बीते दिनों रामजस कॉलेज में हुई हिंसा यह साफ़ दिखाती है कि अगर इस तरह की राजनीति से प्रेरित ग़ुंडागर्दी को नहीं रोका गया तो इसके परिणाम घातक हो सकते हैं.
किसी बहस या राजनीतिक असहमति का जवाब हिंसा से देना अपराध है, चाहे यह किसी भी जगह हो पर अगर ऐसा किसी यूनिवर्सिटी कैंपस में विद्यार्थियों और शिक्षकों के साथ हो रहा है, तो इस अपराध की गंभीरता और बढ़ जाती है.
दिल्ली यूनिवर्सिटी के रामजस कॉलेज में पिछले हफ़्ते अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) द्वारा बेशर्मी से की गई ग़ुंडागर्दी यूनिवर्सिटी के पीछे छुपे पूरे विचार पर एक हमला है. यह तर्क, समझदारी पर हमला है, संविधान में मिले अधिकारों पर हमला है और दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के मूल्यों पर हमला है.
यह तो सब जानते हैं कि बिना लोकतंत्र के हिंदुस्तान का अस्तित्व ही संकट में आ जाएगा, पर एबीवीपी को जाने क्यों ऐसा लगता है कि इस तरह लोकतांत्रिकता पर किए गए हमलों से देश-सेवा हो रही है.
इस संस्था का कहना है कि वो एक सेमिनार में बुलाए गए दो वक्ताओं का विरोध कर रहे थे पर इसके लिए जो तरीका उन्होंने अपनाया वो दिखाता है कि उनका असल मक़सद विद्यार्थियों और शिक्षण संस्थानों पर अपने हिसाब से चलने का दबाव बनाना और उन्हें सरकारी नीतियों की आलोचना या उन पर बहस तक करने से रोकना था.
उमर ख़ालिद और शेहला राशिद दोनों ही पिछले साल की शुरुआत में कन्हैया कुमार के नेतृत्व में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में बहस और असहमति की परंपरा को ख़त्म करने के प्रयासों के ख़िलाफ़ हुए अभियान से जुड़े हुए थे.
उसी समय केंद्र की मोदी सरकार ने जेएनयू में आग भड़काई, जिससे दिल्ली पुलिस ने छात्र नेताओं और सामाजिक कार्यकर्ताओं के ख़िलाफ़ कई आरोप गढ़ लिए. हालांकि पुलिस द्वारा दर्ज इन मामलों में कुछ ख़ास बात सामने नहीं आई, यह जल्द ही उतनी ही तेज़ी से ग़ायब भी हो गए पर भाजपा और एबीवीपी ने इससे राष्ट्रवाद का एक हिस्टीरिया-सा शुरू कर दिया.
ऐसा हिस्टीरिया जिससे छात्रों और विश्वविद्यालयों को मिलने वाली अलग-अलग विचारों पर बहस और वाद-विवाद की स्वतंत्रता ही ख़तरे में आ गई. यही उनका उद्देश्य था. विश्वविद्यालय आपको खुलकर अपनी बात रखने, किसी बात या विचार पर असहमति व्यक्त करने की आज़ादी देते हैं, और शायद यही वजह है कि जिन राजनीतिक दलों और नेताओं को यह बात पसंद नहीं है वे सबसे पहले यूनिवर्सिटी कैंपसों को ही अपना निशाना बनाते हैं.
भाजपा और संघ परिवार भी इससे अछूते नहीं हैं. 2014 में सत्ता में आने के बाद से ही वे कई यूनिवर्सिटी कैंपसों की आज़ादी की सीमा तय कर चुके हैं! हैदराबाद यूनिवर्सिटी में रोहित वेमुला की आत्महत्या, जेएनयू पर हुआ हमला, इलाहाबाद, रांची, लखनऊ, महेंद्रगढ़ और जोधपुर विश्वविद्यालयों जैसे कई कैंपसों में एबीवीपी से जुड़ी हुई घटनाएं दिखाती हैं कि किस तरह इन विश्वविद्यालयों के रूप में, अपने विचार रखने की एक स्वतंत्र लोकतांत्रिक जगह खोती जा रही है.
और यह बात किसी से छुपी नहीं है कि एबीवीपी को केंद्र का वरदहस्त प्राप्त है, पार्टी से भी और सरकार के रूप में भी. वो ‘मोरल’ पुलिस की भूमिका में हैं भले ही इसके लिए क़ानून ही हाथ में क्यों न लेना पड़े.
रामजस कॉलेज में हुई यह हिंसा साफ़ दिखाती है कि अगर इस तरह राजनीति से प्रेरित ग़ुंडागर्दी को नहीं रोका गया तो परिणाम देश के लिए घातक हो सकते हैं. सबसे पहले तो एबीवीपी ने हिंसा के सहारे एक साहित्यिक समारोह में बाधा डाली, और न सिर्फ उमर ख़ालिद की परिचर्चा कैंसल करवाई बल्कि पूरा कार्यक्रम ही बंद करवा दिया.
इसके बाद उन्होंने उन विद्यार्थियों पर कॉलेज के अंदर और बाहर हमले किए जो चुपचाप अपने लोकतांत्रिक अधिकारों के हनन के ख़िलाफ़ प्रदर्शन करने के लिए जमा हुए थे. और तो और पुलिस का इन हमलों को न रोक पाना पूरे देश में चल रहे एक नए चिंताजनक ट्रेंड को दिखाता है.
जब भी केंद्र या राज्य में सत्तारूढ़ दल से संबद्ध कोई संस्थान किसी प्रभावशाली नेता के बल पर किसी लेक्चर, फिल्म, नाटक, प्रदर्शनी, आदि पर विरोध जताता है, पुलिस तुरंत उनकी धमकी के सामने झुक जाती है. दिल्ली में भी पुलिस की भूमिका बहुत शर्मनाक रही.
पुलिस ने एबीवीपी का उसी तरह साथ दिया जैसे पिछले साल पटियाला हाउस कोर्ट के सामने भाजपा कार्यकर्ताओं का दिया था, जब वे लोग कन्हैया कुमार को सुनवाई के लिए ले जा रहे थे. दिल्ली विश्वविद्यालय का भी अपने छात्रों के लिए खड़े न होना खलता है.
विश्वविद्यालय ऐसी जगह माने जाते हैं जहां नौजवान दिमाग ऐसे माहौल में विकसित हों जहां किसी भी तरह की कोई हिंसा या धमकी न हो. अगर सरकार विश्वविद्यालय के इस विचार के ही ख़िलाफ़ है तो ऐसे कई और विचार हैं, जो समय के साथ कुचल दिए जाएंगे.