एक मामले पर सुनवाई के दौरान सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पीठ ने कहा कि उच्चतम न्यायालय के लिए कोई भी मामला छोटा नहीं होता. अगर हम व्यक्तिगत स्वतंत्रता से जुड़े मामलों में कार्रवाई नहीं करते हैं और राहत नहीं देते हैं, तो हम यहां क्या कर रहे हैं. बीते दिनों केंद्रीय क़ानून मंत्री किरेन रिजिजू ने शीर्ष अदालत को ज़मानत और बेतुकी जनहित याचिकाओं पर सुनवाई न करने का सुझाव दिया था.
नई दिल्ली: दो दिन पहले केंद्रीय कानून मंत्री किरेन रिजिजू ने लंबित मामलों की बढ़ती संख्या का हवाला देते हुए सुप्रीम कोर्ट के संबंध में टिप्पणी की थी कि वह जमानत याचिकाओं और बेतुकी जनहित याचिकाओं पर सुनवाई न करे.
अब शुक्रवार (16 दिसंबर) को भारत के प्रधान न्यायाधीश (सीजेआई) डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पीठ ने टिप्पणी की है कि उच्चतम न्यायालय के लिए कोई भी मामला छोटा नहीं होता.
सुप्रीम कोर्ट ने ‘व्यक्तिगत स्वतंत्रता’ की अहमियत पर प्रकाश डालते हुए शुक्रवार को कहा कि अगर वह देश के नागरिकों के मौलिक अधिकारों के उल्लंघन से जुड़े मामलों में कार्रवाई नहीं करता है, तो यह उसे हासिल विशेष संवैधानिक शक्तियों का ‘उल्लंघन’ करने जैसा होगा.
सीजेआई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पीठ ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक आदेश को खारिज करते हुए सवाल किया, ‘अगर हम अपनी अंतरात्मा की नहीं सुनते तो हम यहां क्यों हैं?’
पीठ ने कहा, ‘उच्चतम न्यायालय के लिए कोई भी मामला छोटा नहीं होता. अगर हम व्यक्तिगत स्वतंत्रता से जुड़े मामलों में कार्रवाई नहीं करते हैं और राहत नहीं देते हैं, तो हम यहां क्या कर रहे हैं?’
इस पीठ में जस्टिस पीएस नरसिम्हा भी शामिल थे.
पीठ ने कहा, ‘अगर हम व्यक्ति स्वतंत्रता से जुड़े मामलों में कार्रवाई नहीं करते हैं तो हम अनुच्छेद-136 (राहत देने के लिए संविधान में प्रदत्त विशेष शक्तियां) का उल्लंघन करेंगे.’
पीठ ने कहा कि मामले के तथ्य शीर्ष अदालत को प्रत्येक नागरिक को मिले जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार के रक्षक के रूप में अपनी शक्तियों का इस्तेमाल करने का एक और मौका, एक ‘स्पष्ट मौका’ प्रदान करते हैं.
पीठ ने कहा, ‘अगर न्यायालय ऐसा नहीं करेगा तो एक नागरिक की स्वतंत्रता समाप्त हो जाएगी. नागरिकों की शिकायतों से जुड़े छोटे, नियमित मामलों में इस अदालत के हस्तक्षेप से न्यायशास्त्रीय और संवैधानिक मुद्दों से संबंधित पहलू उभरकर सामने आते हैं.’
इंडियन एक्सप्रेस के मुताबिक, पीठ ने कहा कि व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार संविधान द्वारा प्रदत्त एक बेशकीमती एवं अपरिहार्य अधिकार है और अदालत द्वारा हस्तक्षेप की कमी से न्याय को गंभीर क्षति भी पहुंच सकती है.
शीर्ष अदालत ने याचिकाकर्ता इकराम को राहत देते हुए यह टिप्पणी की. इकराम को विद्युत अधिनियम से जुड़े नौ आपराधिक मामलों में उत्तर प्रदेश के हापुड़ जिले की एक अदालत ने दोषी करार दिया था. अदालत ने इकराम को प्रत्येक मामले में दो साल के कारावास और जुर्माने की सजा सुनाई थी.
जेल अधिकारियों का कहना है कि उनकी सजा एक साथ के बजाय क्रमिक रूप से चलेगी, जिसकी वजह से उन्हें जेल में 18 साल गुजारने होंगे. इकराम ने मामले में हाईकोर्ट का रुख किया था, जिसने उसे राहत देने से इनकार कर दिया था.
हालांकि, शीर्ष अदालत ने हाईकोर्ट के आदेश को पलटते हुए स्पष्ट किया कि इकराम की सजा एक साथ चलेगी. सर्वोच्च अदालत ने यह भी कहा कि हाईकोर्ट को इस ‘घोर अन्याय’ को रोकने के लिए आगे आना चाहिए था.
पीठ ने कहा कि वर्तमान मामले के तथ्य इस अदालत द्वारा अपने अधिकार क्षेत्र का इस्तेमाल करने के पक्ष में एक और प्रत्यक्ष उदाहरण पेश करते हैं, जो हर नागरिक में निहित जीवन और निजी स्वतंत्रता के मौलिक अधिकारों के रक्षक के रूप में काम करता है.
पीठ ने आगे कहा कि यदि अदालत ऐसा नहीं करती है तो इस तरह के मामलों में न्याय को गंभीर क्षति पहुंचेगी, जैसा कि वर्तमान मामले में सामने आया और ऐसा जारी रहेगा. एक नागरिक जिसकी स्वतंत्रता छीनी जा रही है उसकी आवाज पर कोई ध्यान नहीं दिया जाएगा.
सीजेआई ने पीठ की ओर से आदेश में लिखते हुए कहा, ‘नागरिकों की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए इस न्यायालय द्वारा हस्तक्षेप संविधान के भाग 3 में निहित है. न्यायालय को भारत के संविधान के अनुच्छेद 32 और अनुच्छेद 136 के तहत न्यायिक शक्तियां सौंपी गई हैं. व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार संविधान द्वारा मान्यता प्राप्त एक बेशकीमती और अपरिहार्य अधिकार है. ऐसी शिकायतों पर ध्यान देते वक्त सुप्रीम कोर्ट संवैधानिक कर्तव्य, दायित्व और कार्यों को पूरा करता है, न अधिक और न कम.’
इस दौरान, सीजेआई ने यह भी घोषणा की कि 19 दिसंबर से शुरू होने वाले शीतकालीन अवकाश के दौरान सुप्रीम कोर्ट में कोई अवकाश पीठ नहीं होगी. उन्होंने कहा, ‘कल (शनिवार) से 2 जनवरी 2023 तक कोई पीठ उपलब्ध नहीं होगी.’
बीते 15 दिसंबर को केंद्रीय कानून मंत्री किरेन रिजिजू ने राज्यसभा को बताया था, ‘भारत के लोगों के बीच यह भावना है कि अदालतों को मिलने वाली लंबी छुट्टी न्याय की आस रखने वालों के हित में नहीं हैं और यह उनका दायित्व एवं कर्तव्य है कि वह इस सदन का यह संदेश न्यायपालिका तक पहुंचाएं.’
रिजिजू ने न्यायाधीशों के रिक्त पदों को अदालतों में लंबित मामलों की भारी संख्या से जोड़ते हुए उच्च न्यायपालिका में नियुक्तियों के लिए सुप्रीम कोर्ट की कॉलेजियम प्रणाली का जिक्र करते हुए राज्यसभा को बताया था कि यह मुद्दा नियुक्तियों के लिए ‘कोई नई प्रणाली’ लाने तक हल नहीं होगा.
(समाचार एजेंसी भाषा से इनपुट के साथ)