यह मामला 12-13 जुलाई, 1991 की दरम्यानी रात को उत्तर प्रदेश के पीलीभीत शहर में 10 सिखों की हत्या से संबंधित है. कुछ सिख तीर्थयात्री पीलीभीत से एक बस में तीर्थयात्रा के लिए जा रहे थे. आरोपी पुलिसकर्मी इस बस से 10 सिख युवकों को पकड़कर अपने साथ ले गए थे और तीन अलग-अलग एनकाउंटर में उन्हें मार डाला था.
लखनऊ: इलाहाबाद हाईकोर्ट ने उत्तर प्रदेश में साल 1991 में हुए पीलीभीत फर्जी मुठभेड़ मामले में अपहरण और हत्या के दोषी ठहराए गए 43 पुलिसकर्मियों (पीएसी के पूर्व सिपाहियों) को सात साल के सश्रम कारावास की सजा सुनाई है.
इस फर्जी मुठभेड़ में 10 सिखों को आतंकवादी बताकर उनकी हत्या कर दी गई थी.
हाईकोर्ट ने निचली अदालत द्वारा पुलिसकर्मियों को भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 302 के तहत सुनाई गई सजा को रद्द करते हुए कहा कि मामला धारा 303 के अपवाद 3 के तहत आता है, जो यह प्रावधान करता है कि यदि अपराधी लोक सेवक होने या लोक सेवक की सहायता करने के कारण किसी ऐसे कार्य द्वारा मृत्यु का कारण बनता है, जिसे वह ‘वैध’ मानता है तो यह हत्या नहीं, बल्कि गैर इरादतन हत्या है.
हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ ने निर्देश दिया कि दोषी अपनी जेल की सजा काटेंगे और प्रत्येक पर 10-10 हजार रुपये का जुर्माना भी लगाया.
लाइव लॉ की रिपोर्ट के अनुसार, 43 पुलिसकर्मियों/अपीलकर्ताओं की सजा को आईपीसी की धारा 302 से धारा 304 भाग एक में परिवर्तित करते हुए जस्टिस रमेश सिन्हा और जस्टिस सरोज यादव की पीठ ने अपने 179 पन्नों के आदेश में टिप्पणी की, ‘यह पुलिस अधिकारियों का कर्तव्य नहीं है कि वे अभियुक्त को केवल इसलिए मार दें, क्योंकि वह एक खूंखार अपराधी है. निस्संदेह पुलिस को आरोपियों को गिरफ्तार करना है और उनके खिलाफ मुकदमा चलाना है.’
हाईकोर्ट ने कहा, ‘आरोपियों और मारे गए लोगों के बीच कोई दुर्भावना नहीं थी. अभियुक्त लोक सेवक थे और उनका उद्देश्य सार्वजनिक न्याय की उन्नति था.’
यह मामला 12-13 जुलाई, 1991 की दरम्यानी रात को पीलीभीत में 10 सिखों की हत्या से संबंधित है. कुछ सिख तीर्थयात्री पीलीभीत से एक बस में तीर्थयात्रा के लिए जा रहे थे. उसमें बच्चे और महिलाएं भी थीं. आरोपी पुलिसकर्मियों ने इस बस को रोककर 11 लोगों को उठा लिया था.
पुलिस का मानना था कि इनमें खालिस्तान लिबरेशन फ्रंट से जुड़े कुछ ‘कट्टर आतंकवादी’ थे.
आरोप है कि पुलिस द्वारा तीन अलग-अलग ‘एनकाउंटर’ में इनमें से 10 सिखों को मार दिया गया था. पीलीभीत के न्योरिया, बिलसांदा और पूरनपुर थानाक्षेत्रों के क्रमशः धमेला कुंआ, फगुनिया घाट व पट्टाभोजी इलाके में कथित एनकाउंटर दिखाकर ये हत्याएं की गई थीं. आरोप है कि 11वां शख्स एक बच्चा था, जिसका अब तक कोई पता नहीं चल सका.
जहां, अभियोजन पक्ष ने कहा था कि पुलिस ने उन्हें ‘फर्जी एनकाउंटर’ में मार डाला था, पुलिसकर्मियों (तब इनकी संख्या 47 थी) ने दावा किया था कि उन्होंने आत्मरक्षा में सिखों को मार डाला था.
शुरू में इस मामले की विवेचना पीलीभीत पुलिस ने की और मामले में अंतिम रिपोर्ट (क्लोजर रिपोर्ट) जमा कर दी गई. हालांकि, बाद में एक अर्जी पर सुप्रीम कोर्ट ने प्रकरण की जांच केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) को सौंप दी थी.
सीबीआई ने विवेचना के बाद 57 अभियुक्तों को आरोपित किया. सुनवाई के दौरान 10 अभियुक्तों की मौत हो गई. सीबीआई की लखनऊ स्थित विशेष अदालत (ट्रायल कोर्ट) ने चार अप्रैल 2016 को मामले में 47 अभियुक्तों को घटना में दोषी करार दिया और उम्रकैद की सजा सुनाई थी.
ट्रायल कोर्ट ने अप्रैल 2016 में निष्कर्ष निकाला था कि पुलिस अधिकारियों ने 10 सिख युवकों का अपहरण करके एक फर्जी एनकाउंटर में उन्हें मारकर एक आपराधिक साजिश रची थी और उसके बाद इन हत्याओं को एनकाउंटर में बदलने के लिए कई दस्तावेज तैयार किए थे.
ट्रायल कोर्ट ने उन्हें आईपीसी की धारा 120बी (आपराधिक साजिश की सजा), 302 (हत्या की सजा), 364 और 365 (अपहरण), 218 (सजा से बचाने के लिए लोक सेवक द्वारा गलत रिकॉर्ड बनाना), 117 (सार्वजनिक या 10 से अधिक व्यक्तियों द्वारा अपराध करने के लिए उकसाना) के तहत दोषी ठहराया था.
पुलिसकर्मियों की ओर से दलील दी गई थी कि मारे गए 10 सिखों में से बलजीत सिंह उर्फ पप्पू, जसवंत सिंह उर्फ ब्लिजी, हरमिंदर सिंह उर्फ मिंटा तथा सुरजान सिंह उर्फ बिट्टू खालिस्तान लिब्रेशन फ्रंट के आतंकी थे. उन पर हत्या, डकैती, अपहरण व पुलिस पर हमले जैसे जघन्य अपराध के मामले दर्ज थे.
पुलिसकर्मियों ने अपनी सजा को हाईकोर्ट में चुनौती दी थी. अपीलों के लंबित रहने के दौरान 47 अभियुक्तों में से चार की मृत्यु हो गई.
(समाचार एजेंसी भाषा से इनपुट के साथ)