जस्टिस केएम जोसेफ की अगुवाई वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ निर्वाचन आयुक्तों और मुख्य निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति संबंधी याचिका सुन रही है. इसमें कहा गया है कि वर्तमान में निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्तियां कार्यपालिका की मर्ज़ी से की जा रही हैं.
नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को निर्वाचन आयुक्तों (ईसी) और मुख्य निर्वाचन आयुक्तों (सीईसी) के रूप में अपनी पसंद के सेवारत नौकरशाहों को नियुक्त करने की केंद्र की वर्तमान प्रणाली पर सवाल उठाते हुए कहा कि किसी श्रेष्ठ गैर-राजनीतिक सुदृढ़ चरित्र वाले व्यक्ति, जो प्रभावित हुए बिना स्वतंत्र निर्णय ले सके, को नियुक्त करने के लिए एक ‘निष्पक्ष और पारदर्शी तंत्र’ अपनाया जाना चाहिए.
जस्टिस केएम जोसेफ की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ, जिसमें जस्टिस अजय रस्तोगी, जस्टिस अनिरुद्ध बोस, जस्टिस ऋषिकेश रॉय और जस्टिस सीटी रविकुमार शामिल हैं, उन याचिकाओं को सुन रही थी, जिनमें निर्वाचन समिति को राजनीतिक या कार्यकारी हस्तक्षेप से बचाने के लिए कोर्ट द्वारा निर्देश देने की मांग की गई है.
टाइम्स ऑफ इंडिया के अनुसार, याचिकाकर्ताओं ने निर्वाचन आयुक्तों की वर्तमान नियुक्ति प्रक्रिया की संवैधानिकता को चुनौती देते हुए तर्क दिया है कि नियुक्तियां कार्यपालिका की मर्जी से की जा रही हैं. उन्होंने भविष्य में होने वाली ऐसी नियुक्तियों के लिए एक स्वतंत्र कॉलेजियम जैसी व्यवस्था या चयन समिति के गठन की मांग की है.
उन्होंने कहा कि सीबीआई निदेशक या लोकपाल की नियुक्तियों, जहां विपक्ष के नेता और न्यायपालिका के पास अपनी बात कहने का अवसर होता है, के विपरीत केंद्र एकतरफा तरीके से चुनाव आयोग के सदस्यों की नियुक्ति करता है.
17 नवंबर को पिछली सुनवाई में पीठ ने इन याचिकाओं के समूह पर सुनवाई शुरू की थी और इस बात पर विचार किया था कि चुनाव आयुक्तों को चुनने के लिए एक स्वतंत्र निकाय का गठन करने के लिए कोई गैर-राजनीतिक व्यक्ति कैसे चुना जाए.
उस सुनवाई के दौरान केंद्र सरकार ने निर्वाचन आयुक्तों के चयन के लिए कॉलेजियम जैसी प्रणाली की मांग करने वाली दलीलों का जोरदार विरोध करते हुए कहा था कि इस तरह का कोई भी प्रयास संविधान में संशोधन करने के समान होगा.
मंगलवार की सुनवाई में अदालत ने संविधान के अनुच्छेद 324 के विषय को उठाया जिसमें निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति के बारे में कहा गया है. अदालत ने कहा कि इसमें इस तरह की नियुक्तियों के लिए प्रक्रिया नहीं दी गयी है. इसी तरह संविधान की चुप्पी का फायदा उठाया जा रहा है.
पीठ ने निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति के लिए कोई कानून नहीं होने का फायदा उठाए जाने की प्रवृत्ति को तकलीफदेह करार दिया. अदालत ने कहा कि उसने इस संबंध में संसद द्वारा एक कानून बनाने की परिकल्पना की थी, जो पिछले 72 वर्षों में नहीं किया गया है, जिसके कारण केंद्र द्वारा इसका फायदा उठाया जाता रहा है.
पीठ ने कहा, ‘राजनीतिक दल नियुक्ति को लेकर एक स्वतंत्र पैनल की स्थापना के लिए कानून पारित करने के लिए कभी भी सहमत नहीं होंगे क्योंकि यह सरकार की अपनी पसंद के व्यक्तियों को नियुक्त करने की शक्ति को छीन लेगा जो उनके बने रहने के लिए जरूरी हो सकता है.’
अटॉर्नी जनरल आर. वेंकटरमणी ने अदालत से कहा कि वह मौजूदा व्यवस्था में हस्तक्षेप न करे क्योंकि जैसा याचिकाकर्ताओं ने आरोप लगाया है, वैसी कोई कमी नहीं है, जिसके लिए अदालत को निर्देश देना पड़े.
इस पर पीठ ने कहा, ‘हमें इस मसले से निपटना होगा. संविधान के 70 साल बाद भी कानून नहीं बना है… सत्ता में आने वाला हर दल सत्ता बरकरार रखना चाहता है. इसलिए सरकार किसी को चुनती है और सीईसी के तौर पर काम करने के लिए बेहद कम समय देती है. यह बहुत परेशान करने वाला है.’
पीठ ने कहा, ‘2004 से मुख्य निर्वाचन आयुक्तों की सूची पर नजर डालें तो उनमें से अधिकतर का कार्यकाल दो साल से ज्यादा नहीं रहा. कानून के अनुसार उनका छह साल या 65 वर्ष तक की आयु का कार्यकाल होता है, जो भी पहले हो. इनमें से अधिकतर पूर्व नौकरशाह थे और सरकार को उनकी आयु के बारे में पता था. उन्हें ऐसे समय में नियुक्त किया गया कि वे कभी छह साल की अवधि पूरी नहीं कर पाए और उनका कार्यकाल संक्षिप्त रहा.’
इस पर वेंकटरमणी ने कहा कि जिस मौजूदा प्रक्रिया के तहत राष्ट्रपति मुख्य निर्वाचन आयुक्त और निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति करते हैं, उसे असंवैधानिक नहीं कहा जा सकता और अदालत उसे खारिज नहीं कर सकतीं.
उन्होंने कहा, ‘संविधान सभा, जिसके समक्ष विभिन्न मॉडल थे, ने इस मॉडल को अपनाया था और अब अदालत यह नहीं कह सकती कि मौजूदा मॉडल पर विचार करने की जरूरत है. इस संबंध में संविधान में कोई प्रावधान नहीं है जिसकी व्याख्या की जरूरत है.’
पीठ ने कहा, ‘हर सरकार, चाहे वो कोई हो, सत्ता में बनी रहना चाहती है. चुनाव आयोग के लिए आप आदर्श और सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति की तलाश कैसे करते हैं, यह एक बड़ा सवाल है… क्या सुप्रीम कोर्ट मूकदर्शक बना रह सकता है? एक निष्पक्ष, पारदर्शी और स्वीकार्य तंत्र होना चाहिए. हम विभिन्न रिपोर्टों और सिफारिशों की जांच कर सकते हैं. लेकिन चयन प्रक्रिया के लिए कोई भी तंत्र निष्पक्ष और पारदर्शी होना चाहिए.’
अदालत ने कहा कि संविधान ने मुख्य निर्वाचन आयुक्त और दो निर्वाचन आयुक्तों के ‘नाजुक कंधों’ पर बहुत जिम्मेदारियां सौंपी हैं और वह मुख्य चुनाव आयुक्त के तौर पर टीएन शेषन की तरह के सुदृढ़ चरित्र वाले व्यक्ति को चाहता है.
उल्लेखनीय है कि शेषन केंद्र सरकार में पूर्व कैबिनेट सचिव थे और उन्हें 12 दिसंबर, 1990 को मुख्य निर्वाचन आयुक्त नियुक्त किया गया था. वे चुनाव संबंधी सुधारों के लिए जाने जाते हैं. उनका कार्यकाल 11 दिसंबर, 1996 तक रहा था.
पीठ ने कहा, ‘तीन लोगों (दो चुनाव आयुक्तों और मुख्य निर्वाचन आयुक्त) के कमजोर कंधों पर बड़ी जिम्मेदारी सौंपी गयी है. अनेक मुख्य निर्वाचन आयुक्त हुए हैं, लेकिन टीएन शेषन एक ही हुए हैं. उसी तरह का व्यक्ति चाहिए, कोई राजनीतिक व्यक्ति नहीं. स्वतंत्र निर्णय लेने के लिए किसी शख्श का चरित्र और किसी से प्रभावित न होना महत्वपूर्ण होता है. हमें वैसा ही व्यक्ति चाहिए. सवाल यह है कि हम सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति को कैसे चुनें और कैसे नियुक्त करें.’
पीठ ने कहा कि 1990 से विभिन्न वर्गों से निर्वाचन आयुक्तों समेत संवैधानिक निकायों के लिए कॉलेजियम जैसी प्रणाली की मांग उठती रही है और एक बार भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी ने इसके लिए पत्र लिखा था.
समाचार एजेंसी पीटीआई के अनुसार, पीठ ने आगे कहा, ‘लोकतंत्र संविधान की बुनियाद है. इसे लेकर कोई बहस नहीं है. हम भी संसद को कुछ करने के लिए नहीं कह सकते हैं और हम ऐसा नहीं करेंगे. हम सिर्फ उस मुद्दे पर कुछ करना चाहते हैं जो 1990 से उठाया जा रहा है. जमीनी स्तर पर स्थिति चिंताजनक है. हम जानते हैं कि मौजूदा व्यवस्था से आगे बढ़ने को लेकर सत्ता पक्ष की ओर से विरोध होगा.’
इसने जोड़ा कि अदालत यह नहीं कह सकती है कि वह बेबस है और कुछ भी नहीं कर सकती है और ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए जो ईसी और सीईसी की नियुक्ति की वर्तमान संरचना से अलग हो.
अदालत ने संविधान के अनुच्छेद 324 को हरी झंडी दिखाई, जो चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के बारे में बात करता है और कहा कि यह ऐसी नियुक्तियों के लिए प्रक्रिया प्रदान नहीं करता है. इसके अलावा, लेख में इस संबंध में संसद द्वारा एक कानून बनाने की परिकल्पना की गई थी, जो पिछले 72 वर्षों में नहीं किया गया है, जिसके कारण केंद्र सरकार द्वारा शोषण किया गया है.
अदालत ने आगे जोड़ा कि निर्वाचन आयुक्तों की चयन प्रक्रिया में भारत के मुख्य न्यायाधीश को शामिल करना पारदर्शिता सुनिश्चित करने के लिए अच्छा रास्ता हो सकता है क्योंकि ‘सीजेआई की मौजूदगी से यह संदेश जाएगा कि आप चयन में छेड़छाड़ नहीं कर सकते हैं और सर्वश्रेष्ठ चरित्र का व्यक्ति ही चुना जाएगा. हमें ऐसा करने का प्रयास करना चाहिए.’
पीठ ने यह भी जोड़ा कि शीर्ष अदालत ने पहले भी कार्यालय को राजनीतिक हस्तक्षेप से बचाने के लिए सीबीआई निदेशक की नियुक्ति के लिए कदम उठाया था.
(समाचार एजेंसी भाषा से इनपुट के साथ)