सरोजिनी नायडू ने मदन मोहन मालवीय को ‘रुढ़िवादी-प्रगतिशील नेता’ कहा था. संघ परिवार ने अपने एजेंडा के लिए उनके रुढ़िवादी पहलू का तो इस्तेमाल किया, लेकिन उनके प्रगतिशील दृष्टिकोण को पूरी तरह नज़रअंदाज़ कर दिया.
बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) के संस्थापक मदन मोहन मालवीय को संघ परिवार ने एक ‘हिंदू’ आइकॉन के रूप में गोद लेने की पूरी कोशिश ही नहीं की है बल्कि उनका दावा है कि बीएचयू के शैक्षणिक और सामाजिक जीवन में उनके द्वारा किये जा रहे परिवर्तन मालवीय जी के सपनों के अनुरूप हैं.
हालांकि मालवीय जी का व्यक्तित्व काफी जटिल और उनके दावों को झुठलाने वाला था. वह अपने निजी जीवन में बहुत ही रुढ़िवादी थे और तमाम रीति-रिवाजों का पूर्ण रूप से पालन करते थे. वे खाना केवल ब्राह्मण महाराज के हाथ का खाते थे और पीने के लिए गंगाजल का ही सेवन करते थे लेकिन उनका सार्वजनिक दृष्टिकोण काफी उदार था. अपने बनाए हुए विश्वविद्यालय के लिए उनके सपने उन नीतियों के बिलकुल विपरीत हैं जो संघ परिवार बीएचयू और अन्य शैक्षणिक संस्थाओं में लागू कर रहा है.
मालवीयजी के इन सपनों की जानकारी उनके जीवनकाल में बीएचयू के कॉन्वोकेशन भाषणों से प्राप्त की सकती है. इसका एक अच्छा उदाहरण 1924 में उस समय के कुलपति, बड़ौदा के महाराज के भाषण में मिलता है. उन्होंने कहा था, ‘मुझे विश्वास है कि यह विश्वविद्यालय विचारों को संकीर्ण होने देने जैसी खतरनाक भूलों से बचेगा, जो आखिरकार विचार और व्यक्तित्व की आज़ादी को दबा देती है.’
1929 में विश्वविद्यालय से रिटायर होने के समय खुद मालवीय जी ने अपने कॉन्वोकेशन भाषण में कहा, ‘तुम्हें हमेशा देश के प्रति अपने कर्तव्य निभाने के लिए तैयार रहना चाहिए. अपने देशवासियों से प्रेम करो और उनमें एकता की भावना बढ़ाओ. तुमसे उदारता और सहिष्णुता और उससे ज़्यादा प्रेमभाव से सेवा करने की भावना की अपेक्षा है.’
बीएचयू के एक महिला हॉस्टल के द्वार के ऊपर इसके संस्थापक का कथन लिखा हुआ है:
‘भारत हिंदू, मुस्लिमों, सिखों, पारसियों और बाकी सभी का है. कोई भी एक समुदाय बाकियों पर प्रभुत्व नहीं जमा सकता. तुम्हारे हाथ में 5 उंगलियां हैं. अगर तुम अंगूठा काट दो तो हाथ की ताकत का केवल दसवां हिस्सा बाकी रहेगा. इस तरह काम करो कि सब एक हों… आपसी विश्वास बनने दो. हमें ऐसा संविधान और क़ानून बनाने होंगे कि चाहे जैसी भी परिस्थिति हो, कोई भी किसी दूसरे से न डरे.’
अपने अनोखे अंदाज़ में सरोजिनी नायडू ने मालवीय कोआखिरी ‘रुढ़िवादी-प्रगतिशील हिंदू नेता’ बनाया था. दुर्भाग्यवश संघ परिवार ने अपने विशेष एजेंडा के लिए उनके व्यक्तित्व के केवल ‘रुढ़िवादी’ पहलू का इस्तेमाल किया है और ‘प्रगतिशील’ पहलू को पूरी तरह नज़रअंदाज़ किया है.
इस बात से भी कोई इनकार नहीं है कि 2014 में भाजपा के देश की सत्ता संभालने के कई दशक पहले से ही बीएचयू के स्तर का क्षय होना शुरू हो गया था.शिक्षा नीति बनाने और लागू करवाने की ज़िम्मेदार सरकारों पर बीएचयू जैसे कैंपसों में राजनीति, जातिवाद, अपराध और भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने के आरोप हैं.
उप-कुलपतियों और फैकल्टी के सदस्यों का चुनाव उनकी राजनीति संबद्धता, जाति और पैसे के लेनदेन के आधार पर हुआ. हालांकि इसके बावजूद बौद्धिक चर्चाओं और बहस की जगह किसी तरह बनी रही थी लेकिन अब ऐसी संभावना को ही ख़त्म कर दिया गया है.
28 नवंबर 2014 को हुई उपकुलपति गिरीश चंद्र त्रिपाठी (जो इस वक़्त अनिश्चितकालीन अवकाश पर हैं) की नियुक्ति इस बात को दिखाती है कि यह प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय कहां पहुंच चुका है. त्रिपाठी को उनके संघ परिवार से जुड़े होने पर गर्व है. ऐसा होना भी चाहिए क्योंकि इस संबद्धता ने उन्हेंआईआईटी-बीएचयू के अध्यक्ष पद तक भी पहुंचाया है. ऐसा लगता है कि इन पदों के लिए अकादमिक योग्यता पैमाना नहीं थीं.
ये तो साफ है कि उनके पास इंजीनियरिंग या किसी अन्य क्षेत्र की कोई अकादमिक योग्यता नहीं है, लेकिन अर्थशास्त्र के प्रोफेसर के रूप में भी उन्होंने कोई खास काम नहीं किया है. इस विषय पर उनका किसी भी प्रतिष्ठित जर्नल में एक लेख तक प्रकाशित नहीं हुआ है. हालांकि उन्होंने दो हिंदी में दो किताबें लिखी हैं: ‘पुनर्जन्म का रहस्य’ और ‘शिव तेरे कितने रूप.’
नैतिकता और खाने की आदतों के बारे में त्रिपाठी काफी सख्त विचार रखते हैं. वे शाकाहार के पैरोकार हैं, साथ ही उन्होंने इस बात का भी ध्यान रखा है कि विश्वविद्यालय के महिला छात्रावास में मांसाहार नहीं परोसा जाये, हालांकि लड़कों के छात्रावास के में ऐसी कोई बंदिश नहीं है.
उन्होंने रात के समय लाइब्रेरी में सभी छात्रों के लिए इसलिए बंद करवा दी क्योंकि उनका मानना था कि छात्र वहां बैठकर पॉर्न देखते हैं. महिला कॉलेज की लाइब्रेरी में तो छात्राएं 6 बजे तक ही पढ़ सकती हों, साथ ही 8 बजे के बाद उनके हॉस्टल से बाहर जाने पर रोक है. ऐसा लगता है कि उपकुलपति महोदय के मुताबिक लड़कियों का रात को पढ़ना अनैतिक है.
त्रिपाठी ने कैंपस में आरएसएस की शाखाओं और इससे जुड़ी गतिविधियों को बढ़ावा दिया. उनका कहना है कि अब जब आरएसएस देश चला रही है तो इसमें क्या बुराई है? लेकिन वहीं, कैंपस में छात्रों से जुड़ी अन्य गतिविधियां निषेध हैं.
1996 में जब एक फैकल्टी मेंबर द्वारा कथित तौर पर दो छात्रों की गोली मारकर हत्या कर दी गयी थी, तबसे कैंपस में छात्रसंघ चुनाव नहीं हुए हैं. छात्रों और अध्यापकों (कर्मचारियों) को किसी भी तरह की यूनियन बनाने या चुनाव करने की अनुमति नहीं है. ऐसा होना अजीब है क्योंकि त्रिपाठी खुद फेडरेशन ऑफ़ सेंट्रल यूनिवर्सिटी टीचर्स एसोसिएशन के नेता रह चुके हैं. कैंपस में अब लोकतंत्र, प्रतिरोध और प्रगतिशील विचारों से जुड़े विषयों पर वाद-विवाद, वर्कशॉप या सेमीनार आयोजित नहीं होते हैं.
इसके अलावा त्रिपाठी पर यौन उत्पीड़न के दोषी को मेडिकल सुप्रिंटेंडेंट (एमएस) नियुक्त करने का गंभीर आरोप भी है. ओपी उपाध्याय बीते दो सालों से एमएस के रूप में काम कर रहे थे, लेकिन पिछले दिनों कैंपस में हुए हंगामे के बीच, एग्जीक्यूटिव काउंसिल के सदस्यों की आपत्तियों को किनारे रखते हुए त्रिपाठी ने उनकी नियुक्ति स्थायी कर दी.
उपाध्याय 2012 में एक महिला कर्मचारी पर ‘अश्लील हमले’ (Indecent Assault) के मामले में दोषी पाए गए थे. उस समय वे फिजी की फिजी नेशनल यूनिवर्सिटी में उपकुलपति के सलाहकार के रूप में कार्यरत थे. वे जेल में अपनी सज़ा भुगतने के बाद भारत लौटे थे और 2016 में उन्होंने एमएस पद की ज़िम्मेदारी संभाली. उन्हें अतिरिक्त सुविधाएं इसलिए भी मिली हैं क्योंकि वे विश्वविद्यालय के वरिष्ठतम चीफ मेडिकल ऑफिसर हैं.
उनकी बीएचयू में नियुक्ति पर उठे सवालों पर उन्होंने अपने बचाव में कहा, ‘यूनिवर्सिटी ने मेरे मामले में कानूनी सलाह ली है और तब यह फैसला लिया गया कि किसी विदेशी कोर्ट का निर्णय हमारे देश में प्रभावी नहीं होगा.’
उपाध्याय के पद पर बने रहने के दौरान इस साल जून महीने की 6 से 8 तारीख के बीच बीएचयू अस्पताल में सर्जरी वार्ड के 14 मरीजों की जान गयी. इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा इसकी जांच के आदेश दिए गए, जहां 18 जुलाई को आयी यूपी फूड सेफ्टी एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन की रिपोर्ट के मुताबिक अस्पताल में नॉन-फार्माकोपियल ग्रेड की नाइट्रस ऑक्साइड का प्रयोग किया गया. ये अनुमति प्राप्त ड्रग की श्रेणी में नहीं आती यानी मरीजों को एनेस्थीसिया के रूप में दी गयी गैस वो नहीं थी, जो दी जानी चाहिए थी. हालांकि अधिकारियों का कहना है कि इलाहाबाद के परेरहट इंडस्ट्रियल इंटरप्राइजेज से सप्लाई की गयी इस गैस की वजह से ही मौतें हुई हैं, इस बात की जांच की जा रही है.
इस कंपनी के डायरेक्टर अशोक बाजपेयी हैं, जो कांग्रेस और बसपा में रह चुके हैं. आजकल इनके बेटे भाजपा से विधायक हैं. बाजपेयी ने यह तो स्वीकार कि उनके पास मेडिकल नाइट्रोजन ऑक्साइड बनाने का लाइसेंस नहीं है, लेकिन इस आरोप से इनकार किया कि बीएचयू अस्पताल में हुई मौतों कि वजह यह गैस थी. उन्होंने कहा, ‘यही गैस लखनऊ के किंग जॉर्ज मेडिकल यूनिवर्सिटी और इलाहाबाद के मोतीलाल नेहरु मेडिकल कॉलेज में सप्लाई की जाती है.’
अस्पताल में हुई इन मौतों पर उपकुलपति ने एक शब्द भी नहीं कहा. मरीजों की ज़िंदगी हो या कैंपस में महिलाओं की सुरक्षा, जिन बातों के लिए वे जवाबदेह हैं, जिसकी ज़िम्मेदारी उनपर है, उनके प्रति वे उदासीन ही लगते हैं. शायद सितंबर महीने में कैंपस में हुए हंगामे के लिए कहीं न कहीं उनका यही उदासीन रवैया ही ज़िम्मेदार है.
21 सितंबर को जो हुआ वो नया नहीं था, लेकिन उसके बाद जो हुआ वो था. बताया जाता है कि 3 बाइक सवारों ने यूनिवर्सिटी की एक छात्रा के साथ छेड़छाड़ की. यूनिवर्सिटी के जो गार्ड पास में मौजूद थे, उन्होंने कुछ नहीं किया. जब छात्रा ने मदद मांगी, उन्होंने कहा कि अगर वो रात को बाहर रहेगी तो ऐसा होगा ही. गौर करने वाली बात ये है कि यह घटना शाम के 6 से 6.30 के बीच हुई थी.
छात्रा अपने हॉस्टल पहुंची, वार्डन से शिकायत की, जिन्होंने वही जवाब दिया जो गार्ड ने दिया था. हालांकि उनका ऐसा करना कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न अधिनियम का उल्लंघन है, जिसमें कहा गया है कि अगर किसी को ऐसी किसी घटना के बारे में जानकारी मिलती है तो उसे फौरन इसके बारे में बनी कमेटी में रिपोर्ट करना चाहिए. लेकिन दुर्भाग्य से बीएचयू में छात्रों के साथ-साथ स्टाफ के कई सदस्यों को भी पता नहीं है कि कैंपस में ऐसी कोई कमेटी है और उसके काम और जिम्मेदारियां क्या हैं.
जो घटना लड़की के साथ हुई और उसके बाद उसे जो प्रतिक्रिया उन लोगों से मिली, जो उसकी सुरक्षा के लिए ज़िम्मेदार हैं, उसने कैंपस की छात्राओं को गुस्से से भर दिया. अनुचित व्यवहार, छिछोरे कमेंट और ताने उनकी रोज़मर्रा की ज़िंदगी का हिस्सा बन चुके थे, लेकिन उस दिन जो हुआ उससे लड़कियों की सहनशीलता जवाब दे गयी.
अगले दिन बड़ी संख्या में छात्राएं अपना हॉस्टल छोड़कर बीएचयू के मुख्य द्वार के सामने धरने पर बैठ गयीं. उनकी केवल एक मांग थी कि उपकुलपति आकर उनसे मिलें और उन्हें कैंपस में उनकी सुरक्षा के बारे में आश्वस्त करें. लेकिन उपकुलपति ने ऐसा करने से साफ इनकार कर दिया.
यहां मालवीय जी के रवैये को याद करना ज़रूरी है. बीएचयू के एक प्रतिष्ठित छात्र वीवी नार्लीकर उन्हें याद करते हुए कहते हैं, ‘वे विश्वविद्यालय के लिए केवल एक उपकुलपति नहीं थे, बल्कि किसी संरक्षक की तरह थे. वे सबके लिए सहज उपलब्ध रहते थे. कैंपस में जो भी पढ़ता, पढ़ाता या काम करता था, उनमें उन्होंने यह विश्वास बना रखा था कि वे उन सबके शुभचिंतक हैं.’
छात्राओं का सिंहद्वार पर धरना 48 घंटे तक चला. जब उपकुलपति ने उनसे मिलने को मना कर दिया, तब छात्राओं ने प्रधानमंत्री, जो उस वक़्त शहर के दौरे पर थे, से उनसे मिलने की अपील की. इस डरे के दौरान प्रधानमंत्री के काफिले को बीएचयू गेट से होकर गुजरना था, लेकिन ऐसा बताया गया कि लड़कियों का आग्रह स्वीकारने के बजाय उनका रास्ता बदल दिया गया.
प्रधानमंत्री के बनारस से निकलने के बाद 23 सितंबर को जो हुआ, वो बीएचयू और इसके प्रशासन के लिए बेहद शर्मनाक और अपमानजनक बात है. धरने पर बैठी छात्राओं को बड़ी संख्या में आई पुलिस ने बलपूर्वक खदेड़ा, महिला कॉलेज के प्रांगण तक उनका पीछा किया और उन पर लाठियां बरसाईं. इस कार्रवाई के दौरान कोई महिला पुलिसकर्मी वहां मौजूद नहीं थी.
4 अक्टूबर को मैं यहां पहुंची. दशहरे की छुट्टियों के लिए कैंपस प्रशासन द्वारा समय से कुछ पहले ही बंद कर दिया गया था, जिसके बाद ये 3 तारीख को ही खुला था. उपकुलपति और प्रदेश के मुख्यमंत्री दोनों ने ही बयान दिया कि जो भी हुआ उसके लिए ‘बाहरी’ और ‘राष्ट्रविरोधी’ ज़िम्मेदार हैं, साथ ही ये आंदोलन प्रधानमंत्री के खिलाफ षड्यंत्र था. सच जानने के लिए कुछ विद्यार्थियों और अध्यापकों से मिलना ज़रूरी था.
मेरी किस्मत अच्छी थी कि मेरी मुलाकात प्रतिमा गोंड से हुई. वे समाजशास्त्र पढ़ाती हैं और लड़कियों के हॉस्टल की वार्डन भी हैं. वे एक बेहद ईमानदार और साहसी महिला हैं. उन्होंने क्या देखा और उन पर क्या बीती इस बारे में उन्होंने बताया. उन्होंने कहा कि वे वार्डन हैं इसलिए छात्राओं द्वारा उठाये गए मुद्दों के प्रति संवेदनशील हैं, साथ ही वे कैंपस के असुरक्षित और महिलाओं के लिए असहज माहौल को भी समझती हैं. जब ये आंदोलन शुरू हुआ, तब उन्होंने प्रशासन द्वारा छात्राओं की मांगों पर ध्यान देने के लिए जो बन पड़ा वो किया. लेकिन ज़िम्मेदार पदों पर बैठे लोगों के रवैये और उनके बारे में उपकुलपति की अपमानजनक टिप्पणियों से वे काफी दुखी हुई हैं.
प्रतिमा ने अन्य अध्यापकों के साथ हॉस्टल में बितायी गयी उस रात के बारे में भी बताया. उन्होंने गुस्से से 23 सितंबर की रात को हुए वाकये को याद करते हुए बताया कि जब पुलिस ने बलपूर्वक लड़कियों को गेट से हटाकर कैंपस के अंदर तक उनका पीछा किया, तब वे लोग लड़कियों की चीखें सुन पा रहे थे.
उन्होंने बताया कि वे खुद महिला कॉलेज के गेट के पास खड़ी थीं, जब पुलिस अश्लील गालियां देते हुए लड़कियों पर लाठियां बरसा रही थी. उन्होंने (पुलिस वालों ने) तब एक लड़की को पकड़कर उसे कॉलेज गेट के अंदर जाने से रोका, तब गोंड उसे बचने के लिए आगे गयीं और उसे अंदर खींचने की कोशिश की.
पुलिसकर्मी उस लड़की को पीट रहा था और प्रतिमा उसे नज़दीक खींचकर उसे बचाना चाहती थीं. इसी दौरान उनके सिर पर भी लाठी पड़ी. जब उन्होंने अपना सिर बचाने के लिए अपना हाथ ऊपर किया तब लाठी उनके हाथ पर पड़ी, जिससे उनकी उंगली टूट गयी.
वे उस छात्रा को अंदर लाने में कामयाब रहीं. इसके बाद पुलिस ने इस गेट को बाहर की ओर से ज़ंजीर लगाकर बंद कर दिया. ये छात्रा बाद में बेहोश हो गयी और उसे अस्पताल ले जाने के लिए भी गेट नहीं खोला गया. इसके बाद ढेरों फ़ोन कॉल्स किये गये, जिससे एम्बुलेंस पहुंची और कई लोगों ने इस ज़ंजीर को काटकर गेट खोला और छात्रा को अस्पताल पहुंचाया, जिससे उसे सही समय पर इलाज मिल सका.
प्रतिमा ने मुझे उनके साथ हॉस्टल चलने को कहा. उन छात्राओं से मिलना मेरे लिए यादगार रहा. इतनी कम उम्र में इतना साहस! इतना आत्मविश्वास! उन्होंने मुझे बताया कि बिना किसी अपवाद के उनके माता-पिता ने उनके आंदोलन का समर्थन किया और कैसे वो उपकुलपति के रवैये और पुलिस की क्रूरता पर नाराज़ भी थे.
उन्होंने मुझे बताया कि कैसे प्रशासन के रवैये और इस हिंसा ने उन्हें निडर बना दिया है. अब वे कभी भी अपनी बात कहने और उसके लिए लड़ने से पीछे नहीं हटेंगी. इस बात में कोई शक नहीं है कि इस आंदोलन में जिस तरह लड़कियों ने उनके साथ हुई हिंसा का बिना डरे सामना किया है, उससे उत्तर प्रदेश और बिहार के शहर, कस्बे और गांव प्रभावित तो हुए हैं.
अगले रोज़ यानी 5 अक्टूबर को राष्ट्रीय महिला आयोग के सदस्य कैंपस में पहुंचकर अध्यापकों और छात्रों से मिले. अपने दौरे के पहले दिन की बैठक के बाद कार्यकारी अध्यक्ष रेखा शर्मा ने कहा, ‘अपनी 6 घंटे की पूछताछ के दौरान मैंने कैंपस और हॉस्टल में बहुत से छात्र-छात्राओं से बात की. मैंने पाया कि छात्राओं द्वारा पिछले दिनों किया गया प्रतिरोध बीते कई सालों से छात्राओं में सुलग रहे गुस्से का परिणाम था… हम हफ्ते भर में अपनी रिपोर्ट दे देंगे, जिसमें हमने विश्वविद्यालय से लैंगिक भेदभाव भरे कुछ नियमों जैसे छात्रों और छात्राओं के आने-जाने के अलग समय को लेकर सिफारिश की हैं. कुछ समय में इन नियमों को समान बना दिया जाएगा… मैंने विश्वविद्यालय प्रशासन से बात की है. मैंने जिस भी छात्रा से बात की, उसने कहा कि वो यहां असुरक्षित महसूस करती है, साथ ही कैंपस में लगातार छेड़खानी की घटनाएं भी होती रहती हैं. मैंने पुलिस और बीएचयू प्रशासन से सुरक्षाकर्मियों की संख्या बढ़वाने और सीसीटीवी कैमरा लगवाने की बात की है.’
रेखा शर्मा ने इस बात की भी सिफारिश की कि कैंपस के सभी छात्रावासों में एक जैसा खाना दिया जाये, साथ ही लाइब्रेरी 24 घंटे तक खोली जाये. रेखा शर्मा ने कड़े शब्दों में उपकुलपति की आलोचना करते हुए कहा कि वे स्थिति बिगड़ने के उत्तरदायी हैं.
उन्होंने कहा, ‘विरोध प्रदर्शन के दोनों दिन उन्होंने पुलिस को बुलाया. मैं जानती हूं कि कैंपस में पुलिस किसने बुलवाई, लेकिन मुझे यह नहीं पता कि लाठीचार्ज का आदेश किसने दिया था. ये पुलिस को पता लगाना चाहिए…. और यह भी कि उन पर किस किस्म का दबाव था, जिसके चलते उन्होंने अचानक ये (लाठीचार्ज) किया.’
वाराणसी के कमिश्नर और डीआईजी दोनों को ही बीएचयू में हुए घटनाक्रम पर रिपोर्ट सौंपने का आदेश दिया गया था. बताया जा रहा है कि उनकी रिपोर्ट में उन्होंने बीएचयू के वीसी को ही ज़िम्मेदार बताया है.
इसके बावजूद 1,200 अज्ञात बीएचयू छात्रों के खिलाफ दंगा, आगजनी और हिंसा की एफआईआर दर्ज करवाई गयी. 14 छात्रों के नाम एफआईआर हुई. इन आरोपों के अलावा 11 छात्रों पर हत्या के प्रयास और हथियार रखने जैसे गंभीर आरोप भी लगाये गए हैं. चार पर साइबर क्राइम का आरोप है. एक छात्र का नाम इन दोनों में है. इन सबके पीछे बदला लेने जैसी भावना दिखाई देती है. वीसी और पुलिस को इन घटनाओं का ज़िम्मेदार बताया गया है, लेकिन सज़ा उन्हें मिल रही है जो यौन उत्पीड़न और प्रशासनिक असंवेदनशीलता के खिलाफ खड़े हुए. ऐसे अन्याय को सहन नहीं किया जा सकता.
इस बीच उपकुलपति ने उनके अवकाश पर जाने की घोषणा की है. वे आराम से बीएचयू के गेस्ट हाउस में रह रहे हैं और ऐसा माना जा रहा है कि वीसी लॉज में अपने आखिरी क्षणों तक वे नियुक्तियां कर रहे थे.
हालांकि एक बात तो तय है कि अब यहां सन्नाटा नहीं पसरेगा. एक लंबे अरसे तक दबाई गयी खामोश छात्राओं को एकता और संगठित संघर्ष की शक्ति मालूम हो गयी है. जब इन लड़कियों का आंदोलन चल रहा था, तब विरोध जताने के लिए एक लड़की ने अपना सिर मुंडवा लिया था.
हिंदू समाज में ऐसा रिवाज तब होता है जब परिवार के मुखिया की मृत्यु हो जाती है और उसकी जगह कोई नया व्यक्ति ये ज़िम्मेदारी संभालने की तैयारी करता है. ऐसा लगता है कि बीएचयू की ये बहादुर लड़कियां हमें बता रही हैं कि जिन लोगों ने उनके संरक्षक की ज़िम्मेदारी ली थी, वे उस दायित्व को न निभा पाने के कारण वह अधिकार खो चुके हैं. अगर मालवीय होते, तो शायद इस पुरानी परंपरा के नए स्वरूप को सराहते.
(लेखिका पूर्व सांसद और माकपा की पोलित ब्यूरो सदस्य हैं.)
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