क्यों फिर से उभर रही है राजस्थान हाईकोर्ट से मनु की मूर्ति हटाने की मांग

मूर्ति या चित्र किसी का भी हो, यह सिर्फ प्रतिमा या तस्वीर मात्र न होकर किसी ख़ास विचारधारा का प्रतिनिधित्व भी होता है. मनु की मूर्ति भी एक विचार का प्रतिनिधित्व करती है, जो दलितों, महिलाओं और संविधान के ख़िलाफ़ है.

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मूर्ति या चित्र किसी का भी हो, यह सिर्फ प्रतिमा या तस्वीर मात्र न होकर किसी ख़ास विचारधारा का प्रतिनिधित्व भी होता है. मनु की मूर्ति भी एक विचार का प्रतिनिधित्व करती है, जो दलितों, महिलाओं और संविधान के ख़िलाफ़ है.

जयपुर स्थित राजस्थान हाईकोर्ट की पीठ में लगी मनु की प्रतिमा. (फोटो: द वायर)

हाल ही में ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के दौरान कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने राजस्थान में विभिन्न सामाजिक संगठनों के प्रतिनिधियों के साथ बातचीत कर प्रदेश की अनेक समस्यायों का जायज़ा लेने की कोशिश की. इस संवाद कार्यक्रम में जमीन पर काम करने वाली महिला कार्यकर्ताओं ने भी बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया, जिसमें उन्होंने विभिन्न जमीनी मुद्दों के साथ-साथ राजस्थान उच्च न्यायालय के सामने स्थापित शोषण और अन्याय के प्रतीक मनु की मूर्ति को हटाने की भी पुरज़ोर वकालत की. यह मांग केवल आज से नहीं, बल्कि जबसे यह मूर्ति को स्थापित की गई, उसी दिन से हो रही है.

खैर, एक ज़माना था जब मनुस्मृति ही देश का विधान था, जिसके द्वारा सभी जाति, वर्ग की महिलाएं और देश के कथित शूद्र और अतिशूद्र समाज के सभी मानवाधिकारों को नकारकर सर्वथा अन्याय और शोषण के कथित सिद्धांतों को गढ़ते हुए ऐसे समाज की नींव रखी गई जो स्तरीय विभाजन के तत्व पर आधारित था.

इसकी घोर आलोचना करते हुए भारतीय संविधान के प्रमुख शिल्पी डॉ. बाबासाहब भीमराव आंबेडकर ने गंगाधर नीलकंठ सहस्त्रबुद्धे और अन्य छह दलित संन्यासियों के हाथों से महाराष्ट्र स्थित महाड़ के ‘चवदार’ तालाब के सत्याग्रह के दौरान दिनांक 25 दिसंबर 1927 को सार्वजनिक रूप से जलाया. इस घटना की तुलना उन्होंने 1789 की फ्रांसीसी क्रांति से की थी. आज हमारा देश मनुस्मृति से नहीं बल्कि आंबेडकर द्वारा लिखित भारतीय संविधान से चलता है.

सवाल है कि जब सर्वोच्च न्यायालय अथवा देश के किसी भी उच्च न्यायालयों, मंत्रालयों या सरकारी दफ्तरों के सामने मनु की मूर्ति नहीं है, तो फिर राजस्थान में यह मूर्ति कैसे आई? ऐसा कौन-सा षड्यंत्र था कि भारतीय संविधान और उसके मूल्यों के घोर प्रतिरोध का यह प्रतीक यहां स्थापित कर दिया गया?

वह दिन 28 जून 1989 का था, जब मनु की प्रतिमा को राजस्थान हाईकोर्ट में सौन्दर्यीकरण के नाम पर स्थापित कर दिया गया. मीडिया रिपोर्ट्स की माने तो ‘राजस्थान उच्च न्यायालय अधिकारी एसोसिएशन’ के तत्कालीन अध्यक्ष पदम कुमार जैन के अनुरोधानुसार तत्कालीन जस्टिस एमएम कासलिवाला ने इस मूर्ति की स्थापना के लिए पत्र क्रमांक 0303 द्वारा मान्यता प्रदान की.

मूर्ति के लिए ‘लायंस क्लब’ जैसी कथित प्रतिष्ठित संस्था ने न सिर्फ अनुदान दिया अपितु इस के अनावरण कार्यक्रम का आमंत्रण पत्र भी प्रकाशित करने का काम किया. जब तक मूर्ति स्थापित नहीं हो गई तब तक आम जनता को इसका पता नहीं था. खैर, इस शोषण के पुतले का उसी दिन से विरोध शुरू हो गया.

बढ़ते दबाव के चलते हाईकोर्ट की प्रशासनिक बैठक में दिनांक 28 जुलाई 1989 को इस मूर्ति को 48 घंटों में हटाए जाने का निर्णय कर लिया गया, जिसके विरोध में ‘विश्व हिंदू परिषद’ के आचार्य धर्मेंद्र ने एक रिट याचिका दायर की, जिसके फलस्वरूप जस्टिस महेंद्र भूषण की पीठ ने मूर्ति को यथास्थिति बनाए रखने का आदेश जारी कर दिया.

मनु की प्रतिमा को हटाने के संदर्भ में आज तक अनेक प्रयास किए गए, जिसमें राजस्थान के ही नहीं बल्कि देश भर के सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता, विचारक, लेखक, कलाक्षेत्री आदि के साथ-साथ सर्वसामान्य जनता भी बड़े पैमाने पर सहभागी हुई.

इस संदर्भ में सामाजिक कार्यकर्ता पीएल मिमरोठ ने वकील अजय कुमार जैन के माध्यम से न्यायालय में एक जनहित याचिका भी दायर की. लेकिन शोषणवादी तबकों के बढ़ते दबाव के कारण यह सुनवाई हो ही नहीं सकी. आखिरकार पहली बार दिनांक 13 अगस्त 2015 को इस विषय पर मुख्य न्यायाधीश सुनील अंबवानी ने सुनवाई करने का फैसला किया. जब यह सुनवाई शुरू हुई तब पूरा कोर्टरूम वकीलों से खचाखच भरा हुआ था, जो मूर्ति के पक्ष में जोरदार नारेबाज़ी कर रहे थे. शोर-शराबा हो रहा था. इस दबाव के बीच न्यायमूर्ति ने ‘अन्यायमूर्ति’ पर सुनवाई स्थगित कर दी.

मूर्ति या चित्र किसी का भी हो, यह सिर्फ प्रतिमा मात्र ही नहीं बल्कि किसी ख़ास विचारधारा का प्रतिनिधित्व भी होता है. मनु की मूर्ति भी एक विचार का प्रतिनिधित्व करती है, जो दलितों, महिलाओं के खिलाफ है. संविधान के खिलाफ है और इसीलिए सभी के खिलाफ है. इसके विरोध में जोरदार आवाज़ें हमेशा से उठती रही हैं.

मान्यवर कांशीराम ने वर्ष 1996 में इसके खिलाफ राष्ट्रीय प्रतिरोध छेड़ा था. वर्ष 2000 में महाराष्ट्र के जेष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता बाबा अढाऊ जी के नेतृत्व में सैकड़ों कार्यकर्ता इसके विरोध में रास्ते पर निकल पड़े थे. वर्ष 2017 में युवा नेता जिग्नेश मेवाणी ने मनु विरोधी सम्मेलन से ‘गुजरात उना दलित अत्याचार लड़त समिति’ के माध्यम से विरोध का बिगुल फूंका था. 3 अक्तूबर 2015 में महाराष्ट्र की दो महिलाओं- कांता रमेश अहिरे और शिलाबाई पवार ने इस मूर्ति पर कालिख पोत दी थी, जिसके बाद उन्हें अशोक नगर थाने में हिरासत में ले लिया गया था.

हाल ही में प्रदेश में दलितों-आदिवासियों-महिलाओं के खिलाफ बढ़ते शोषण के मुद्दों के संविधानिक प्रतिरोध के पक्ष में आम जनता के नेतृत्व में उभरे ‘भेदभाव-छुआछूत मुक्त राजस्थान अभियान’ के माध्यम से सिविल सोसाइटी के कार्यकर्ता और प्रकाश आंबेडकर जैसे राजनेताओं ने इस को उखाड़ फेकने की मांग की.

आज इस अभियान के माध्यम से व्यापक जन चेतना का निर्माण राजस्थान के धरातल पर पुरज़ोर तरीके से हो रहा है. ग्रामीण महिलाएं ‘हताई’ जैसे अमानवीय प्रथा के लिए मनु और उसके धर्म शास्त्रों की कठोर आलोचना कर ऐसी प्रथाओं के निर्मूलन के लिए कानून की मांग कर रही हैं. सीवरेज वर्कर्स उन पर हो रहे अत्याचार के लिए इसी व्यवस्था को जिम्मेदार मान रहे हैं, जो मनु की समर्थक है. देश का शोषित, वंचित, पीड़ित तबका मनु की राजनीति को अब जान चुका है.

खैर, देश जहां स्वाधीनता का अमृत महोत्सव मना रहा है, वहीं राजस्थान दलित अत्याचार, गैर-बराबरी, भेदभाव और शोषण के मामलों में देश में नंबर एक के पायदान पर पहुंच गया है.

हाल ही में घटित इंद्र कुमार मेघवाल केस ने तो पूरे देश को मानवाधिकार और संविधान के बारे में सोचने के लिए मजबूर कर दिया है. नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो ने प्रदेश में 2018 से 2022 तक लगभग 52% दलित अत्याचार के मामलों की बढ़त दर्ज की है.

वर्ष 2016 में एससी और एसटी समुदाय के खिलाफ अपराध  6,329 मामले दर्ज हुए. तो वर्ष 2020 में यह आंकड़े बढ़कर 8,744 हो गए थे. आंकड़ों के मुताबिक,राजस्थान में अनुसूचित जाति और जनजाति (निवारण) कानून के तहत वर्ष 2016 में 6,329 मामले दर्ज हुए हैं. वहीं 2017 में ऐसे 5,222 और वर्ष 2018 में 5,563 मामले दर्ज किए गए. जबकि 2019 में 8,418 मामले और 2020 में 8,744 मामले दर्ज हुए.

जब मनु की प्रतिमा जैसे एक मसले पर मात्र सुनवाई को 30-30 साल लग जाते है, तो सामान्य लोगों के खिलाफ बढ़ते शोषण और अत्याचार के मुद्दों पर जल्द न्याय भला कैसे मिल सकता है? राजस्थान सरकार की माने तो 52% से जादा मामले पुलिस रिकॉर्ड में दर्ज ही नहीं हो पाते.

वर्ष 2021 में, राज्य द्वारा ‘एससी/एसटी (अत्याचार निवारण) अधिनियम’ के तहत दर्ज कुल 7,524 मामलों में से केवल 3,087 मामलों की ही चार्जशीट दायर की. वही 2020 में कुल 7,017 मामलों में से राज्य पुलिस ने केवल 2,929 मामलों में चार्जशीट दायर की. वर्ष 2019 में कुल 6,794 मामलों में से राज्य पुलिस ने केवल 2,919 मामलों में चार्जशीट दायर की.

सज़ा की बात करें, तो 2019 में दलितों के खिलाफ केवल 1,121 मामलों में ही दोषियों को सज़ा मिली. वही वर्ष 2020 में यह आंकड़ा घटकर 686 पर पहुंच गया. यानी कि कुल 8,744 मामलों में सजा की दर मात्र 7.84 प्रतिशत रही जो पिछले 5 सालों से सबसे कम है.

दलितों के खिलाफ साबित अपराधों की बात करें तो, 2016 में 680 मामलों में आरोप साबित हुए जो सालभर में दर्ज कुल मामलों का 10.74 फीसदी है. इसी तरह वर्ष 2017 में दर्ज मामले में 1,845, वर्ष 2018 में 712, वर्ष 2019 में 1,121 और वर्ष 2020 में 686 मामलों में आरोप साबित हुए.

मनु समर्थकों की भीड़ जहां न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका के साथ-साथ मीडिया तंत्र को भी अपने दमन का शिकार बना लेती है, वहां संविधानिक जन अभियान का विकल्प सामान्य जनों के पास शेष रहता है.

मनु मूर्ति इस देश का मूल आदर्श कभी भी नहीं हो सकती. अगर आप मनु को चुनते है तो आप उन देशद्रोहियों की पांत में हैं जो भेदभाव, शोषण, अन्याय, अत्याचार और छुआछूत के पक्ष में है.

दिलीप मंडल जी के शब्दों में, ‘क्या राजस्थान और देश में ऐसा भी कोई इंसान, या राजनीतिक पार्टी है, जो मनु की मूर्ति के पक्ष में है? अगर है, तो वे बड़े गंदे लोग हैं. जाति का प्रश्न एक पल के लिए छोड़ भी दीजिए, तो मनु की मूर्ति इसलिए भी हटनी चाहिए कि उसने हर जाति की औरतों के बारे में बड़ीनिकृष्ट बातें लिखी हैं. किसी को छोड़ा नहीं है. वह ठीक आदमी नहीं था.’

अब फैसला हमें करना है. देश हमारा है.

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)