मई 2022 में राजद्रोह क़ानून पर रोक लगाने के बाद सुप्रीम कोर्ट औपनिवेशिक काल के दंडात्मक क़ानून को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर बुधवार को सुनवाई करने वाला है. भारतीय दंड संहिता की धारा 124ए (राजद्रोह) के तहत अधिकतम सजा उम्रक़ैद है.
नई दिल्ली: राजद्रोह कानून पर रोक लगाने के करीब सात महीने बाद सुप्रीम कोर्ट औपनिवेशिक काल के इस दंडात्मक कानून को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर बुधवार (11 जनवरी) को सुनवाई करने वाला है.
शीर्ष अदालत ने 11 मई 2022 को एक अभूतपूर्व आदेश के तहत देश भर में राजद्रोह के मामलों में सभी कार्यवाहियों पर तब तक के लिए रोक लगा दी थी, जब तक कोई ‘उचित’ सरकारी मंच इसका पुन: परीक्षण नहीं कर लेता.
शीर्ष अदालत ने केंद्र एवं राज्य सरकारों को आजादी के पहले के इस कानून के तहत कोई नई एफआईआर दर्ज नहीं करने के निर्देश भी दिए थे.
न्यायालय ने यह भी निर्देश दिया था कि देश भर में चल रही जांच, लंबित मुकदमे और राजद्रोह कानून के तहत सभी कार्यवाही को रोक दिया जाए और राजद्रोह के आरोप में जेल में बंद लोग जमानत के लिए अदालत जा सकते हैं.
प्रधान न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ और जस्टिस पीएस नरसिम्हा की पीठ ने कानून के खिलाफ एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया द्वारा दायर याचिका सहित 12 याचिकाओं पर सुनवाई के लिए सूचीबद्ध किया है.
भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 124ए (राजद्रोह) के तहत अधिकतम सजा उम्रकैद का प्रावधान है. इसे देश की स्वतंत्रता के 57 साल पहले तथा आईपीसी बनने के लगभग 30 साल बाद 1890 में इसे दंड संहिता में शामिल किया गया था. आजादी से पहले के कालखंड में बाल गंगाधर तिलक और महात्मा गांधी जैसे स्वतंत्रता सेनानियों के खिलाफ इस प्रावधान का इस्तेमाल किया किया जा चुका है.
तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश (सीजेआई) एनवी रमना के नेतृत्व वाली पीठ ने आदेश दिया था कि एफआईआर दर्ज कराने के अलावा देशभर में राजद्रोह संबंधी कानून के तहत चल रहीं जांचों, लंबित मुकदमों और सभी कार्यवाहियों पर भी रोक रहेगी.
पीठ ने कहा था, ‘आईपीसी की धारा 124ए (राजद्रोह) की कठोरता मौजूदा सामाजिक परिवेश के अनुरूप नहीं है.’
उसने कहा था, ‘हम अपेक्षा करते हैं कि इस प्रावधान का पुन: परीक्षण पूरा होने तक सरकारों द्वारा कानून के उक्त प्रावधान का उपयोग जारी नहीं रखना उचित होगा.’
शीर्ष अदालत ने कहा था कि किसी प्रभावित पक्ष को संबंधित अदालतों में जाने की स्वतंत्रता है और अदालतों से अनुरोध है कि मौजूदा आदेश पर विचार करते हुए राहत की अर्जियों पर विचार करें.
उसने कहा था, ‘आईपीसी की धारा 124ए के तहत तय आरोपों के संबंध में सभी लंबित मुकदमों, अपीलों और कार्यवाहियों पर रोक रहेगी. अन्य धाराओं के संबंध में निर्णय लिया जा सकता है, यदि अदालतों की राय है कि आरोपी के साथ पक्षपात नहीं होगा.’
पुलिस अधीक्षक (एसपी) रैंक के अधिकारी को राजद्रोह के आरोप में दर्ज एफआईआर की निगरानी करने की जिम्मेदारी देने के केंद्र के सुझाव पर पीठ सहमत नहीं हुई.
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों के अनुसार, देश में 2015 से 2020 के बीच राजद्रोह के 356 मामले दर्ज किए गए और 548 लोगों को गिरफ्तार किया गया. हालांकि, छह साल की इस अवधि में राजद्रोह के सात मामलों में गिरफ्तार केवल 12 लोगों को दोषी करार दिया गया.
शीर्ष अदालत ने 1962 में राजद्रोह कानून की वैधता को बरकरार रखा था और इसका दायरा सीमित करने का प्रयास किया था, ताकि इसका दुरुपयोग नहीं हो.
उल्लेखनीय है कि अदालत के आदेश से पहले मई 2022 में केंद्र की मोदी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में राजद्रोह से संबंधित दंडात्मक कानून (आईपीसी की धारा 124ए) और इसकी वैधता बरकरार रखने के संविधान पीठ के 1962 के एक निर्णय का बचाव किया था.
केंद्र का कहना था कि लगभग छह दशकों से यह कानून बना हुआ है और इसके दुरुपयोग के उदाहरण कभी भी इसके पुनर्विचार का कारण नहीं हो सकते हैं.
राजद्रोह कानून उन आरोपों के बीच विवाद के केंद्र में रहा है, जिसमें कहा गया है कि विभिन्न सरकारों द्वारा राजनीतिक दुश्मनी निपटाने के लिए इसका हथियार की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है.
इन आरोपों ने तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश (सीजेआई) को यह पूछने के लिए प्रेरित किया था कि क्या स्वतंत्रता सेनानियों को दबाने के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले इस औपनिवेशिक युग के कानून की आजादी के 75 साल बाद भी जरूरत है.
गौरतलब है कि हाल के वर्षों में कई अदालतों ने इस कठोर कानून की आलोचना की है तथा कुछ मामलों में तो याचिकाकर्ताओं को दंडित भी किया, जिन्होंने इसके प्रावधानों को लागू करने का अनुरोध किया था.
राजद्रोह संबंधी दंडात्मक कानून के भारी दुरुपयोग से चिंतित शीर्ष अदालत ने जुलाई 2021 में केंद्र से पूछा था कि वह स्वतंत्रता आंदोलन को दबाने और महात्मा गांधी जैसे लोगों को चुप कराने के लिए अंग्रेजों द्वारा इस्तेमाल किए गए प्रावधान को निरस्त क्यों नहीं कर रही है.
तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश एनवी रमना की अगुवाई वाली पीठ ने कहा था कि उसकी मुख्य चिंता ‘कानून का दुरुपयोग’ है और उसने पुराने कानूनों को निरस्त कर रहे केंद्र से सवाल किया कि वह इस प्रावधान को समाप्त क्यों नहीं कर रहा है. कोर्ट ने कहा था कि राजद्रोह कानून का मकसद स्वतंत्रता संग्राम को दबाना था, जिसका इस्तेमाल अंग्रेजों ने महात्मा गांधी और अन्य को चुप कराने के लिए किया था.
(समाचार एजेंसी भाषा से इनपुट के साथ)