आरटीआई कार्यकर्ता अंजलि भारद्वाज की 2018 में हुई एक कॉलेजियम की बैठक का विवरण मांगने वाली याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि मौजूदा कॉलेजियम प्रणाली कुछ ऐसे लोगों के बयानों के आधार पर बेपटरी नहीं की जानी चाहिए जो ‘दूसरों के कामकाज में ज्यादा दिलचस्पी रखते हों.’
नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को कहा कि कॉलेजियम की बैठकों में हुई मौखिक चर्चाओं पर टिप्पणी करना पूर्व न्यायाधीशों के लिए फैशन बन गया है.
अदालत ने यह भी जोड़ा कि मौजूदा कॉलेजियम प्रणाली को कुछ ऐसे लोगों के बयानों के आधार पर बेपटरी नहीं की जानी चाहिए जो ‘दूसरों के कामकाज में ज्यादा दिलचस्पी रखते हों.’ इसके साथ ही उसने जोर दिया कि सर्वोच्च अदालत सबसे पारदर्शी संस्थानों में से एक है.
टाइम्स ऑफ इंडिया के अनुसार, जस्टिस एमआर शाह और जस्टिस सीटी रविकुमार की पीठ आरटीआई (सूचना का अधिकार) कार्यकर्ता अंजलि भारद्वाज की उस याचिका पर सुनवाई कर रही थी, जिसमें दिल्ली उच्च न्यायालय के एक आदेश को चुनौती दी गई है.
दिल्ली उच्च न्यायालय ने भारद्वाज की उस याचिका को खारिज कर दिया था जिसमें 12 दिसंबर, 2018 को तत्कालीन सीजेआई रंजन गोगोई और जस्टिस मदन बी लोकुर, एके सीकरी, एसए बोबडे और एनवी रमना की अध्यक्षता में हुई ‘सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम’ की बैठक, जिसमें उच्चतम न्यायालय में कुछ न्यायाधीशों की पदोन्नति को लेकर कथित रूप से कुछ निर्णय लिए गए थे, के विवरण की मांग की गई थी.
भारद्वाज की ओर से पेश अधिवक्ता प्रशांत भूषण ने कहा कि पारदर्शिता के लिए लिखित में बैठक के प्रस्तावों को अपलोड किया जाना चाहिए.
उन्होंने यह भी जोड़ा कि शीर्ष अदालत के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस एमबी लोकुर, जो 2018 में कॉलेजियम का हिस्सा थे, ने सार्वजनिक तौर पर कहा था कि कॉलेजियम की बैठक में लिए गए फैसलों को शीर्ष अदालत की वेबसाइट पर अपलोड किया जाना चाहिए था.
भूषण का इशारा जस्टिस लोकुर के 2019 में दिए मीडिया साक्षात्कार की तरफ था, जिसमें उन्होंने जस्टिस प्रदीप नंदराजोग और राजेंद्र मेनन की प्रोन्नति न होने का उल्लेख करते हुए कहा कि वह निराश थे कि 12 दिसंबर के कॉलेजियम के प्रस्तावों को सुप्रीम कोर्ट वेबसाइट पर अपलोड नहीं किया गया था.
सुप्रीम कोर्ट की वेबसाइट पर अपलोड किए गए कॉलेजियम के प्रस्ताव के अनुसार, इन पांच न्यायाधीशों की 12 दिसंबर की बैठक में ‘कुछ निर्णय लिए गए. हालांकि, आवश्यक परामर्श पूरा नहीं किया जा सका क्योंकि न्यायालय के शीतकालीन अवकाश शुरू हो गया था. कोर्ट के फिर से खुलने तक कॉलेजियम की संरचना में बदलाव आ गया था (जस्टिस सीकरी रिटायर हो गए थे और और जस्टिस अरुण मिश्रा जुड़े थे). 5/6 जनवरी, 2019 को व्यापक विचार-विमर्श के बाद नवगठित कॉलेजियम ने मामले पर नए सिरे से और उपलब्ध अतिरिक्त सामग्री के आलोक में प्रस्तावों पर विचार करना उचित समझा.
जस्टिस मदन बी. लोकुर ने साक्षात्कार में कहा था, ‘एक बार जब हम कुछ निर्णय लेते हैं, तो उन्हें अपलोड करना होता है. मैं निराश हूं कि ऐसा नहीं हुआ था.’ उन्होंने कहा था कि उन्हें ‘अतिरिक्त सामग्री’ के बारे में जानकारी नहीं थी, जिसके कारण कॉलेजियम के 12 दिसंबर, 2018 के फैसले में बदलाव हुआ. लोकुर 30 दिसंबर 2018 को सेवानिवृत्त हुए थे.
शुक्रवार की सुनवाई में पीठ ने कहा, ‘इन दिनों, (कॉलेजियम के) के उस समय के फैसलों पर टिप्पणी करना एक फैशन बन गया है, जब वे (पूर्व न्यायाधीश) कॉलेजियम का हिस्सा थे. हम उनकी टिप्पणियों पर कुछ भी नहीं कहना चाहते हैं.’
जब भूषण ने कहा कि जस्टिस लोकुर ने कहा था कि 12 दिसंबर के फैसले को अपलोड किया जाना चाहिए था, इस पर जस्टिस शाह ने पूछा कि कॉलेजियम की बैठक में मौखिक विचार-विमर्श को प्रस्ताव के रूप में कैसे दर्ज किया जा सकता है?
भूषण ने कहा कि सवाल यह है कि क्या आम जनता आरटीआई के तहत कॉलेजियम द्वारा लिए गए फैसलों को जानने की हकदार है. उन्होंने कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि यह पारदर्शिता के लिए है और जब कॉलेजियम के प्रस्तावों की बात आती है तो वह पीछे हट जाता है.
पीठ ने कहा, ‘हम सबसे पारदर्शी संस्थानों में से एक हैं और हम इस बात से पीछे नहीं हट रहे हैं. लेकिन, यह एक गैर-संबधित व्यक्ति द्वारा की जा रही पूछताछ है. कॉलेजियम की बैठक में कई बातें कही जाती हैं. ये कभी दर्ज नहीं होतीं, जो रिकॉर्ड किया गया है वह अंतिम निर्णय होता है.’
याचिका पर अपना निर्णय सुरक्षित रखते हुए पीठ ने कहा, ‘मौजूदा कॉलेजियम प्रणाली जो काम कर रही है, बेपटरी नहीं होना चाहिए. कॉलेजियम किसी ऐसे व्यक्ति के आधार पर काम नहीं करता जो दूसरों के कामकाज में ज्यादा दिलचस्पी रखते हों. कॉलेजियम को अपने कर्तव्यों के अनुसार काम करने दें.’
(समाचार एजेंसी भाषा से इनपुट के साथ)