सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस एसए नज़ीर के विदाई समारोह में सुप्रीम कोर्ट बार काउंसिल के अध्यक्ष ने उनकी प्रशंसा करते हुए कहा कि वे धर्मनिरपेक्ष हैं. उनकी नज़र में जस्टिस नज़ीर में धर्मनिरपेक्षता इसलिए थी कि शीर्ष अदालत के बाबरी मस्जिद विवाद में निर्णय देने वाली पीठ में वे एकमात्र मुस्लिम सदस्य थे पर उन्होंने मंदिर बनाने के लिए मस्जिद की ज़मीन को मस्जिद तोड़ने वालों के ही सुपुर्द करने वाले फ़ैसले पर दस्तख़त किए.
सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश सैय्यद अब्दुल नज़ीर की विदाई समारोह पर भारत के मुख्य न्यायाधीश और सर्वोच्च न्यायालय की बार काउंसिल के अध्यक्ष ने उनकी प्रशंसा में जो कुछ कहा, उसे सुनते हुए असग़र अली इंजीनियर याद आ गए.
यह आज से 40 साल पहले की बात है. पटने में हम उनके उस निबंध पर चर्चा करते थे जिसमें उन्होंने समझाया था कि किस प्रकार सांप्रदायिकता बहुत ही बारीक तरीक़े से हमारे दिमाग़ में रहती है. जब हम अपने शब्दों, अभिव्यक्तियों, प्रतिक्रियाओं पर गौर करते हैं तब जान पड़ता है कि उनमें या तो स्पष्ट रूप से सांप्रदायिकता है या बहुत प्रच्छन्न रूप में, जिसके प्रति हम सचेत भी नहीं रहते.
तब से अब तक भारत की सड़कों पर काफ़ी खून बह चुका है. बारीक की जगह और निर्लज्ज सांप्रदायिकता का युग है, जिसे आप स्पष्टता के लिए बहुसंख्यकवाद कह सकते हैं.
मीडिया में सुप्रीम कोर्ट बार काउंसिल के प्रमुख विकास सिंह के वक्तव्य को प्रमुखता दी गई. उन्होंने न्यायाधीश नज़ीर की प्रशंसा का कारण बतलाया कि वे धर्मनिरपेक्ष हैं. इससे किंचित् आश्चर्यमिश्रित प्रसन्नता हुई कि भारत में धर्मनिरपेक्ष होना आज भी एक गुण बना हुआ है जिसके लिए आपकी प्रशंसा की जा सकती है. वरना हम तो माने बैठे थे कि 2019 के बाद यह शब्द सार्वजनिक चर्चा के बाहर कर दिया गया है.
आख़िरकार 2019 के लोकसभा चुनाव में अभूतपूर्व विजय के बाद प्रधानमंत्री ने कहा ही था कि उन्होंने यह यह सुनिश्चित किया कि कोई भी धर्मनिरपेक्षता शब्द का उच्चारण न कर पाए. वे जिनके शिष्य थे, उन लालकृष्ण आडवाणी ने धर्मनिरपेक्षता शब्द को बदनाम किया जब उन्होंने धर्मनिरपेक्ष की जगह छद्म धर्मनिरपेक्ष शब्द चलाना शुरू किया. कहना होगा कि ढेर सारे शिक्षितों को भी यह पसंद आया.
इस सबके बाद भी अगर किसी की तारीफ़ उसे धर्मनिरपेक्ष कहकर की जा रही हो (और वह भी स्वघोषित बदनाम धर्मनिरपेक्ष लोगों के द्वारा नहीं, जिनका सरकारी नाम आजकल अर्बन नक्सल हो गया है) तो मानना चाहिए कि इस शब्द में कुछ दम तो है!
बहरहाल! विकास सिंह जी ने न्यायमूर्ति नज़ीर में धर्मनिरपेक्षता इसलिए पाई कि 2019 के सर्वोच्च न्यायालय के अयोध्या फ़ैसला देने वाली पीठ के वे एकमात्र मुसलमान सदस्य थे लेकिन उन्होंने मस्जिद की ज़मीन राम मंदिर बनाने के लिए उसे मस्जिद तोड़ने वालों के ही सुपुर्द करने वाले फ़ैसले पर दस्तखत किए.
इसमें यह स्वीकृति छिपी हुई है कि स्वाभाविक तौर पर न्यायाधीश नज़ीर को मस्जिद की ज़मीन मंदिर निर्माण के लिए देने वाले फ़ैसले के ख़िलाफ़ जाना चाहिए था क्योंकि वे मुसलमान हैं. तो क्या इसके मायने यह हैं कि, जैसा ख़ुद विकास सिंह ने कहा, बाक़ी न्यायाधीशों के लिए मस्जिद की ज़मीन मंदिर निर्माण के लिए देने का निर्णय स्वाभाविक था लेकिन ठीक उल्टे कारण से?
न्यायमूर्ति नज़ीर ने अपने नाम के बावजूद इस निर्णय पर हस्ताक्षर करके अपनी धर्मनिरपेक्षता का प्रमाण दिया! बाक़ी न्यायाधीशों को क्या कहेंगे? क्या उन्हें अपनी धर्मनिरपेक्षता साबित ही नहीं करनी थी क्योंकि हिंदू होने के कारण स्वाभाविक या प्राकृतिक रूप से धर्मनिरपेक्ष हैं?
क्यों न्यायाधीश नज़ीर की प्रशंसा में कोहिनूर है अयोध्या फ़ैसले में उनकी भूमिका? इस बात को ज़रा खुले और फूहड़ तरीक़े से कहकर विकास सिंह ने साबित किया कि अभिजन का भी सड़कीकरण हो चुका है और वे इसे लेकर संकुचित नहीं हैं. फिर भी पुराना अभिजात्य कहीं तो बचा हुआ है और वह न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ के वक्तव्य में प्रकट हुआ.
अगर विकास सिंह मुख्य न्यायाधीश जैसे परिष्कृत होते तो वह बोलते जो न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने कहा. उनके लिए भी अयोध्या निर्णय में न्यायाधीश नज़ीर की भूमिका स्मरणीय है. उन्होंने कहा कि अयोध्या मामले वाली पीठ में साथ बैठने पर उन्हें एहसास हुआ कि न्यायाधीश नज़ीर ‘स्टेट्समैन’ हैं.
‘स्टेट्समैन’ पक्षों से ऊपर, सर्वमान्य व्यक्ति हुआ करता है. वह मतैक्य स्थापित करने की कोशिश करता है. यह आम समझ ‘ स्टेट्समैन’ की है हालांकि त्रुटिपूर्ण है. ‘स्टेट्समैन’ वह ज़रूर है जो पक्षपात करता नहीं दिखता, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि वह न्याय का पक्ष भी नहीं लेता. वह बहुमत को प्रसन्न करने की कोशिश नहीं करता जैसा आम राजनेता या बुद्धिजीवी करते हैं.
अयोध्या के सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के बारे में भारत और भारत के बाहर के न्यायविदों की स्पष्ट राय है कि सर्वोच्च न्यायालय के पांच सदस्यीय पीठ ने एकमत से अन्याय किया. न्यायाधीश नज़ीर इस अन्याय में शामिल थे. यह कहा जा सकता है कि न्यायाधीश के रूप में उनके जीवन में यह फ़ैसला हमेशा एक धब्बे की तरह ही रहेगा. शायद वे अपने परिवार, मित्रों के बीच कभी याद न करना चाहें.
न्यायाधीश नज़ीर ने बाक़ी बंधु न्यायाधीशों के साथ मिलकर यह कहा कि यह साबित हो चुका है कि बाबरी मस्जिद तक़रीबन 500 साल से अधिक से अस्तित्व में थी, वह ज़िंदा मस्जिद थी यानी दिसंबर, 1949 तक वहां नमाज़ पढ़ी जाती थी, इसका कोई प्रमाण नहीं है कि वह किसी मंदिर को ध्वस्त करके बनाई गई थी, 22-23 दिसंबर, 1949 की रात बाबरी मस्जिद में चोरी-चोरी हिंदू देवी देवताओं की मूर्तियां रख दी गईं जो कि एक जुर्म था,6 दिसंबर , 1992 को उसे ध्वस्त कर दिया गया और वह अपराध था.
यह सब कुछ कहने के बाद न्यायमूर्तियों ने जो निर्णय किया वह मानो यह कह रहा था कि तथ्य तो मस्जिद के पक्ष में हैं लेकिन चूंकि हिंदुओं का दिल इस भूमि पर आ गया है, बाबरी मस्जिद की ज़मीन राम मंदिर बनाने के लिए दे देनी चाहिए.
यह स्पष्ट तौर पर एक बहुसंख्यकवादी फ़ैसला था. यह ‘हिंदुओं’ की भावनाओं को तुष्ट करने के लिए और एक लंबे विवाद पर पानी डालने के ‘महान’ उद्देश्य से परिचालित था. ऐसा करके सर्वोच्च न्यायालय ने न्यायिक भीरुता का परिचय दिया जिसे ‘स्टेट्समैन’ का गुण तो नहीं ही कहा जाएगा. यह भीरुता इससे और प्रकट हो गई कि फ़ैसले पर लिखने वाले का नाम नहीं था.
न्यायाधीश नज़ीर इसके भागीदार थे. पीठ में उनकी मौजूदगी और फ़ैसले पर उनकी सही उसे बहुसंख्यकवाद के आरोप से मुक्त करने के लिए बहुत ज़रूरी थी. विकास सिंह और मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ द्वारा इस मामले में उनकी भूमिका की विशेष चर्चा से यह साफ़ हो जाता है कि कहीं न कहीं इसे लेकर एक अपराधबोध है जिससे मुक्ति की कोशिश इस प्रकार की जाती है.
यह भी कि बाबरी मस्जिद एक भूत की तरह सर्वोच्च न्यायालय पर मंडराती रहेगी. और न्यायाधीश नज़ीर या चंद्रचूड़ शेक्सपीयर के पात्रों की तरह ही बार-बार हाथ धोते रहेंगे.
भारत में मुसलमान या ईसाई के धर्मनिरपेक्ष होने की शर्त है कि वह बहुसंख्यकवादी आग्रहों को स्वीकार कर ले. उसके स्टेट्समैन होने की शर्त भी यही है. लेकिन इसके आगे न्यायाधीश चंद्रचूड़ ने इसका भी विशेष उल्लेख किया कि विविधता के प्रति न्यायाधीश नज़ीर के आग्रह का प्रमाण यह है कि उन्होंने संस्कृत सीखी.
इसे पढ़कर मुझे अरसा पहले असग़र अली इंजीनियर की बारीक सांप्रदायिकता की अवधारणा की याद आई. कुछ दिन पहले यह जानने के लिए कि मेरी शोध छात्रा की रिपोर्ट आ गई है या नहीं, मैंने संबंधित अधिकारी को फोन किया. छात्रा का नाम सुनकर उन्होंने फिर दो बार नाम पूछा और मुझसे पूछा कि आप हिंदी विभाग से ही बोल रहे हैं न!
क्यों मुसलमान का हिंदी या संस्कृत पढ़ना अपवाद है या घटना? क्यों वह इतनी अस्वाभाविक बात है कि उसका विशेष उल्लेख आवश्यक हो? यह प्रश्न न्यायाधीश नज़ीर की प्रशंसा सुनते हुए मेरे मन में आया. लेकिन मुझे नहीं मालूम कि विकास सिंह और न्यायाधीश चंद्रचूड़ कभी सोच पाएंगे कि उन्होंने न्यायाधीश नज़ीर को जिस कारण धर्मनिरपेक्ष या स्टेट्समैन बतलाया वह वास्तव में उनकी कीर्ति को उज्ज्वल नहीं, धूमिल करता है.
यह भी कि उन्होंने जो कहा उससे न्यायाधीश नज़ीर के बारे में जो मालूम हुआ उससे ज़्यादा ख़ुद उन दोनों के बारे में.
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)