मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के निर्देश पर अयोध्या विकास प्राधिकरण ने मास्टरप्लान- 2031 के तहत शहर के कई मार्गों को ‘चौड़ाकर भव्यतम स्वरूप’ देने की परियोजना पर काम शुरू किया है. इसके लिए हज़ारों निर्माण, ख़ासतौर पर दुकानें हटाई जानी हैं. ऐसे में व्यापारियों का कहना है कि उन्हें समुचित मुआवज़ा देकर पुनर्वास किया जाए.
बॉलीवुड की 1968 में आई बहुचर्चित फिल्म ‘आंखें’ में साहिर लुधियानवी का लिखा और लता मंगेशकर का गाया एक गीत था- गैरों पे करम अपनों पे सितम, ऐ जाने वफा ये जुल्म न कर! इन दिनों भारतीय जनता पार्टी और उसकी उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार अयोध्या में इस गीत को नए सिरे से सार्थक कर रही हैं.
कम से कम उन व्यापारियों के संदर्भ में तो, जिन्हें ‘वहीं’ राम मंदिर निर्माण के आंदोलन के आंखें मूंदकर समर्थन और अयोध्या आए कारसेवकों के आतिथ्य में कुछ भी उठा न रखने का सिला अपने घर व दुकानें गंवाने और दर-ब-दर होने के रूप में मिल रहा है. फिलहाल, उनमें से सैकड़ों इन दिनों लंगरों में जाकर पेट की आग बुझा रहे हैं और उन्हें अफसोस है कि उनकी ‘अपनी’ सरकार इतनी वादाखिलाफ व एहसानफरामोश हो गई है कि इतनी-सी भी मांग नहीं मान रही कि उन्हें उजाड़ने से पहले उनको समुचित मुआवजा देकर उपयुक्त पुनर्वास करा दे.
दूसरे पहलू पर जाएं, तो 2019 में मंदिर-मस्जिद विवाद के निपटारे के बाद अपनी सारी बलाएं टलने की उम्मीद लगा बैठी अयोध्या इन दिनों अपनी छाती पर सवार नए ध्वंस व उनके जाये नए उद्वेलनों को लेकर असहज भी है, उदास भी और निराश भी. अलबत्ता, इस बार उसकी उदासी की जड़ें धार्मिक या सांप्रदायिक नहीं, सामाजिक व आर्थिक कारकों में हैं. उन कारकों में जिनके चलते ‘अयोध्या के विश्वस्तरीय पर्यटन विकास’ और ब्रांडिंग के सपने जहां कुछ लोगों को बेहद हसीन नजर आ रहे हैं, वहीं अब बहुत से लोगों को उनके साकार होने की संभावनाएं भी डरावनी लगने लगी हैं.
जानकारों के अनुसार, ऐसे असंतुलित विकास के सपने, वे अयोध्या में देखे जाएं या कहीं और, समाज के निचले तबकों के लिए दुःस्वप्न ही सिद्ध होते रहे हैं क्योंकि उनके साकार होने पर इन तबकों के सामने दो ही विकल्प बचते हैं: वहीं रहकर हाशियाकरण की मार झेलते रहें या कोई और ठौर तलाश लें.
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के ‘कड़े’ निर्देश पर अयोध्या विकास प्राधिकरण द्वारा अपने मास्टरप्लान- 2031 के तहत सहादतगंज से नया घाट तक तेरह किलोमीटर लंबा ‘राम पथ’, सुग्रीव किला से राम जन्मभूमि मंदिर तक ‘राम जन्मभूमि पथ’ और शृंगारहाट से राम जन्मभूमि मंदिर तक ‘भक्ति पथ’ को ‘चौड़ाकर भव्यतम स्वरूप’ देने की परियोजना पर काम शुरू करते ही उजड़ व विस्थापित हो रहे लोग इस कड़वे सच के सामने आ खड़े हुए हैं.
इन लोगों में सत्तर प्रतिशत व्यापारी हैं, जो सत्तारूढ़ भाजपा का परंपरागत वोट बैंक और राम मंदिर आंदोलन के मुखर समर्थक रहे हैं. इसलिए उक्त मार्गों का चौड़ीकरण पीढ़ियों से उनकी जीविका का साधन रही दुकानों व प्रतिष्ठानों के ध्वंस के रूप में सामने आ रहा है, तब भी वे उसके विरोध में नहीं उतर पा रहे. बस इतनी गुहार लगा रहे हैं कि बदले में उन्हें तर्कसंगत मुआवजा दिया जाए और बेघर-बेदर करने से पहले पुनर्वास की माकूल व्यवस्था कर दी जाए.
उन व्यापारियों की आवाज इनसे अलग है, जो इन मार्गों के किनारे दुकानें किराये पर लेकर व्यवसाय करते आ रहे और अब एकदम खाली हाथ रह जाने के अंदेशे से त्रस्त हैं. शुरू में इन सबको लगा था कि उनकी शुभचिंतक सरकार को उनकी यह मांग मान लेने में कोई दिक्कत नहीं होगी. मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने इसका वादा भी किया था, लेकिन अब व्यापारी कह रहे हैं कि उनकी एक नहीं सुनी जा रही.
संभवतः इसलिए कि जिन एजेंसियों व विभागों को उक्त परियोजना का काम सौंपा गया था, पहले तो वे सोते रहे, फिर मुख्यमंत्री ने अचानक उनके पेंच कसे तो बिना समुचित तैयारी के शुरू हो गए. इसलिए उनके पास न उजड़ रहे लोगों के संदेहों व सवालों के उपयुक्त जवाब हैं, न ही मुआवजे व पुनर्वास की पारदर्शी व्यवस्था.
इससे उद्वेलित व्यापारियों ने अपना आधे से ज्यादा नवंबर और शुरुआती दिसंबर विभिन्न मंचों पर फरियादों, बेमियादी बाजार व कारोबारबंदी और प्रदर्शनों में गुजारा, अलबत्ता परियोजना के विरोध में गए बिना, फिर भी फौरी आश्वासनों को छोड़ कुछ भी उनके हाथ नहीं आया.
गत 27 नवंबर को उनके बेमियादी बंद के दौरान मुख्यमंत्री अयोध्या में थे, तो भी उन्होंने उनके दर्द को नहीं समझा. उल्टे उनकी पुलिस ने कई व्यापारी नेताओं को उनके घरों में ही नजरबंद कर दिया. दो दिसंबर को साहबगंज स्थित राम जानकी मंदिर में उनका मौन धरना भी बेअसर ही रहा.
उद्योग व्यापार मंडल की स्थानीय इकाई के नेता नंदकुमार गुप्ता ‘नंदू’ कहते हैं कि अब व्यापारियों के सामने ‘कहां जाएं, क्या करें’ की स्थिति उत्पन्न हो गई है. वे निर्माणाधीन राम मंदिर जाकर विराजमान रामलला तक से दुखड़ा रो आए हैं. फिर भी सरकार और प्रशासन ने पुनर्वास आदि के सारे पुराने वादे ठंडे बस्ते में डाल दिए हैं और जो मुआवजा दिया भी जा रहा है, वह पुराने सर्किल रेट के आधार पर और मानक के विपरीत है. सर्किल रेट पिछले छह साल से नहीं बढ़ा है, जबकि भूमि की कीमत मंदिर-मस्जिद विवाद निपटने के बाद के ही वर्षों में कई गुनी हो गई हैं.
नंदू की मानें, तो व्यापारियों को उम्मीद थी कि उन पर ‘कृपालु’ रहने वाली सरकार पुराने सर्किल रेट पर एक्स-ग्रेशिया [Ex-gratia] लगाकर उनका मुआवजा दोगुना कर देगी, लेकिन सरकारी अधिकारी सामान्य मुआवजे की अदायगी को भी पेचीदा बना दे रहे हैं. जिन व्यापारियों की दुकानें नजूल की गैर-फ्रीहोल्ड भूमि पर बनी हैं, उन्हें संबंधित भूमि सरकार की बताकर महज निर्माण के मुआवजे का हकदार बताया जा रहा है, जबकि रिकाबगंज से नियावां मुहल्लों के बीच के कई व्यापारियों की दुकानें एक राजा की जमीन में बनी बताकर कह दिया गया है कि मुआवजा लेना है, तो उस पर अपना असंदिग्ध स्वामित्व प्रमाणित करें.
इन व्यापारियों में एक नियावां के यासीन मलिक भी हैं. उन्होंने अपनी दुकान की भूमि का 1919 में बैनामा कराया था, लेकिन अधिकारी कहते हैं कि स्वामित्व बैनामे से नहीं, खारिज दाखिल से प्रमाणित माना जाएगा क्योंकि कागजात में वह भूमि अभी भी दियरा के राजा के नाम दर्ज है. हालांकि अधिकारियों के पास यासीन के इस सवाल का कोई जवाब नहीं है कि राजा पिछले 103 साल में उस भूमि पर अपना हक जताने क्यों नहीं आए?
गत 14 नवंबर को इस प्रकरण को लेकर रिकाबगंज से नियावां तक के व्यापारियों ने सड़क पर तो 16 नवंबर को कलेक्ट्रेट परिसर के बाहर प्रदर्शन भी किया था.
दूसरी ओर, गत दिनों दुकानें ढहाने में हड़बड़ी के चलते भक्ति मार्ग पर हरिश्चन्द्र मार्केट में एक दुकान की छत सीतापुर के एक मजदूर पर आ गिरी, जिससे उसकी मौत हो गई. रामगुलेला मार्ग पर दर्जनों दुकानें जानें किस अंदेशे कें तहत रात के अंधेरे में ढहा दी गईं. यह कहकर कि वे नजूलभूमि पर बनी थीं. उनके पीड़ितों को टेढ़ीबाजार में निर्माणाधीन कॉम्प्लेक्स में पुनर्वास का आश्वासन है, लेकिन वे कहते हैं कि उक्त कॉम्प्लेक्स इतनी दूर है कि वहां से पूजन सामग्री, फूल-मालाओं और प्रसाद वगैरह का उनका पारंपरिक धंधा चलेगा ही नहीं.
ज्ञातव्य है कि विस्थापन की आशंका को लेकर इन व्यापारियों ने उत्तर प्रदेश विधानसभा के गत चुनाव से पहले भाजपा से नाराजगी जताई तो उसके विधायक प्रत्याशी वेद प्रकाश गुप्ता ने उनकी बहुत मान-मनौवल की थी. तत्कालीन उपमुख्यमंत्री दिनेश शर्मा ने भी अयोध्या आकर उन्हें आश्वस्त किया था कि उनको ध्वस्त किए जाने वाले घरों के बदले घर और दुकानों के बदले दुकानें दी जाएंगी. लेकिन अब व्यापारी उनसे ‘क्या हुआ तेरा वादा’ पूछ रहे हैं तो उन्हें कोई जवाब नहीं मिल रहा.
हां, जिलाधिकारी नीतीश कुमार ने उन्हें नए सिरे से सर्वे और पुनमूल्यांकन कराने और ध्वस्तीकरण के नुकसान से बचने के लिए खुद अपने निर्माण हटाने के विकल्प दिए हैं, जिसके प्रति सदाशयता बरतकर उन्होंने तुलसी उद्यान में प्रस्तावित सत्याग्रह टाल दिया है, लेकिन व्यापारी नेता ‘नंदू’ का कहना है कि कई बिंदुओं पर गतिरोध बरकरार है और बात नहीं बनी तो व्यापारी फिर आंदोलन करेंगे, जिसके असर से अयोध्या नगर निगम चुनाव भी अछूता नहीं रहेगा.
प्रसंगवश, तेरह किलोमीटर लंबे रामपथ के चौड़ीकरण में ढाई-तीन हजार निर्माण हटाए या ढहाए जाने हैं. इनमें 17 मंदिर और 14 मस्जिदें हैं, जबकि सात सौ से ज्यादा पेड़ों पर भी कहर टूटना तय है. मुख्यमंत्री ने अयोध्या को ग्लोबल व माॅडल सिटी बनाने की उनकी सरकार की परिकल्पना के अनुसार अगले साल दिसंबर तक यह सब करके मार्ग का चौड़ीकरण पूरा कर लेने को कहा है, इसलिए इन दिनों सरकारी अमले की बेदर्दी और सक्रियता दोनों देखते ही बनती है.
गौरतलब है कि गत छह दिसंबर को बाबरी मस्जिद के ध्वंस के तीन दशक पूरे हुए तो मीडिया के एक हिस्से ने बेहद खुश होकर लिखा, ‘अयोध्या में दोनों समुदाय पुरानी कड़वाहटें भूलकर आगे बढ़ गए हैं, जिससे अब वहां डर है न संशय और लोगों की दिनचर्या सामान्य हो गई है.’ अफसोस कि इस मीडिया को वे नए उद्वेलन एकदम नहीं दिखाई दिए, जिनसे अयोध्या इन दिनों जूझ रही है.
इसीलिए उस दिन सुबह-सुबह एक टी-स्टॉल पर चाय की चुस्कियां ले रहे एक वयोवृद्ध अयोध्यावासी बुजुर्ग ने एक हिन्दी दैनिक में इस आशय की खबर पढ़कर जैसे खुद से ही कहा, ‘काश, हालात सचमुच खुशगवार होते. लेकिन यहां तो लगता है कि अयोध्या की किस्मत में किसी न किसी आग में जलते रहना ही लिखा है- कभी उसकी तेज आंच में तो कभी धीमी.’
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)