कॉलेजियम की सिफ़ारिशों पर केंद्र का फैसला न लेना लोकतंत्र के लिए घातक: पूर्व जज

सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जस्टिस रोहिंटन फली नरीमन ने क़ानून मंत्री किरेन रिजिजू की कॉलेजियम पर सार्वजनिक टिप्पणियों को निंदनीय बताते हुए कहा कि अदालत के फैसले स्वीकार करना उनका कर्तव्य है. उन्होंने जोड़ा कि अगर यह गढ़ (न्यायपालिका) भी गिर जाता है तो हम अंधकार युग के गर्त में चले जाएंगे.

सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश रोहिंटन फली नरीमन. (फोटो साभार: यूट्यूब)

सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जस्टिस रोहिंटन फली नरीमन ने क़ानून मंत्री किरेन रिजिजू की कॉलेजियम पर सार्वजनिक टिप्पणियों को निंदनीय बताते हुए कहा कि अदालत के फैसले स्वीकार करना उनका कर्तव्य है. उन्होंने जोड़ा कि अगर यह गढ़ (न्यायपालिका) भी गिर जाता है तो हम अंधकार युग के गर्त में चले जाएंगे.

सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश रोहिंटन फली नरीमन. (फोटो साभार: यूट्यूब)

नई दिल्ली: उच्च न्यायपालिका में नियुक्तियों के लिए सुप्रीम कोर्ट की कॉलेजियम प्रणाली पर केंद्र के बढ़ते हमलों के बीच सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश रोहिंटन फली नरीमन ने शुक्रवार को एक सार्वजनिक कार्यक्रम में कानून मंत्री किरेन रिजिजू को निशाने पर लिया. वे खुद अगस्त 2021 में सेवानिवृत्त होने से पहले कॉलेजियम का हिस्सा रहे हैं.

एनडीटीवी की खबर के मुताबिक, नरीमन ने रिजिजू की सार्वजनिक टिप्पणियों को निंदनीय बताते हुए कानून मंत्री को याद दिलाया कि अदालत के फैसले को स्वीकार करना उनका ‘कर्तव्य’ है, चाहे वह सही हो या गलत. उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ का नाम लिए बिना नरीमन ने उन पर भी निशाना साधा. गौरतलब है कि धनखड़ संविधान के बुनियादी ढांचे के सिद्धांत पर सवाल उठा चुके हैं.

कॉलेजियम द्वारा अनुशंसित नामों पर केंद्र के ‘बैठे रहने’ पर उन्होंने कहा क यह ‘लोकतंत्र के लिए घातक’ है और सरकार को अनुशंसाओं पर प्रतिक्रिया देने के लिए 30 दिनों की समय सीमा का सुझाव दिया, अन्यथा सिफारिशें स्वत: ही स्वीकृत मानी जाएं.

इंडियन एक्सप्रेस के मुताबिक, मुंबई विश्वविद्यालय के कानून विभाग द्वारा आयोजित शुक्रवार के कार्यक्रम में बोलते हुए नरीमन ने कहा, ‘हमने कानून मंत्री द्वारा इस प्रक्रिया (न्यायधीशों की नियुक्ति) की आलोचना सुनी है. मैं कानून मंत्री को आश्वस्त करना चाहता हूं कि दो बेहद ही बुनियादी संवैधानिक मूलभूत बातें आपको जानना चाहिए. एक अमेरिका के विपरीत है, जिसमें कम से कम पांच अनिर्वाचित जजों पर संविधान की व्याख्या का भरोसा किया जाता है… और एक बार उन पांच या अधिक जजों ने उस मूल दस्तावेज़ की व्याख्या कर ली है, तो अनुच्छेद 144 के तहत एक प्राधिकरण के तौर पर उसका पालन करना आपका कर्तव्य होता है.’

उन्होंने कहा, ‘एक नागरिक के रूप में मैं आलोचना कर सकता हूं, इससे कोई समस्या नहीं है, लेकिन यह कभी नहीं भूलें… आप एक प्राधिकरण हैं और एक प्राधिकरण के तौर पर सही या गलत के फैसले से बंधे हैं.’

जस्टिस नरीमन ने सुझाव दिया कि सुप्रीम कोर्ट को न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए प्रक्रिया ज्ञापन की सभी खामियों को दूर करने के लिए एक संवैधानिक पीठ का गठन करना चाहिए और इसे ‘फिफ्थ जज केस’ कहना चाहिए.

उन्होंने कहा कि संविधान पीठ को यह निर्धारित करना चाहिए कि एक बार जब कॉलेजियम द्वारा किसी न्यायाधीश की सिफारिश दोहराई जाती है, तो नियुक्ति एक निश्चित अवधि के भीतर की जानी चाहिए, चाहे वह कितनी भी अवधि हो.

उन्होंने कहा कि संविधान ऐसे ही काम करता है और अगर आपके पास स्वतंत्र एवं निडर जज नहीं हैं तो कुछ नहीं बचता.

उन्होंने कहा कि अगर यह गढ़ (न्यायालिका) भी गिर जाता है तो हम अंधकार युग के गर्त में चले जाएंगे, जिसमें आरके लक्ष्मण का आम आदमी खुद से केवल एक प्रश्न पूछेगा: यदि नमक का स्वाद खो जाए, तो इसे किससे नमकीन किया जाएगा?

उन्होंने कहा, ‘यह याद रखना महत्वपूर्ण है कि आपने भले ही अपने लिए एक उत्कृष्ट संविधान बनाया होगा, लेकिन यदि अंतत: इसके अंतर्गत आने वाली संस्थाएं खराब हो जाती हैं, तो आप कुछ खास नहीं कर सकते.’

उन्होंने कहा कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता का संवैधानिक सिद्धांत लोकतंत्र के लिए महत्वपूर्ण है.

बुनियादी ढांचे के सिद्धांत पर उपराष्ट्रपति धनखड़ की टिप्पणियों का उल्लेख करते हुए जस्टिस नरीमन ने बुनियादी ढांचे के महत्व पर भी प्रकाश डाला और इसे न्यायपालिका के हाथों में मौजूद अत्याधिक महत्वपूर्ण हथियार करार देते हुए कहा है 1980 से अब तक इसका कई बार कार्यपालिका की जांच के लिए इस्तेमाल हुआ है, जब यह संविधान के दायरे से बाहर जाकर काम करती है.

एनडीटीवी के मुताबिक, जस्टिस नरीमन ने कहा कि बुनियादी ढांचे के सिद्धांत को दो बार चुनौती दी गई है, वह चुनौती हारी है और 40 वर्षों में इसके बारे में किसी ने एक भी शब्द नहीं कहा है, सिवाय हालिया समय के.

जस्टिस नरीमन ने सुझाव देते हुए कहा, ‘… एक बार अगर सरकार को कॉलेजियम द्वारा कोई नाम भेजा जाता है, अगर सरकार के पास 30 दिनों के भीतर की अवधि में कहने के लिए कुछ नहीं है, तो यह मान लिया जाए कि इसके पास कहने के लिए कुछ नहीं है… नामों पर कोई फैसला न लेना इस देश में लोकतंत्र के खिलाफ बहुत घातक है.’

साथ ही उन्होंने आगे कहा, ‘क्योंकि आप जो कर रहे हैं वो यह है कि आप इस उम्मीद के साथ एक विशेष कॉलेजियम की प्रतीक्षा कर रहे हैं कि दूसरा कॉलेजियम अपना मन बदल लेगा… और यह हर समय होता है क्योंकि आप सरकार में लगातार बने हुए हैं, आप कम से कम पांच साल तक रहते हैं. लेकिन एक कॉलेजियम की अवधि अधिक नहीं होती.’

उल्लेखनीय है कि जजों की नियुक्ति की कॉलेजियम प्रणाली बीते कुछ समय से केंद्र और न्यायपालिका के बीच गतिरोध का विषय बनी हुई है, जहां कॉलेजियम व्यवस्था को लेकर केंद्रीय कानून मंत्री किरेन रिजिजू कई बार विभिन्न प्रकार की टिप्पणियां कर चुके हैं.

दिसंबर 2022 में संपन्न हुए संसद के शीतकालीन सत्र के दौरान रिजिजू सुप्रीम कोर्ट से जमानत अर्जियां और ‘दुर्भावनापूर्ण’ जनहित याचिकाएं न सुनने को कह चुके हैं, इसके बाद उन्होंने अदालत की छुट्टियों पर टिप्पणी करने के साथ कोर्ट में लंबित मामलों को जजों की नियुक्ति से जोड़ते हुए कॉलेजियम के स्थान पर नई प्रणाली लाने की बात दोहराई थी.

इससे पहले भी रिजिजू कुछ समय से न्यायपालिका, सुप्रीम कोर्ट और कॉलेजियम प्रणाली को लेकर आलोचनात्मक बयान देते रहे हैं.

नवंबर 2022 में किरेन रिजिजू ने कॉलेजियम व्यवस्था को ‘अपारदर्शी और एलियन’ बताया था. उनकी टिप्पणी को लेकर शीर्ष अदालत ने नाराजगी भी जाहिर की थी.

सुप्रीम कोर्ट की कॉलेजियम की विभिन्न सिफारिशों पर सरकार के ‘बैठे रहने’ संबंधी आरोपों पर प्रतिक्रिया देते हुए रिजिजू ने कहा था कि ऐसा कभी नहीं कहा जाना चाहिए कि सरकार फाइलों पर बैठी हुई है.

नवंबर 2022 में ही सुप्रीम कोर्ट ने भी कहा था कि सरकार का कॉलेजियम द्वारा भेजे गए नाम रोके रखना अस्वीकार्य है. कॉलेजियम प्रणाली के बचाव में इसके बाद सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा था कि संवैधानिक लोकतंत्र में कोई भी संस्था परफेक्ट नहीं है.

इसके बाद दिसंबर 2022 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि न्यायाधीशों की नियुक्ति की कॉलेजियम प्रणाली इस देश का कानून है और इसके खिलाफ टिप्पणी करना ठीक नहीं है. शीर्ष अदालत ने कहा था कि उसके द्वारा घोषित कोई भी कानून सभी हितधारकों के लिए ‘बाध्यकारी’ है और कॉलेजियम प्रणाली का पालन होना चाहिए.

वहीं, इसी महीने की शुरुआत में रिजिजू ने सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ को पत्र लिखते हुए कहा था कि केंद्र सरकार के प्रतिनिधियों को सुप्रीम कोर्ट के कॉलेजियम और राज्य सरकार के प्रतिनिधियों को हाईकोर्ट के कॉलेजियम में जगह दी जानी चाहिए. विपक्ष ने इस मांग की व्यापक तौर पर निंदा की थी.

बीते 22 जनवरी को ही रिजिजू ने दिल्ली हाईकोर्ट के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस आरएस सोढ़ी के एक साक्षात्कार का वीडियो साझा करते हुए उनके विचारों का समर्थन किया था. सोढ़ी ने कहा था कि सुप्रीम कोर्ट ने खुद न्यायाधीशों की नियुक्ति का फैसला कर संविधान का ‘अपहरण’ (Hijack) किया है.

सोढ़ी ने यह भी कहा था कि कानून बनाने का अधिकार संसद के पास है. इसे लेकर कानून मंत्री का कहना था, ‘वास्तव में अधिकांश लोगों के इसी तरह के समझदारीपूर्ण विचार हैं. केवल कुछ लोग हैं, जो संविधान के प्रावधानों और जनादेश की अवहेलना करते हैं और उन्हें लगता है कि वे भारत के संविधान से ऊपर हैं.’

वहीं, उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ भी रिजिजू की तरह ही न्यायपालिका पर बीते कुछ समय से हमलावर हैं.  7 दिसंबर 2022 को राज्यसभा के सभापति के रूप में अपने पहले भाषण में जगदीप धनखड़ ने एनजेएसी अधिनियम निरस्त करने के लिए न्यायपालिका की आलोचना की थी.

तब उन्होंने कहा था, ‘लोकतांत्रिक इतिहास में इस तरह की घटना का कोई उदाहरण नहीं है, जहां एक विधिवत वैध संवैधानिक विधि को न्यायिक रूप से पहले की स्थिति में लाया गया हो. यह संसदीय संप्रभुता के गंभीर समझौते और लोगों के जनादेश की अवहेलना का एक ज्वलंत उदाहरण है, जिनके संरक्षक यह सदन और लोकसभा हैं.’

यह पहली बार नहीं था जब धनखड़ ने उपराष्ट्रपति बनने के बाद एनजेएसी को खत्म करने के लिए सुप्रीम कोर्ट की आलोचना की थी.

2 दिसंबर 2022 को भी उन्होंने कहा था कि वह ‘हैरान’ थे कि शीर्ष अदालत द्वारा एनजेएसी कानून को रद्द किए जाने के बाद संसद में कोई चर्चा नहीं हुई. उससे पहले उन्होंने संविधान दिवस (26 नवंबर 2022) के अवसर पर हुए एक कार्यक्रम में भी ऐसी ही टिप्पणी की थी.

वहीं, इसी जनवरी माह की शुरुआत में वे फिर से न्यायपालिका पर हमलावर हो गए थे और 1973 के केशवानंद भारती फैसले को ‘गलत परंपरा’ करार दे दिया था.