‘मित्रो मरजानी’ के बाद सोबती पर पाठक फ़िदा हो उठे थे. ये इसलिए नहीं हुआ कि वे साहित्य और देह के वर्जित प्रदेश की यात्रा पर निकल पड़ी थीं. ऐसा हुआ क्योंकि उनकी महिलाएं समाज में तो थीं, लेकिन उनका ज़िक्र करने से लोग डरते थे.
(यह लेख पहली बार 5 नवंबर 2017 को प्रकाशित हुआ था.)
यह एक सुंदर खबर है कि भारतीय भाषाओं के साहित्य में योगदान के लिए दिया जाने वाला देश का सर्वोच्च साहित्यिक सम्मान ज्ञानपीठ पुरस्कार वयोवृद्ध कथाकार कृष्णा सोबती को दिए जाने की घोषणा की गयी है. पिछले एक दशक से वे इस सम्मान की हकदार मानी जा रही थीं. इस बार जब उनके नाम की घोषणा हुई तो महसूस हुआ कि ज्ञानपीठ ने अपनी भूल सुधार ली है.
ध्यातव्य है कि नामवर सिंह की अध्यक्षता वाली जूरी ने उन्हें 53वां ज्ञानपीठ पुरस्कार देने का निर्णय लिया है. यह पुरस्कार साहित्य के क्षेत्र में उनके उत्कृष्ट कार्य के लिए प्रदान किया जाएगा. पहले ज्ञानपीठ पुरस्कार किसी रचना विशेष के लिए दिया जाता था, लेकिन हाल के वर्षों में इसे रचनाकार के पूरे लेखकीय अवदान के लिए दिया जाने लगा है. इस प्रकार यह एक जीवन को सम्मानित करने जैसा है जिसके बीच में रहते हुए कोई रचनाकार कुछ सिरजता है.
कई साहित्यिक पुरस्कारों से नवाजी जा चुकी कृष्णा सोबती को हिंदी कथा साहित्य की मजबूत स्वर रही हैं. वे हमेशा अपने कथा शिल्प में नए-नए चरित्रों को गढ़ने में उस्ताद कारीगर रही हैं.
उनके हर उपन्यास या कहानी का चरित्र अपने पिछले चरित्र से आगे निकल जाता है. जिन्होंने उनके उपन्यास ‘सूरजमुखी अंधेरे के’ को पढ़ा है वे जानते हैं कि ‘सूरजमुखी अंधेरे के’ और ‘ऐ लड़की’ की लड़कियों के चरित्र किस प्रकार से एक दूसरे से जुदा हैं.
कृष्णा सोबती के उपन्यास काफी चर्चा में रहे हैं. अपनी आंतरिक बुनावट और संदेश के लिए ‘सूरजमुखी अंधेरे के’ (1972 ) और ज़िंदगीनामा (1979) हिंदी कथा साहित्य में मील का पत्थर माने जा सकते हैं.
‘सूरजमुखी अंधेरे के’ में अलगाव से जूझती एक ऐसी महिला की कहानी है जिसने अपने जीवन के उत्तरार्ध में वह चुना जिसे उसे बहुत पहले चुन लेना चाहिए. ज़िंदगीनामा का वितान बड़ा है जिसमें पंजाब के समाज का रोजमर्रापन और उसके बीच अपने लिए गुंजाइशें निकालते इंसानों की टूटी-बिखरी गाथाएं हैं.
पाठकों की कथाकार
उनकी लंबी कहानी ‘मित्रो मरजानी’ के प्रकाशन के साथ कृष्णा सोबती पर हिंदी कथा-साहित्य के पाठक फ़िदा हो उठे थे. ऐसा इसलिए नहीं हुआ था कि वे साहित्य और देह के वर्जित प्रदेश की यात्रा की ओर निकल पड़ी थीं बल्कि उनकी महिलाएं ऐसी थीं जो कस्बों और शहरों में दिख तो रही थीं, लेकिन जिनका नाम लेने से लोग डरते थे.
यह मजबूत और प्यार करने वाली महिलाएं थीं जिनसे आज़ादी के बाद के भारत में एक खास किस्म की नेहरूवियन नैतिकता से घिरे पढ़े-लिखे लोगों को डर लगता था. कृष्णा सोबती का कथा साहित्य उन्हें इस भय से मुक्त कर रहा था.
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा में पढ़ाई कर रहे अंकेश मद्धेशिया कहते हैं, ‘उन की नायिकाएं अपने प्रेम और अपने शरीर की जरूरतों के प्रति किसी भी तरह के संकोच या अपराधबोध में पड़ने वाली नहीं थीं. आज तो यौन जीवन के अनुभवों पर बहुत सी कहानियां लिखी जा रही हैं पर आज से चार-पांच दशक पहले इस तरह का लेखन बहुत ही साहसिक कदम था.’
वास्तव में कथाकार अपने विषय और उससे बर्ताव में न केवल अपने आपको मुक्त करता है, बल्कि वह पाठकों की मुक्ति का भी कारण बनता है. उन्हें पढ़कर हिंदी का वह पाठक जिसने किसी हिंदी विभाग में पढ़ाई नहीं की थी लेकिन अपने चारों तरफ हो रहे बदलावों को समझना चाहता था.
वह चाहता था कि वह सब कुछ कह दे जो ‘बादलों के घेरे में’ कहानी का नैरेटर मन्नू से कहना चाहता था. अपने मन में बस रही एक समानांतर दुनिया से मुक्ति के लिए कृष्णा सोबती की कहानियां मन में धंस जाती थीं.
गांधी बाबा, हिंदी भाषा का साहित्य और कृष्णा सोबती के अनुभव
1920 के दशक से ही महात्मा गांधी एक व्यक्ति और विचार के रूप में भारतीय कथा साहित्य के परिदृश्य पर छाने लगे थे. मैथिलीशरण गुप्त, प्रेमचंद, निराला, सुमित्रानंदन पंत और नागार्जुन जैसे रचनाकार अपनी रचनाओं में गांधी के व्यक्तित्व और उनके विचार से दो-चार हो रहे थे.
आजादी के ठीक बाद आया फणीश्वरनाथ रेणु का उपन्यास मैला आंचल उस ठगी को उजागर कर रहा था जो उस दौर के भारत में गांधी की हत्या के बाद की जा रही थी. ‘झूठा सच’ उपन्यास में यशपाल, ‘तमस’ में भीष्म साहनी और राही मासूम रज़ा ‘आधा गांव’ में पाकिस्तान के सवाल और उससे उपजी हिंसा को उत्तर भारतीय पाठकों के विमर्श में ले आए थे.
यह एक ऐसा वर्ग था जो सार्वजानिक दायरों में गांधी की प्रशंसा करता था और भाई-बंधुओं और गोतियों के साथ उग्र राष्ट्रवादी हो उठता था. यह वर्ग आज भी है. कृष्णा सोबती ने हाल ही में एक अद्भुत उपन्यास ‘गुजरात पकिस्तान से गुजरात हिंदुस्तान’ लिखा है जिसमें उनके लंबे जीवन और उस जीवन की महात्मा गांधी से मुठभेड़ का वर्णन भी है.
यह उपन्यास जैसे उन घटनाओं को याद करना है जो भारत (और पाकिस्तान) की आजादी के दौरान के अंतिम दो-तीन वर्षों में घट रही थीं. दस अगस्त 1946 के ‘डायरेक्ट एक्शन डे’ के बाद मुसलमानों और हिंदुओं ने लाहौर से लेकर बिहार और बंगाल तक हिंसा की. दूसरे धर्म के लोगों की हत्या की, घर जलाए और उस धर्म विशेष की महिलाओं का बलात्कार किया.
महिलाओं की देह अलग-अलग देशों के पुरुषों की दंभ और तुच्छ वीरता का शिकार हो गयी. अगर कृष्णा सोबती की कहानी ‘और सिक्का बदल गया’ को उनके ‘गुजरात पकिस्तान से गुजरात हिंदुस्तान’ से मिलाकर एक साथ पढ़ा जाए तो समझ में आ जाता है कि भारतीय उपमहाद्वीप में स्त्री देह और मन पर क्या गुज़री है और उसे उस्ताद किस्सागो कृष्णा सोबती कैसे कहती हैं.
आजादी के बाद की धार्मिक और राजनीतिक जद्दोजहद को महात्मा गांधी का व्यक्तित्व सबसे ज्यादा व्यक्त कर रहा था. इस दौरान भारत और पकिस्तान स्वतंत्र ‘देश’ बनकर खुश नहीं थे, वे कुछ और हो जाना चाहते थे. गांधी इसमें रूकावट पैदा कर रहे थे. धर्मांध संवेदनाओं और तुच्छ राष्ट्रवाद से घबरा गए एक आदमी ने गांधी को गोली मार दी.
-साहिब बापू को गोली मार दी गई है.
-हाय रब्बा! अभी यह बाकी था. अंधेर साईं का- अरे किसने यह कुकर्म किया?
……
महात्मा गांधी को गोली मारने वाला न शरणार्थी था, न मुसलमान, वह हिंदू था. हिंदू
लानतें-लानतें- अरे हत्यारों लोग वैरियों, दुश्मनों और तुम पितृ हत्या करने चल पड़े!
भाषा और स्त्री मन
भारतीय कथा साहित्य में जिन स्त्री कथाकारों को स्त्री मन की गांठ खोल देने वाला कहा जा सकता है, उनमें असमिया की इंदिरा गोस्वामी और कृष्णा सोबती का नाम बड़े आदर से लिया जाता है.
अपने एक साक्षात्कार में इंदिरा गोस्वामी ने एक बार कहा भी था कि मैं अपने जीवन के प्राथमिक अनुभवों से लिखने की कोशिश करती हूं. मैं केवल इतना भर करती हूं कि उन्हें अपनी कल्पनाओं के सांचे में ढाल देती हूं.
इंदिरा गोस्वामी से लगभग 18 बरस पहले गुलाम भारत में जन्मीं कृष्णा सोबती के पास पंजाब, शिमला और दिल्ली की हजारों महिलाओं के साझा और व्यक्तिगत अनुभव हैं. यह अनुभव उन्हें इस महाद्वीप में विशिष्ट बनाते हैं.
स्त्रियों की मुक्ति की छटपटाहटों और घर की चहारदीवारी से बाहर चले जाने की फ़ितनागर हसरतें उनके कथा साहित्य में अनायास ही नहीं चली आती हैं बल्कि उसे उन्होंने एक पारदर्शी भाषा के द्वारा महिलाओं की कल्पना के सांचे में ढाल दिया है.
(रमाशंकर सिंह स्वतंत्र शोधकर्ता हैं.)