फ़रीद काज़मी, जिन्होंने लोकप्रिय सिनेमा के प्रतिरोध को विश्लेषण के दायरे में लिया

स्मृति शेष: बीते दिनों इस दुनिया को अलविदा कहने वाले इलाहाबाद विश्वविद्यालय के राजनीति विज्ञान विभाग के प्रोफेसर फ़रीद काज़मी सिनेमा के ऐसे अध्येता थे, जिन्होंने समानांतर या कला फिल्मों की बजाय पॉपुलर सिनेमा को चुना और इसमें दिखने वाले वर्चस्वशाली राजनीतिक विमर्श को रेखांकित किया.

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इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्रोफेसर फ़रीद काज़मी. (फोटो साभार: फेसबुक/@शुभनीत कौशिक)

स्मृति शेष: बीते दिनों इस दुनिया को अलविदा कहने वाले इलाहाबाद विश्वविद्यालय के राजनीति विज्ञान विभाग के प्रोफेसर फ़रीद काज़मी सिनेमा के ऐसे अध्येता थे, जिन्होंने समानांतर या कला फिल्मों की बजाय पॉपुलर सिनेमा को चुना और इसमें दिखने वाले वर्चस्वशाली राजनीतिक विमर्श को रेखांकित किया.

इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्रोफेसर फ़रीद काज़मी. (फोटो साभार: फेसबुक/@शुभनीत कौशिक)

सिनेमा, राजनीति व समाज के जटिल अंतरसंबंधों को अपनी विचारोत्तेजक कृतियों में विश्लेषित करने वाले अध्येता और इलाहाबाद विश्वविद्यालय के राजनीति विज्ञान विभाग में प्राध्यापक रहे प्रो. फ़रीद काज़मी का 22 दिसंबर, 2022 को निधन हो गया. काज़मी सिनेमा के उन बिरले अध्येताओं में से थे, जिन्होंने विश्लेषण के लिए समांतर या आर्ट सिनेमा की जगह हमेशा ही लोकप्रिय (पॉपुलर) या ‘कन्वेंशनल’ सिनेमा को चुना.

लोकप्रिय सिनेमा में प्रकट होने वाले वर्चस्वशाली राजनीतिक विमर्श, जेंडर संबंधों और सेक्सुअलिटी, भारतीय सिनेमा में प्रस्तुत की जाने वाली अल्पसंख्यकों की छवि, भारतीय सिनेमा में सेक्स और हिंसा की मौजूदगी को उन्होंने अपनी पुस्तकों में लगातार रेखांकित किया.

अकादमिक यात्रा

भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान जेल जाने वाले स्वतंत्रता सेनानी, अधिवक्ता और साम्यवादी नेता सैयद असदुल्ला काज़मी के बेटे मोहम्मद फ़रीदुद्दीन काज़मी ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अंग्रेजी साहित्य और राजनीति विज्ञान में स्नातक की उपाधि हासिल की. यहीं से ही उन्होंने राजनीति विज्ञान में वर्ष 1976 में एमए किया. आपातकाल के दौरान ही वर्ष 1978 में उन्होंने जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी से एमफ़िल की उपाधि हासिल की. इसके एक साल बाद दिसंबर 1979 में वे इलाहाबाद विश्वविद्यालय में बतौर लेक्चरर नियुक्त हुए.

वर्ष 1984 में उन्होंने तब दिल्ली विश्वविद्यालय से संबद्ध रहे विकासशील समाज अध्ययन पीठ (सीएसडीएस) में प्रसिद्ध समाजशास्त्री व मनोवैज्ञानिक प्रो. आशीष नंदी के शोध-निर्देशन में पीएचडी में प्रवेश लिया. राजनीतिविज्ञानी प्रो. महेंद्र प्रसाद सिंह भी उनके शोध-निर्देशक रहे. वर्ष 1991 में उन्होंने पीएचडी की उपाधि हासिल की. सिनेमा पर लिखे गए उनके शोध-ग्रंथ का शीर्षक ‘सिनेमा एंड आइडियोलॉजी: स्टडी ऑफ हिंदी कन्वेंशनल फ़िल्म्स 1973-87’ था.

भारतीय सिनेमा की पड़ताल

भारतीय सिनेमा अध्ययन का विश्लेषण करते हुए फ़िलिप लट्गेंडॉर्फ़ ने चार प्रमुख दृष्टिकोणों को रेखांकित किया है. ये दृष्टिकोण हैं : सांस्कृतिक-ऐतिहासिक, प्रौद्योगिकीय, मनोवैज्ञानिक और राजनीतिक अर्थव्यवस्था (पॉलिटिकल इकोनॉमी). इसमें चौथे और आख़िरी दृष्टिकोण (पॉलिटिकल इकोनॉमी) का ज़ोर भारतीय सिनेमा और फ़िल्म-उद्योग के सामाजिक-राजनीतिक संदर्भों को समझने पर था.

लट्गेंडॉर्फ़ ने फ़रीद काज़मी और ‘आइडियोलॉजी ऑफ हिंदी फ़िल्म’ (1998) जैसी चर्चित पुस्तक के लेखक एम. माधव प्रसाद को इस दृष्टिकोण का प्रमुख सिद्धांतकार माना है.

फ़रीद काज़मी का आरंभिक लेखन मानवाधिकार की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, उससे जुड़ी अवधारणाओं और मानवाधिकार के विविध आयामों से जुड़ा था. अपनी पहली पुस्तक ‘ह्यूमन राइट्स: मिथ एंड रियलिटी’ (1987) में उन्होंने मानवाधिकार से जुड़े विभिन्न मुद्दों की पड़ताल की.

नब्बे के दशक में उन्होंने भारतीय सिनेमा के तमाम पक्षों पर गहराई से लिखना शुरू किया. उनकी रुचि उस सामाजिक-राजनीतिक संदर्भ को समझने व विश्लेषित करने में थी, जिसमें लोकप्रिय भारतीय सिनेमा का निर्माण हो रहा था. साथ ही, उन सामाजिक दशाओं का अध्ययन, जिनमें लोकप्रिय सिनेमा का दर्शक इन फ़िल्मों को देख और आत्मसात कर रहा था.

इसी क्रम में उन्होंने ‘मुस्लिम सोशल’ कही जाने वाली फ़िल्मों के विश्लेषण के ज़रिये सिनेमा में मुस्लिम समाज व परिवार और विशेष रूप से मुस्लिम महिलाओं के प्रस्तुतिकरण, उनसे जुड़ी रूढ़ियों और पूर्वाग्रहों के निर्माण की प्रक्रिया को रेखांकित किया. उनका यह लेख राजनीतिविज्ञानी ज़ोया हसन द्वारा संपादित पुस्तक ‘फ़ॉर्जिंग आइडेंटिटीज’ (1994) में प्रकाशित हुआ.

फ़रीद काज़मी का निष्कर्ष था कि इन ‘मुस्लिम सोशल’ फ़िल्मों में मुस्लिम महिलाओं की प्रस्तुति में एक विरोधाभास दिखाई पड़ता है. सतह पर तो इन महिला किरदारों को सक्रिय, आक्रामक और शक्तिशाली दिखाया जाता है, किंतु उन फ़िल्मों की संरचना की गहराई में उतरने पर पाते हैं कि इनमें मुस्लिम महिलाओं की बुनियादी समस्याओं को दरकिनार करते हुए उन्हें प्रभुत्वशाली लैंगिक विमर्श में समाहित कर लिया जाता है. इस तरह ये फ़िल्में उन महिलाओं को लैंगिक विषमता, सामाजिक असमानता और यथास्थिति को चुनौती देते हुए दिखाने की बजाय उसे मज़बूत करता हुआ दिखाती हैं.

फ़रीद काज़मी के अनुसार, फ़िल्मों में व्याप्त इस प्रभुत्वशाली लैंगिक विमर्श के प्रतिरोध में नारीवादी विमर्श फ़िल्मों में तभी खड़ा हो सकेगा, जब वे फ़िल्में मुस्लिम महिलाओं के जीवनानुभवों पर आधारित होंगी. इस लेख में फ़रीद काज़मी ने मुग़ल-ए-आज़म, मेरे महबूब, पालकी, पाकीज़ा, निकाह, बाज़ार, उमराव जान और तवायफ़ जैसी फ़िल्मों का विश्लेषण किया था.

उनका यह भी मानना था कि जहां एक ओर इन फ़िल्मों में मुस्लिम अस्मिता को बहुसंख्यकों के नज़रिये से रचा गया था, वहीं दूसरी ओर मुस्लिम समुदाय की आंतरिक विविधता और भिन्नता की उपेक्षा कर उसे इकहरा और समरूप दिखाने का प्रयास भी इन फ़िल्मों में किया जा रहा था.

अपने एक अन्य महत्वपूर्ण लेख में फ़रीद काज़मी ने बॉलीवुड की फ़िल्मों में सत्तर-अस्सी के दशक में नायक को ‘एंग्री यंग मैन’ के रूप में प्रस्तुत करने की परिघटना और उसके निहितार्थों को विश्लेषित किया. उनका यह लेख आशीष नंदी द्वारा संपादित पुस्तक ‘द सीक्रेट पॉलिटिक्स ऑफ अवर डिज़ायर्स’ (1998) में छपा था.

इस लेख में उन्होंने ज़ंजीर, दीवार, शोले, अंधा क़ानून, मेरी आवाज़ सुनो, आज की आवाज़, शराबी, इंक़लाब, त्रिशूल, क़र्ज़, अमर अकबर एंथनी, मुक़द्दर का सिकंदर, लावारिस, नमक हलाल, कुली, मर्द और प्रतिघात जैसी फ़िल्मों का विश्लेषण किया. काज़मी के अनुसार, ये फ़िल्में सामाजिक यथार्थ को इकहरा/एकांगी बनाकर प्रस्तुत करती हैं और सामाजिक अंतर्विरोधों और तनावों को या तो सिरे-से अनदेखा कर देती हैं या फिर उन्हें न के बराबर दर्शाती हैं.

फ़रीद काज़मी इन फ़िल्मों को सत्तर और अस्सी के दशक में भारतीय राजनीति में बढ़ते हुए लोकलुभावनवाद/लोकप्रियतावाद (पॉपुलिज़्म) की परिघटना से भी जोड़कर देखते हैं.

लोकप्रिय सिनेमा के विश्लेषण के लिए फ़्रेमवर्क की तलाश करते हुए फ़रीद काज़मी ने वर्ष 1999 में प्रकाशित हुई अपनी चर्चित किताब ‘द पॉलिटिक्स ऑफ इंडियाज़ कन्वेंशनल सिनेमा’ में सिनेमा अध्ययन की एक नई सैद्धांतिकी विकसित करने का प्रयास किया. लोकप्रिय फ़िल्मों में अभिव्यक्त होने वाली प्रतिरोध, विद्रोह और व्यक्ति से जुड़ी धारणाओं को भी उन्होंने अपने विश्लेषण के दायरे में लाया.

उनके अनुसार, लोकप्रिय सिनेमा को गंभीरता से समझने के लिए सबसे पहली शर्त यह है कि हम उसकी बहुआयामी संरचना को स्वीकार करें. लोकप्रिय सिनेमा को उन्होंने विचारधारा से परिपूर्ण राजनीतिक सिनेमा के तौर पर देखा, जो सामाजिक यथार्थ का कच्चे माल के रूप में इस्तेमाल करता है और इसे खास ढंग से प्रस्तुत करता है.

फ़रीद काज़मी का कहना था कि लोकप्रिय सिनेमा सबाल्टर्न वर्ग की संस्कृति और उसकी विश्व-दृष्टि को ख़ुद में जज़्ब कर लेने की अपनी योग्यता के ज़रिये शासकवर्ग के प्रभुत्व को स्थापित करता है. ऐसा करते हुए लोकप्रिय सिनेमा सबाल्टर्न वर्ग के विश्वास और उनके दृष्टिकोण को इस तरह से रूपांतरित कर देता है कि वर्तमान व्यवस्था को उनसे मिल सकने वाली किसी भी चुनौती का संभावित ख़तरा टल जाए. इसके लिए वह अक्सर आज़माई हुई सिनेमाई तकनीकों, आख्यानों और उपयुक्त पात्रों के चयन जैसी युक्तियों का इस्तेमाल करता है. दर्शक ऐसी फ़िल्मों से ख़ुद को जोड़कर देख सकें, इसलिए उन फ़िल्मों में अन्याय, शोषण और पीड़ा के कुछ आख्यान भी समाहित कर लिए जाते हैं, जो शोषित और पीड़ित वर्ग के दर्शकों को क्षणिक रूप से मनोवैज्ञानिक और भावनात्मक संतुष्टि प्रदान करने का काम करते हैं.

ऐसी फ़िल्मों के उलट फ़रीद काज़मी ने कहा कि सच्चे अर्थों में लोकप्रिय सिनेमा वह होगा, जो फंतासी या पलायनवाद की जगह सामाजिक यथार्थ का इस्तेमाल करे और सबाल्टर्न वर्ग के दृष्टिकोण से उसे प्रस्तुत करे. जो ज्वलंत सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों और समकालीन समाज में उपस्थित तनावों और अंतर्विरोधों से मुंह न मोड़े, जो महज़ सबाल्टर्न वर्ग की समस्याओं को दिखाने तक ही महदूद न रहे बल्कि उन साधनों और रास्तों को भी दिखाए, जिनसे उन समस्याओं का समाधान हो सके.

अपनी एक अन्य पुस्तक ‘सेक्स इन सिनेमा’ में फ़रीद काज़मी ने भारतीय फ़िल्मों में सेक्सुअलिटी और जेंडर संबंधों की प्रस्तुति और उनकी रचना में अहम भूमिका निभाने वाले सामाजिक-राजनीतिक संदर्भों की पड़ताल की. इसके लिए उन्होंने ‘प्यासा’ से लेकर ‘सलाम नमस्ते’ जैसी फ़िल्मों को बतौर स्रोत इस्तेमाल किया.

अभी पिछले ही वर्ष उनकी एक और महत्वपूर्ण पुस्तक प्रकाशित हुई, जिसका शीर्षक है- ‘लग जा गले: इंडियाज़ कन्वेंशनल सिनेमाज़ ट्रिस्ट विद हिटलर’, जिसमें उन्होंने हिटलर के विचारों, फ़ासीवाद की धारणा और लोकप्रिय भारतीय सिनेमा की वैचारिक साम्यता को इंगित किया है. हालिया दौर में भारतीय परिदृश्य को ध्यान में रखें तो उनकी यह किताब और भी प्रासंगिक हो उठती है.

बतौर शिक्षक

प्रो. फरीद काजमी वैसे तो मुख्यतः पाश्चात्य राजनीतिक चिंतन और समकालीन राजनीतिक चिंतन अपनी कक्षाओं में पढ़ाते रहे, मगर चार दशक लंबे अपने अध्यापकीय जीवन के अंतिम आठ वर्षों में उन्होंने राजनीति, संस्कृति और मास मीडिया के अंतरसंबंधों पर केंद्रित एक प्रश्नपत्र इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के राजनीति विज्ञान के परास्नातक के पाठ्यक्रम में शामिल किया.

इस पेपर का शीर्षक ही था ‘पॉलिटिक्स, कल्चर एंड मास मीडिया: विद स्पेशल फोकस ऑन इंडियन सिनेमा.’ दो सेमेस्टर में विभाजित उक्त पेपर के पहले हिस्से में सिनेमा की सैद्धांतिकी और दूसरे हिस्से में फिल्मों की स्क्रीनिंग और डिस्कशन प्रमुखता से शामिल थे.

जहां एक ओर फ़रीद काज़मी सिनेमा पर केंद्रित अपनी कृतियों से लोकप्रिय सिनेमा की सैद्धांतिकी गढ़ते रहे, वहीं बतौर शिक्षक वे अपनी कक्षाओं में और कक्षा के बाहर भी छात्रों से रूबरू होकर उनके मन में सिनेमा को गहराई से समझने, उसकी जटिलताओं को विश्लेषित करने और सामाजिक-राजनीतिक संदर्भों में रखकर सिनेमा को देखने का हुनर विकसित करते रहे. उन्हें सलाम!

(शुभनीत कौशिक सतीश चंद्र कॉलेज, बलिया में पढ़ाते हैं. अंकित पाठक सीएसएन पीजी कॉलेज, हरदोई में राजनीति विज्ञान के शिक्षक हैं.)