सरकार के हर फ़ैसले और बयान को देशभक्ति का पैमाना मत बनाइए. सरकारें आएंगी, जाएंगी. देश का इक़बाल खिचड़ी जैसे फ़ैसलों का मोहताज नहीं.
भला हो केंद्रीय खाद्य प्रसंस्करण मंत्री हरसिमरत कौर का, जिन्होंने 24 घंटे के भीतर ये ऐलान कर दिया कि खिचड़ी को राष्ट्रीय भोजन घोषित करने की ख़बरों में कोई सच्चाई नहीं है. सरकार का ऐसा कोई इरादा नहीं है. सोशल मीडिया पर सक्रिय ‘देशभक्तों’ की तोप खिचड़ी की सुरक्षा में तैनात ही होने लगी थी कि हरसिमरत के ट्वीट ने फ़िज़ा बदल दी.
खिचड़ी को देश की अस्मिता से जोड़कर एक माहौल बनाने की शुरुआत होने ही लगी थी कि विराम लग गया. हरसिमरत कौर की तरफ से सफ़ाई आने में देर होती या फिर सच में खिचड़ी को राष्ट्रीय भोजन घोषित करने का ऐलान हो जाता तो अब तक खिचड़ी देशभक्ति के राष्ट्रीय राजमार्ग पर दौड़ने लगी होती. उसके बचाव में सोशल मीडिया पर तोप-तमंचे-तलवारें निकल चुकी होतीं. जो भी खिचड़ी वाले फ़ैसले का मज़ाक उड़ाता, ग़लत बताता, उसे न जाने क्या-क्या सुनना पड़ता.
तीन दिन से वंदे मातरम पर हो रही ताल-ठोंक बहसों का रुख खिचड़ी की तरफ मुड़ सकता था. चैनलों पर बीजेपी के ताल-ठोंकू प्रवक्ता खिचड़ी केंद्रित देशभक्ति के हैवी डोज के साथ दिखने लगते. देश भर के साइबर वीर खिचड़ी वाले फ़ैसले को देश से जोड़ने में लगाते. जो खिचड़ी का विरोध करता वो देशद्रोही क़रार कर दिया जाता. अच्छा हुआ कि जिसे देश में रहना है, खिचड़ी-खिचड़ी कहना है, जैसे नारे तक पहुंचने की नौबत नहीं आई. बुनियादी और बड़ा सवाल ये है कि आए दिन देशभक्ति को नए सिरे से परिभाषित क्यों किया जा रहा है?
भेड़चाल और भीड़चाल का ऐसा दौर शुरू हो गया है कि जैसे सरकार के किसी फ़ैसले/नीतियों/बयान या किसी संभावित ऐलान के ख़िलाफ़ अपनी राय दी नहीं कि सोशल मीडिया पर मारने-पीटने का आभासी हथियार लिए पेड/अनपेड और स्वयंभू देशभक्त मैदान-ए-जंग में कूद पड़ते हैं. गोया सरकार का कोई बयान, पैग़ंबर का पैग़ाम हो.
सरकारें कई बार अच्छे फ़ैसले करती हैं, कई बार उल-जलूल फ़ैसले करती हैं. जिसे ठीक लगता है, समर्थन करता है, जिसे नहीं ठीक लगता, आलोचना या विरोध करता है. ये देश के लोकतंत्र का बुनियादी आधार है. खिचड़ी पर तो फिर भी कोई फ़ैसला हुआ ही नहीं था.
70 साल में केंद्र और राज्य सरकारों के सैकड़ों ऐसे फ़ैसले हैं, जिन्हें विरोध के बाद ठंडे बस्ते में डाल दिया गया. बड़े-बड़े सरकारी फ़ैसलों ने विरोध की आवाज़ के सामने दम तोड़ दिया लेकिन विरोधी देशद्रोही क़रार नहीं दिया गया. सरकार को अकाल तख़्त मत बनाइए. विरोध और असहमति की आवाज़ों को तनखैया घोषित मत करिए.
देश का मतलब सरकार नहीं होता. सरकार का मतलब आलोचनाओं से परे कोई दिव्य शक्ति नहीं होता. सरकार बनती है जनता से. जनता का मतलब सिर्फ़ अंध समर्थक नहीं होता. सोशल मीडिया के ‘देशभक्त वीरों’ को ये समझना चाहिए. अक्सर उनका रिएक्शन लोकतंत्र की बुनियादी अवधारणा के ही ख़िलाफ़ होता है. ये बात इस बार खिचड़ी को राष्ट्रीय व्यंजन घोषित करने की अफ़वाह के बाद फिर स्थापित हुई है. अमूमन सरकार के हर बड़े फ़ैसले के बाद होती है.
ऐसा क्यों होता है? इस पर सामूहिक चिंतन और चिंता करने की ज़रूरत है. फौरी तौर पर रिएक्ट करने वाले लोग कभी फ़ुर्सत में 2012 से 2014 के मई तक नरेंद्र मोदी के बयानों का ही वीडियो देख लें. विपक्षी दल के मुख्यमंत्री और नेता के तौर पर उस समय की यूपीए सरकार के हर बड़े फ़ैसले का विरोध करते थे. चाहे आधार लागू करने का फ़ैसला हो, जीएसटी का प्रस्ताव हो या फिर तेल की क़ीमतों में बढ़ोतरी का मुद्दा.
2013 के आख़िरी महीनों से लेकर चुनाव के पहले तक ऐसे हर मौक़े पर मोदी जमकर मुख़ालफ़त करते नज़र आए थे. फिर आज ऐसा क्या हो गया कि तेल की क़ीमतों, महंगाई, बेरोज़गारी के ख़िलाफ़ बोलने वाला भी देश के ख़िलाफ़ लगने लगता है.
जीएसटी की ख़ामियां या इससे लोगों की परेशानियां गिनाने-बताने वाला सोशल मीडिया पर ‘देशद्रोही’ घोषित किया जाने लगता है. जो खिचड़ी देश के ज़्यादातर हिस्से में खाई जाती हो, उस खिचड़ी के राष्ट्रीय व्यंजन घोषित करने की अघोषित ख़बर पर अगर किसी खिचड़ी-प्रिय ने भी असहमति के तर्क दिए तो उसपर तीर चलने लगे… तुम तो ठहरे देशद्रोही, खिचड़ी पर साथ क्या निभाओगे टाइप…क्या है ये?
अगर ऐसे लोगों के सोशल मीडिया प्रोफाइल ओर जाकर देखें तो कुछ अनाम-गुमनाम-अदृश्य चेहरे दिखेंगे, एक विचारधारा विशेष के समर्थक/कार्यकर्ता तो दिखेंगे ही, ऐसे पढ़े लिखे लोग दिखेंगे कि आप हैरान हो जाएंगे कि ये आदमी ऐसी बातें कैसे कर सकता है.
मैं निजी अनुभव बताता हूं. परसों शाम जब सोशल मीडिया के ज़रिये खिचड़ी वाली अफ़वाह पक्की ख़बर की तरह फैली तो मुझे खिचड़ी खाने का मन हो गया. मैं वैसे भी खिचड़ी-पसंद हूं. मैंने घर में खिचड़ी बनवाई और बिना कोई अंजाम सोचे कुछ तस्वीरें सोशल मीडिया पर डाल दीं.
ज़माने की इस बारे में जो भी राय हो, मैं खिचड़ी वाले फ़ैसले के ख़िलाफ़ नहीं होता. पोस्ट में ऐसा कुछ नहीं था, बल्कि खिचड़ी के गुण ही गिनाए थे. इसके बावजूद कई लोगों ने ये कहकर गालियां दीं कि मोदी सरकार के फ़ैसले का तुम मज़ाक क्यों उड़ा रहे हो? कइयों को मुझे ब्लॉक करना पड़ा.
सवाल सिर्फ़ मेरे निजी अनुभव का नहीं है, सवाल सरकार को देश का पयार्यवाची बनाने वाली मानसिकता का है. देश से सरकारें बनती हैं, सरकार से देश नहीं बनता. गणराज्य में गण पहले है, राज्य नहीं.
सरकार की आलोचना का मतलब राष्ट्रविरोध कब से होने लगा? ये तो 1947 से पहले होता था, जब अंग्रेज़ी हुक़ूमत थी. ब्रिटेन से आए लॉर्ड्स और वाइसराय देश पर क़ाबिज़ थे. ये तो देश की चुनी हुई सरकार है. तो फिर ऐसा माहौल कैसे बना दिया जा रहा है. कई बार सत्ताधारी दल के नेताओं के बयान भी फाल्स नेशनलिस्म की ऐसी ही अवधारणा को धार देने का काम करता है.
ये घाल-मेल किसी एक दौर में किसी पार्टी विशेष के लिए तो फ़ायदेमंद हो सकता है, लंबे वक्त के लिए नहीं. ऐसी अवधारणाएं देश की एकता-अखंडता और सामूहिकता पर चोट करती हैं. जो भारतीय गणराज्य की मूल अवधरणा है.
आज के क़रीब सवा सौ साल पहले 1883 में दुनिया के अमेरिकी प्रेसीडेंट अब्राहम लिंकन ने अपने भाषण में सरकार की अद्भुत परिभाषा दी थी. लिंकन ने कहा था- Government of the people, by the people, for the people. मतलब सरकार जनता की, जनता के द्वारा और जनता के लिए है. लोकतांत्रिक सरकार के लिए इससे अच्छी परिभाषा शायद कभी नहीं गढ़ी गई.
भारत के लोकतंत्र की भी यही ख़ूबसूरती है. लेकिन जब से साइबर स्पेस का विस्तार हुआ है, देशभक्ति के नये-नये पैमाने गढ़े जाने लगे हैं, तब से माहौल बदलने लगा है. फ़र्ज़ नेताओं और सत्ताधीशों का भी है कि वो अपने अंधसमर्थकों को उग्र होने से बचाएं, विरोध की आवाज़ों को कुचलने वाली भीड़ में तब्दील होने से बचाएं.
आज़ादी के बाद नेहरू की लोकप्रिय सरकार और इंदिरा की ताकतवर सरकार की संसद में धज्जियां उड़ाई गईं. राजीव गांधी, नरसिम्हा राव से लेकर मनमोहन सिंह की सरकार के फ़ैसलों के ख़िलाफ़ देश भर में लामबंदी हुई, घेराबंदी हुई. संसद के भीतर-बाहर हो-हल्ला हुआ, लेकिन देशभक्ति और देशद्रोह का सवाल नहीं आया. फिर आज ऐसा क्यों हो रहा है?
जनता का मतलब देश की सवा सौ करोड़ आबादी से है. जिसका ज़िक्र नरेंद्र मोदी ही 2013 से बार-बार करते आ रहे हैं. लोकतंत्र में जनता का मतलब रियाया नहीं होता कि सर्वशक्तिमान राजा के क़िले से कोई मुनादी हो जाए तो रियाया कान खोलकर सुने और आंख बंदकर क़बूल कर ले. ये अधभक्तों और उनके ख़ैरख़्वाहों को भी समझनी चाहिए.
मोदी सरकार के फ़ैसलों के बाद सोशल मीडिया पर देश की हालत शोले के उस सीन की तरह हो जाती है, जिसमें जेलर असरानी कहता है- आधे इधर आओ, आधे उधर जा, बाक़ी मेरे पीछे आओ. पलटकर देखता है तो कोई पीछे नहीं होता.
यही हाल सरकार के हर ऐलान के बाद होता है. अंध समर्थक एक तरफ होते हैं. अंध विरोधी दूसरी तरफ. बीच में सब गायब. कुछ होते भी हैं तो उनकी तादाद आधे उधर और आधे इधर की भीड़ में खो जाने लायक ही होती है. दो खांचों में सबकुछ बंट गया है. इधर या उधर. ये भी ठीक नहीं है. कभी-कभी किसी जनप्रिय फ़ैसले को अच्छा भी कहा जाना चाहिए. ऐसी कई योजनाएं भी इस सरकार ने लागू की हैं. हां, उन योजनाओं का अंजाम अच्छा नहीं हुआ या अमल में ख़ामियां रह गईं तो बात ज़रूर होनी चाहिए.
होता ये है कि खांचों में बंटी सोच के इस माहौल में मध्यममार्गी भी मारा जाता है. जिस दिन वो सरकार के किसी फ़ैसले को अच्छा कहता है, उस दिन उसे एक पक्ष संदिग्ध मानता है. जिस दिन उसी फ़ैसले की ख़ामियां गिनाता है तो तालियां मार चुका पक्ष गालियां देते हुए देशद्रोही घोषित करने आ जाता है. ऐसा नोटबंदी के साथ भी हुआ. जीएसटी के साथ भी.
कबीर का दोहा याद रखिए- निंदक नियरे राखिए आंगन कुटी छवाय. सरकार के हर फ़ैसले और बयान को देशभक्ति का पैमाना मत बनाइए. सरकारें आएंगी, जाएंगी. देश का इक़बाल क़ायम था, क़ायम रहेगा. देश का इक़बाल खिचड़ी जैसे फ़ैसलों का मोहताज नहीं.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)