मध्य प्रदेशः मंडला ज़िले में प्रस्तावित बसनिया बांध के विरोध में क्यों हैं स्थानीय

मंडला ज़िले की घुघरी तहसील के ओढ़ारी गांव में नर्मदा नदी पर बसनिया बांध प्रस्तावित है. बांध के चलते मंडला और डिंडौरी ज़िले के लगभग 31 आदिवासी बाहुल्य गांव डूब क्षेत्र में आएंगे और 2,700 से अधिक परिवार विस्थापित होंगे. 

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बसनिया बांध के खिलाफ मंडला में हुआ प्रदर्शन. (फोटो साभार: फेसबुक/@Santosh Paraste)

मंडला ज़िले की घुघरी तहसील के ओढ़ारी गांव में नर्मदा नदी पर बसनिया बांध प्रस्तावित है. बांध के चलते मंडला और डिंडौरी ज़िले के लगभग 31 आदिवासी बाहुल्य गांव डूब क्षेत्र में आएंगे और 2,700 से अधिक परिवार विस्थापित होंगे.

बसनिया बांध के खिलाफ हुआ प्रदर्शन. (फोटो साभार: फेसबुक/@Santosh Paraste)

मंडला: मध्य प्रदेश के जबलपुर संभाग का मंडला और डिंडोरी जिला एक आदिवासी इलाका माना जाता है, जो पांचवी अनुसूची में आता है. मंडला और डिंडोरी के पास ही करीब 40 साल पहले नर्मदा नदी पर जल आपूर्ति के लिए बरगी बांध (नर्मदा नदी पर बनने वाले 30 प्रमुख बांधों की श्रृंखला में से एक) बनाया गया था,जिसमें हजारों लोग विस्थापित किए गए थे और ये विस्थापित तब से अब तक न्याय और अपने संवैधानिक मूल्यों को बनाए रखने की मांग करते आ रहे हैं.

ऐसी स्थिति में सूचना के अधिकार 2005 से प्राप्त जानकारी के अनुसार, अब मंडला में फिर से तीन बांध- बसनिया, रोसरा और राघवपुर प्रस्तावित किए गए हैं, लेकिन इन बांधों में आदिवासी समुदाय की जमीन, प्राकृतिक संसाधन और निजी संपत्ति डूब जाएगी इसलिए वे इसका विरोध कर रहे हैं.

आदिवासी समूहों को अपनी आजीविका (कृषि) के संकट का भी भय है. लोगों को एक खौफ यह भी है कि जिस तरह बरगी बांध विस्थापित परिवारों के आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक न्याय और संवैधानिक मूल्यों हनन हुआ, वैसी ही दशा उनकी न हो.

आरटीआई के अनुसार बसनिया और राघवपुर बांध में 79 गांव डूब क्षेत्र में आएंगे. वहीं इन दोनों बांधों के अंतर्गत कमांड क्षेत्र में 94 गांव आएंगे. जहां बसनिया बांध से 2,737 परिवार, 2,443 हेक्टेयर निजी भूमि, 1,793 हेक्टेयर सरकारी भूमि, 2,107 हेक्टेयर वन भूमि प्रभावित , वहीं राघवपुर बांध में 957 परिवार, 2,636 हेक्टेयर निजी भूमि, 1,952 हेक्टेयर सरकारी भूमि, 11.99 हेक्टेयर वन भूमि प्रभावित होगी.

बसनिया और राघवपुर बांध की अनुमानित लागत 3,700 करोड़ रुपये है. वहीं मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक, रोसरा बांध में 25 गांव, निजी भूमि 2,697 हेक्टेयर, वन भूमि 29 हेक्टेयर, शासकीय भूमि 1,293 हेक्टेयर प्रभावित होगी. बांध की कुल लागत 469.11 करोड़ रुपये है. मीडिया रिपोर्ट में यह भी दावा किया गया कि बांधों में 54 मेगावाट बिजली बनेगी और 20 हजार हेक्टेयर भूमि सिंचाई होगी.

इन तीन बांधों में अब तक सबसे ज्यादा विरोध बसानिया बांध को लेकर देखने मिला है. बसनिया बांध ग्राम ओढ़ारी, तहसील घुघरी, जिला मंडला में प्रस्तावित हुआ है, जहां का सार्वजनिक जीवन वनों से घिरा है और आबादी अनुमानत: 1,000 है.

घुघरी तहसील में आदिवासी समुदाय से आने वाले बारेह सिंह मराबी कहते हैं, ‘जब कोई बांध के विषय में बात करता है तब हम लोगों को बेचैनी होने लगती है. बांध बनने से हमारा जीवन अस्त-व्यस्त हो जाएगा. कोई व्यक्ति कहीं झुग्गी-झोपड़ी बना लेता है तो सरकार उसे नहीं उठाती, यहां तो हमारी सालों से बसाहट है! तब क्या इसका ध्यान नहीं दिया जाना चाहिए?’

एक अन्य रहवासी राजकुमारी मराबी कहती हैं, ‘अगर बांध बना तो हमारा घर-द्वार छूट जाएगा. हम कहां भटकेगें? जीवनयापन कहां करेगें? हमारी दशा यह होगी कि न हम जंगल में रह पाएंगे और न गांव में.’

ओढ़ारी गांव, जहां बसनिया बांध बनना है, की पूर्व सरपंच भानमति मराबी बांध बनने पर असहमति जाहिर करती हैं. वह कहती हैं, ‘बांध से न सिर्फ जन-धन की हानि हैं, बल्कि हमारा भविष्य भी बर्बाद हो जाएगा.’

ओढ़ारी गांव के पूर्व सरपंच लम्मू सिंह मराबी कहते हैं, ‘सरकार ने आदिवासी को जल, जंगल, जमीन का अधिकार दिया. ये भी कहा कि पेसा कानून के तहत बिना ग्राम सभा के कोई भी प्रस्ताव पारित नहीं होगा. तब बांध निर्माण बिना ग्राम सभा की सहमति के बिना नहीं होना चाहिए. अगर बांध बनाने में ग्राम सभा को नजरअंदाज किया जाता है. तब क्या संविधान के अनुच्छेद 14 में वर्णित विधि के समक्ष समता का उल्लंघन नहीं होगा?’

ओढ़ारी गांव के आदिवासी किसान. (फोटो: सतीश भारतीय)

आगे लम्मू सिंह कहते हैं, ‘हम सुनते आ रहे हैं जल, जंगल और जमीन आदिवासी के अधीन. इससे लगता है कि सरकार को आदिवासी की खबर है. लेकिन आदिवासी पर अत्याचार हो रहा है. अगर हमें जल,जंगल और जमीन का अधिकार है. तब हम दूसरे की जमीन पर थोड़े कब्जा करेगें. हम अपनी जमीन के लिए लड़ाई लड़ेगें. यहां बसनिया बांध बनेगा, तब हम कहां जाएंगे? किसकी जमीन को हमारी जमीन कहेंगें?’

एक अन्य रहवासी चित्तर सिंह मराबी का कहना था, ‘आजादी के बाद हमें सिर्फ विस्थापन ही मिला है. बरगी बांध बनने से मंडला के 90-95 गांव का (आदिवासी बेल्ट) पूरा खत्म हो गया. बसनिया बांध को बांधने से भी पूरा आदिवासी बेल्ट खत्म हो जाएगा. कई पीढ़ी बर्बाद हो जाएंगी.’

उन्होंने आगे कहा, ‘मंडला और डिंडौरी जिले के 31 गांव की बैठक हुई थी, जिसमें सभी ग्राम सभा द्वारा पेसा एक्ट के तहत बसनिया बांध को निरस्त करने की सहमति बनी है. इसके बाद सभी लोगों ने रैली निकालकर कलेक्टर को मुख्यमंत्री के नाम बांध निरस्त करवाने का ज्ञापन भी सौंपा है.

गौरतलब है कि बसनिया बांध को निरस्त कराने का यह ज्ञापन 27 दिसंबर 2022 को सौंपा गया था. इस में लिखा गया कि नर्मदा घाटी में प्रस्तावित बसनिया बांध का नर्मदा विकास विभाग और मुंबई की एफकॉन्स कंपनी के बीच 24 नवंबर 2022 को हुए अनुबंध की जानकारी मिलने के बारे में बताते हुए डूब क्षेत्र में आने वाली जमीन के बारे में बताया गया था.

यह भी बताया गया था कि बांध में 31 आदिवासी बाहुल्य गांव के 2,735 परिवार विस्थापित होगें, जिनकी आजीविका का एक मात्र साधन खेती है. ज्ञापन में यह उल्लेख भी है कि 3 मार्च 2016 को विधानसभा में एक सवाल के जबाव में लिखित कहा गया था कि 7 बांधों को नए भूअर्जन अधिनियम से लागत में वृद्धि होने, अधिक डूब क्षेत्र होने, डूब क्षेत्र में वन भूमि आने से असाध्य होने के कारण निरस्त किया जाता है जिसमें बसनिया बांध भी शामिल है.

ऐसा नहीं है कि बसनिया बांध निरस्त कराने के लिए यह पहला ज्ञापन है. इससे पहले भी ज्ञापन दिए गए. 23 फरवरी 2022 को भी बसनिया बांध की संक्षिप्त जानकारी और अपील का ज्ञापन कलेक्टर को सौंपा गया था.

ज्ञात हो कि बीते दिनों बसनिया बांध का विरोध इस स्तर पर पहुंच गया कि बांध की सर्वे टीम को ग्राम बिलगड़ा में बंधक बना लिया गया.

इस संबंध में चित्तर सिंह मराबी ने बताया, ‘सर्वे टीम ने बांध सर्वे करने का लिखित आदेश नहीं दिखाया. तब ऐसे में हमने उन्हेंं पकड़ा. जहां उन्हें पकड़ा गया वहां 5-6 गांव के करीब हजार लोग थे. हमने टीम से उनका अधिकारी बुलाने को कहा था, जिसके बाद नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण के प्राधिकारी और पुलिस प्रशासन और टीआई साहब आए. उन्होंने कहा कि इस पांचवी अनुसूची क्षेत्र में पेसा एक्ट लागू है इसलिए गांव की अनुमति के बिना कोई कार्य न किया जाए. बाद में सर्वे टीम को छोड़ा गया.’

बांध और विस्थापन के आंकड़े बताते हैं कि 1947 के बाद अकेले भारत में 4,300 बड़े बांधों ने 42 मिलियन से अधिक लोगों को विस्थापित किया. आदिवासी भारत की आबादी का लगभग 8 प्रतिशत है, लेकिन देश के विस्थापितों में वे 40 प्रतिशत से अधिक है.

बसनिया बांध के डूब क्षेत्र में आने वाले खेत. (फोटो: सतीश भारतीय)

बरगी बांध विस्थापित संघ के वरिष्ठ कार्यकर्ता राजकुमार इस विवाद पर कहते हैं, ‘देश भर में अभी तक 6 करोड़ आदिवासी विस्थापित हो चुके हैं. विस्थापितों का सरकार के पास कोई आंकड़ा नहीं हैं. जबकि प्रदेश के विकास के लिए आदिवासियों ने सर्वस्वन्योछावर किया. बदले में उन्हें त्रासदी, प्रताड़ना मिली. आदिवासियों के पास खेती के अलावा दूसरा कौशल नहीं. बरगी विस्थापन में कहा गया आदिवासी परिवार को 5 एकड़ जमीन और एक सदस्य को नौकरी दी जाएगी लेकिन नहीं मिली. सरकार आदिवासियों की रक्षा में फेल है. आदिवासियों का व्यवस्था से भरोसा उठ गया है.’

बसनिया बांध को निरस्त कराने के लिए केवल आम लोगों ने ही नहीं, बल्कि निवास विधानसभा से विधायक डॉक्टर अशोक मर्सकोले ने भी मुख्यमंत्री के नाम पत्र लिखा था.

अपने पत्र में उन्होंने कहा था, ‘मध्य प्रदेश में विद्युत उत्पादन की स्थापित क्षमता लगभग 22 हजार मेगावाट है. वार्षिक औसत मांग 11 हजार मेगावाट. रीवा में 750 मेगावाट का सौर उर्जा संयंत्र से उत्पादन शुरू हो चुका है. जबकि आगर, शाजापुर, नीमच, छतरपुर, ओंकारेश्वर और मुरैना में 5 हजार मेगावाट की सौर उर्जा परियोजनाएं निर्माणधीन है. इसलिए 100 मेगावाट जल विद्युत उत्पादन के लिए 2731.17 करोड़ रुपये खर्च करना, घने जंगलों की जैव विविधता डुबाकर खत्म करना और 31 गांव के 2,737 परिवारों को विस्थापित करना न्यायसंगत नहीं है.’

मर्सकोले कहते हैं, ‘मंडला और विस्थापन का पुराना संबंध है. पहले बरगी बांध विस्थापन हुआ था, जिसमें 95 गांव विस्थापित हुए थे. आलोन, कान्हा, पेंच और कई जगहों से बड़े स्तर पर विस्थापन हुआ. दुख यह भी है कि विस्थापन के बाद उन परिवारों की स्थितियां इतनी गंभीर है कि वह कहां हैं, कैसे हैं इस पर कोई अध्ययन भी नहीं हुआ. ‘

उन्होंने आगे कहा, ‘बरगी के बाद हम लोगों का एक अनुभव है कि किसी भी स्थिति में पलायन, विस्थापन तो नहीं करेगें. पहले बसनिया प्रोजेक्ट 19-20 मेगावाट बिजली और 12 हजार हेक्टेयर भूमि का था. बाद जब मैंने विधानसभा प्रश्न लगाए तब पता चला कि इसे बढ़ाकर 100 मेगवाट कर दिया और सिंचाई का रकबा कम हो गया.’

बसनिया बांध को लेकर अनुसूची पांच और संवैधानिक मूल्यों संबंधी सवालों पर उन्होंने कहा, ‘संवैधानिक मूल्य और अनुसूूची पांच के हिसाब तो सरकार आदिवासियों की जमीन को नहीं ले सकती है. वन संपदा अमूल्य धरोहर है, जिसे बचाना चाहिए. मंडला और डिंडौरी के 31 गांव  विस्थापित होगें पर अभी उसका टोपोग्राफिक सर्वे नहीं हुआ. सर्वे होने पर हो सकता है, गांवों की संख्या, रकबा आदि बढ़ जाए. इस बांध में 6,400 हेक्टेयर के आस-पास की जमीन डुबाकर 8000 हेक्टेयर की सिंचाई करेगें, यानी मात्र 2000 हेक्टेयर के लिए 31 गांव बर्बाद होंगे.सिर्फ बिजली के लिए हम आदिवासियों की जिंदगियों को बर्बाद किया जाए, हम कभी भी बर्दाश्त नहीं करेगें. इसके साथ ही रेट इतना कम मिलता है कि आदिवासी यहां अपनी जमीन खोकर दूसरी जगह जमीन नहीं ले सकता.’

गौरतलब है कि मंडला जिले में प्रस्तावित बसनिया, राघपुुर और रोसरा बांध बनाए जाने में यदि आदिवासी समुदाय की भूमि अधिग्रहित की जाती है और उन्हेंं विस्थापित किया जाता है तब नियम है कि पुर्नवास और पुनर्स्थापन अधिनियम, 2013 के तहत विस्थापित आदिवासी परिवार के सदस्य को नौकरी, ग्रामीण व्यक्ति को घर का अधिकार, प्रभावित परिवार को भूमि अनुदान, विस्थापित समूह को स्कूल, स्वास्थ्य केंद्र, श्मशान घाट, डाक जैसी अन्य सुविधाएं दी जाएं.

यदि सरकार विस्थापित आदिवासी परिवारों को यह सुविधाएं देने में असमर्थ होती है तब विस्थापित परिवारों के स्वतंत्रता, समानता, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक न्याय, व्यक्ति की गरिमा जैसे अन्य संवैधानिक मूल्यों पर संकट बरकरार रहेगा. ऐसे में संविधान की उस मूल भावना को भी ठेस पहुंचेगी, जिसका लक्ष्य संसाधनों की तंगी में जीते पंक्ति के अंतिम व्यक्ति को प्राथमिकता देना है और राष्ट्र के विकास को पंक्ति के अंतिम व्यक्ति के विकास से मापना है.

(सतीश भारतीय संविधान विकास संवाद परिषद में फेलो हैं.)