झारखंड: किन वजहों से जेलों में बंद रहने को मजबूर हैं आदिवासी और हाशिये से आने वाले लोग

बीते दिनों राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने छोटे-मोटे अपराधों में जेल की सज़ा काट रहे आदिवासियों की दुर्दशा का ज़िक्र किया था, जिसके बाद शीर्ष अदालत ने इस बात का संज्ञान लिया था. झारखंड की जेलों में भी कई ऐसे विचाराधीन क़ैदी हैं, जिन्हें यह जानकारी तक नहीं है कि उन्हें किस अपराध में गिरफ़्तार किया गया था.

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खूंटी उपा-कारागार. (फोटो: जसिंता केरकेट्टा)

बीते दिनों राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने छोटे-मोटे अपराधों में जेल की सज़ा काट रहे आदिवासियों की दुर्दशा का ज़िक्र किया था, जिसके बाद शीर्ष अदालत ने इस बात का संज्ञान लिया था. झारखंड की जेलों में भी कई ऐसे विचाराधीन क़ैदी हैं, जिन्हें यह जानकारी तक नहीं है कि उन्हें किस अपराध में गिरफ़्तार किया गया था.

खूंटी उपा-कारागार. (फोटो: जसिंता केरकेट्टा)

बीते महीने संविधान दिवस के मौके पर राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने मामूली अपराधों में वर्षो से कैद आरोपियों द्वारा जमानत की शर्तें पूरी न कर पाने वालों को जेल से रिहाई की चर्चा की थी. इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने मामूली अपराधों में जेल में बंद ऐसे आरोपियों की जानकारी मांगी थी, जो जमानत की शर्तें पूरी न कर पाने की वजह से जेलों में बंद हैं.

झारखंड के जेलों की पड़ताल करने पर पता चलता है कि यहां 90 प्रतिशत बंदी निरक्षर हैं या बारहवीं तक ही पढ़े-लिखे हैं. गांव के बहुत सारे लोग पढ़े-लिखे नहीं होने के कारण यह भी नहीं जानते कि उन्हें किस आरोप में और क्यों पकड़ा गया है. पति या बेटे के जेल चले जाने के बाद गांव में रहने वाली उनकी मां, पत्नी या कोई अन्य यह भी नहीं जानते कि आगे क्या करना है. ऐसी स्थिति में लोग लंबे समय तक जेल में पड़े रहते हैं.

ऐसी ही आपबीती खूंटी जिले के अड़की थाना क्षेत्र में रहने वाले जोसेफ कांगाड़ी की थी. उन्होंने बताया, ‘जेल से बाहर आने के बाद मुझे पता चला कि कोर्ट ने बहुत पहले ही जमानत का आदेश दे दिया था, लेकिन आदेश के बाद भी मैं छह माह तक जेल में पड़ा रहा. मेरी पत्नी नहीं जानती थी कि कोर्ट से बेल का आदेश मिलने के बाद आगे क्या करना होता है. बाद में जब जज के सामने उसे लाया गया, तब जज ने मेरा नाम पूछा तो वह डर से मेरा नाम ही भूल गई. वह मुंडारी भाषा जानती है. हिंदी भी ठीक से समझती नहीं. छह माह के बाद मैं अभी गांव वापस लौटा हूं.’

परिजनों की हिरासत में लिए गए व्यक्ति के मामले में अंबीगीता का यह इकलौता मामला नहीं है. खूंटी थाना क्षेत्र में ही रहने वाले जोगिंदर गोंझू नाबालिग हैं और फ़िलहाल डुंबरदगा जेल, ओरमांझी में बंद हैं.

उनकी मां बिमला देवी बताती हैं, ‘एक दिन पुलिस आई. सफेद कागज में अपना नाम लिखने को कहा. हमने लिख दिया. पुलिस ने बेटे को उठा लिया और कहा कि पूछताछ करने के लिए ले जा रहे हैं. लड़के को कई बार कहा कि जब कोर्ट में पूछा जाए कि कब उठाया है तो कहना आज ही. पर पुलिस लड़के को रात को ही ले गई थी. लड़के ने कोर्ट में ऐसा ही कहा और अब वह जेल में है. हमें नहीं मालूम कि क्या मामला था और बेटे को क्यों जेल में रखा है.’

इसी जिले के मरांगहदा थाना क्षेत्र के  रहने वाले मदरू मुंडा के परिजन बताते हैं, ‘किसी की हत्या की खबर सुनकर मदरू भी देखने चला गया. बाद में खबर मिली कि पुलिस उसे ही पूछताछ के लिए पकड़कर ले गई है. घर के लोग मिलने गए, पर उससे मिलने नहीं दिया गया. पांच दिन तक उसे थाना में रखा गया, फिर पता चला कि उसे जेल भेज दिया गया है.’

इसी तरह खूंटी जिले के ही तोरपा थाना क्षेत्र में रहने वाला अजय टोपनो ने बताया, ‘किसी अनजान व्यक्ति ने मेरा मोबाइल जरूरी बात करनी है कहकर मांगा था, मैंने दे दिया था. बाद में रात को पुलिस आई और मुझे पकड़कर थाना ले गई. वहां उन्होंने मुझे बहुत मारा. मुझे नहीं मालूम था कि क्या हुआ है.’ वह जेल से अभी गांव लौटे हैं.

झारखंड के जेलों में बंद कैदियों की स्थिति जानने के लिए खूंटी स्थित हॉफमैन लीगल सेल के संचालक और मानवाधिकार कार्यकर्ता फादर अनूपचंद मिंज ने आरटीआई के जरिये राज्य के विभिन्न जेलों से सूचनाएं हासिल की है.

वे बताते हैं, ‘खूंटी जिले में पुलिस द्वारा दर्ज प्राथमिकी के अधिकतर मामलों में स्वतंत्र गवाह नहीं होते. इसका मुख्य कारण पुलिस वालों को देखकर गांव वालों का भाग जाना अथवा किसी स्वतंत्र गवाह का मौजूद न होना है. ऐसे में पुलिस वाले अपने द्वारा दर्ज एफआईआर में खुद ही साक्ष्य भी बन जाते हैं.’

90 प्रतिशत कैदी निरक्षर से 12वीं तक ही पढ़े

उन्होंने बताया कि 90 प्रतिशत से अधिक कैदी निरक्षर हैं अथवा उन्होंने अधिकतम 12वीं तक की पढ़ाई की है. यह भी तथ्य है कि राज्य के जेलों में लगभग इतने ही प्रतिशत बंदी दूरदराज के गांव, बस्तियों के हैं.

फादर अनूपचंद कहते हैं, ‘ये आंकड़े कई प्रश्न पैदा करते हैं. ऐसा लगता है कि जुर्म केवल आर्थिक दृष्टि से गरीब, अनपढ़ या कम पढे़- लिखे लोग ही करते हैं. लेकिन जेल में गांव- देहात के लोगों की संख्या अधिक होने का मूल कारण पुलिस और कचहरी से उनका डरना है. कई बार पुलिस बेकसूर लोगों को झूठे केस में फंसा देती है और उन्हें गिरफ्तार कर जेल भेज देती है.’

उन्होंने जोड़ा, ‘गांव- देहात के लोगों की सरल जीवनशैली के कारण भी पुलिस गांव- देहात में किसी भी तरह का जुर्म करने वालों को आसानी से गिरफ्तार कर लेती है, जबकि पढ़े-लिखे और शहर वाले अपराध कर महीनों या सालों तक भूमिगत हो जाते हैं और आसानी से पुलिस की गिरफ्त में नहीं आते.’

बंदियों की पढ़ाई-लिखाई के दृष्टिकोण से घाघीडीह, जमशेदपुर जेल अव्वल है. 31 दिसंबर 2021 के आंकड़े के अनुसार, इस कारागार में कुल 1,893 बंदियों में 91 निरक्षर, कक्षा 1- 10 तक पढ़े 800, बारहवीं तक की पढ़ाई करने वाले 734, स्नातक करने वाले 110, स्नातकोत्तर की पढ़ाई करने वाले 51 और टेक्निकल ट्रेनिंग किए हुए 107 बंदी थे.

जेलों में क्षमता से अधिक कैदी

दूसरा महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि राज्य में अवस्थित केंद्रीय जेलों को छोड़कर हर जिला के कारागार या उप- कारागार में कैदियों की संख्या जेलों की क्षमता से कई गुना अधिक है. जिला कारा अथवा उप कारा में बंदियों की संख्या 50 प्रतिशत से अधिक होना आम बात है. किसी- किसी जेल में उनकी संख्या दोगुनी अथवा तिगुनी भी है.

उदाहरण के लिए, देवघर केंद्रीय कारा की क्षमता सिर्फ 335 लोगों की है, लेकिन इसमें 900 से भी ज्यादा लोगों को रखा गया. यह बात भी सामने आई है कि कन्विक्शन रेट या बंदियों को कोर्ट से सजा मिलने की दर अत्यंत कम है. औसतन यह महज दो से तीन प्रतिशत ही है.

आंकड़ों के विश्लेषण से यह भी दिखता है कि एक साल में जितने लोगों को गिरफ्तार कर जेल में डाला गया, लगभग उतने ही लोगों को कार्टकोर्ट से जमानत भी मिली. इसका अभिप्राय यह है कि या तो उनके मामले गिरफ्तारी के लायक नहीं थे, वे ज्यादा गंभीर मुद्दे नहीं हैं अथवा उनको बिना अपराध के महज फंसाया गया था.

पाकुड़ जेल में आदिवासी बंदियों की सबसे ज्यादा संख्या 

प्रतिशत के हिसाब से अनुसूचित जनजाति बंदियों की सबसे ज्यादा संख्या पाकुड़ जेल में है, जहां लगभग सौ फीसदी बंदी आदिवासी हैं. इसके बाद देवघर सेंट्रल जेल में 86 प्रतिशत और खूंटी जेल में 77 प्रतिशत है. अनुसूचित जाति के बंदियों की संख्या सबसे ज्यादा बोकारो जेल में है, जो 69 प्रतिशत है. दूसरे नंबर पर चाईबासा जेल (38 प्रतिशत) और तीसरे नंबर पर तेनूघाट जेल (27 प्रतिशत) है.

धर्मिक समुदाय की दृष्टिकोण से झारखंड के जेलों में लगभग 74 प्रतिशत बंदी हिंदू समुदाय के हैं, वहीं 16 प्रतिशत मुसलमान, सात प्रतिशत ईसाई, एक प्रतिशत सिख और तीन प्रतिशत अन्य समुदाय के हैं.

हत्या के मामले में गिरफ्तार लोगों की सबसे अधिक संख्या चाईबासा जेल में (54.73 प्रतिशत) है. इसके बाद दुमका सेंट्रल जेल में (53.41 प्रतिशत). हजारीबाग सेंट्रल जेल तीसरे नंबर पर आता है, जहां इनकी संख्या 45.65 प्रतिशत है.

ऐसे समय में जब देश की राष्ट्रपति ने जेलों में विचाराधीन कैदियों के बारे चिंता जताई है, झारखंड के जेलों में लंबे समय से मामूली अपराधों में वर्षो से कैद विचाराधीन कैदियों की ओर भी ध्यान देने की जरूत है.

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)