्वभाव है? अगर उच्च जातियां जाति पर आधारित सामाजिक आचार व्यवस्था समाप्त करने को इच्छुक नहीं तो फिर शेष जातियां क्या करें?
जाति आधारित आरक्षण के ख़िलाफ़ अभिजन का बहुमत मुखर रहा है. क्या यह आश्चर्य की बात है कि वह इस 10% आरक्षण के ख़िलाफ़ बिल्कुल नहीं बोल रहा हालांकि यह पूरी तरह से जाति आधारित है? क्या इससे यह बात साफ़ नहीं हो जाती कि उसे जाति आधारित विशेष व्यवस्था से दिक़्क़त नहीं? शर्त सिर्फ़ यह है कि वह उसके लिए होनी चाहिए.
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)