ग़ैर-फिल्मी गानों के नियमन के लिए सेंसर बोर्ड नहीं बना सकते, यह अदालत का काम नहीं: हाईकोर्ट

दिल्ली हाईकोर्ट में दायर एक याचिका में ग़ैर-फिल्मी गीतों के टीवी, ऐप या सोशल मीडिया मंचों के ज़रिये सार्वजनिक रिलीज़ से पहले समीक्षा के लिए सेंसर बोर्ड के बनाने की मांग की गई थी. कोर्ट ने इसे ख़ारिज करते हुए कहा कि इसके लिए पहले से अधिनियम मौजूद हैं और यह कोई अन्य क़ानून नहीं बना सकता.

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(फोटो: पीटीआई)

दिल्ली हाईकोर्ट में दायर एक याचिका में ग़ैर-फिल्मी गीतों के टीवी, ऐप या सोशल मीडिया मंचों के ज़रिये सार्वजनिक रिलीज़ से पहले समीक्षा के लिए सेंसर बोर्ड के बनाने की मांग की गई थी. कोर्ट ने इसे ख़ारिज करते हुए कहा कि इसके लिए पहले से अधिनियम मौजूद हैं और यह कोई अन्य क़ानून नहीं बना सकता.

(फोटो: पीटीआई)

नई दिल्ली: दिल्ली हाईकोर्ट ने टेलीविजन या सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म के जरिये सार्वजनिक रूप से रिलीज़ होने से पहले ‘गैर-फिल्मी गीतों’ की समीक्षा करने के लिए सेंसर बोर्ड के गठन की मांग करने वाली याचिका को खारिज करते हुए कहा कि सेंसर बोर्ड की नियुक्ति का निर्देश देने के परिणामस्वरूप कानून बन जाएगा, जो यह नहीं कर सकता है.

इंडियन एक्सप्रेस के अनुसार, मुख्य न्यायाधीश सतीश चंद्र शर्मा और जस्टिस सुब्रमण्यम प्रसाद की खंडपीठ गैर-फिल्मी गीतों, उनके गीतों और वीडियो को टीवी या सोशल मीडिया के माध्यम से जनता के लिए जारी करने से पहले उनकी समीक्षा करने के लिए एक सेंसर बोर्ड के गठन, जिससे ऐसे गीतों के रचनाकारों के लिए प्रमाणन प्राप्त करना अनिवार्य हो, की मांग करने वाली जनहित याचिका पर सुनवाई कर रही थी.

याचिका में किसी भी मंच/एप्लिकेशन के माध्यम से इंटरनेट पर जारी होने से पहले हर गैर-फिल्मी गीत और उसकी सामग्री, जिसमें गीत और वीडियो शामिल हैं, की स्क्रीनिंग के लिए एक निकाय गठित करने और इंटरनेट पर ऐसे सभी गीतों, जो अश्लील हैं या जिनमें अश्लील सामग्री हैं, पर तत्काल प्रभाव से प्रतिबंध लगाने का निर्देश देने की मांग की गई है.

उच्च न्यायालय ने 24 जनवरी के अपने आदेश में कहा था कि विभिन्न मीडिया प्लेटफॉर्मों के माध्यम से आम जनता के लिए उपलब्ध सूचना/सामग्री को विनियमित करने के लिए केंद्र सरकार द्वारा एक स्पष्ट व्यवस्था निर्धारित की गई है.

अदालत ने सूचना प्रौद्योगिकी (मध्यवर्ती दिशानिर्देश और डिजिटल मीडिया आचार संहिता) नियम, 2021 का हवाला देते हुए कहा कि वे यूट्यूब, वॉट्सऐप, ट्विटर, फेसबुक आदि जैसे विभिन्न मंचों पर लागू होते हैं. कोर्ट ने कहा कि कि यह नियम इन मंचों पर प्रसारित न की जा सकने वाली सामग्री को भी नियंत्रित करते हैं.

हाईकोर्ट ने अपने निर्णय में कहा, ‘आईटी अधिनियम के साथ ये दिशानिर्देश आचार संहिता के उल्लंघन के मामले में भी अपराध दर्ज किए जाने का भी प्रावधान करते हैं. आईटी अधिनियम के तहत मामले के अलावा उल्लंघनकर्ताओं पर भारतीय दंड संहिता के तहत भी केस दर्ज किया जा सकता है. इस प्रकार, याचिकाकर्ता की जो शिकायत है कि टीवी, यूट्यूब अदि विभिन्न मंचों के जरिये इंटरनेट पर आने वाले गैर-फिल्मी गीतों और उनके वीडियो को सेंसर/समीक्षा करने के लिए कोई नियामक प्राधिकरण/सेंसर बोर्ड नहीं है, आचार संहिता और उसके तहत बनाए गए नियमों के तहत आता है.’

उच्च न्यायालय ने कहा कि आचार संहिता के नियम 7 में कहा गया है कि जब भी कोई मध्यस्थ इन नियमों का पालन करने में विफल रहता है, तो उन्हें आईटी अधिनियम और भारतीय दंड संहिता के प्रावधानों सहित किसी भी कानून के तहत दंडित किया जा सकता है.

इसने कहा कि आचार संहिता समाचार प्रकाशकों और करंट अफेयर्स सामग्री और ऑनलाइन क्यूरेट की गई सामग्री के प्रकाशकों और अन्य मध्यस्थों पर भी लागू होती है जो विभिन्न सोशल मीडिया/डिजिटल मीडिया प्लेटफॉर्म पर सूचना का प्रसार करते हैं. अदालत ने जोड़ा कि केंद्र ने यह सुनिश्चित किया था कि ये प्लेटफॉर्म मध्यस्थ न होने के बावजूद भी विनियमित रहें और सरकारी नियमों का उल्लंघन करने वाली सामग्री अपलोड न करें.

कोर्ट ने यह भी कहा, ‘जहां तक टीवी की बात है, तो सिनेमैटोग्राफ अधिनियम, 1952 और केबल टेलीविजन नेटवर्क (विनियमन) अधिनियम, 1995, इस पर प्रसारित होने वाली सामग्री के विनियमन को देखते हैं. याचिकाकर्ता का यह तर्क कि कोई नियामक प्राधिकरण नहीं है, गलत है.’

अदालत ने कहा कि एक नियामक प्राधिकरण की नियुक्ति का निर्देश देने के परिणामस्वरूप इस अदालत द्वारा कानून बनाया जाएगा जिसकी अनुमति नहीं है.इसने कहा, ‘शीर्ष अदालत द्वारा विभिन्न निर्णयों में विधायिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच शक्तियों के पृथक्करण की अवधारणा तय की गई है. अदालतें किसी क़ानून को अनिवार्य नहीं बना सकती हैं या किसी क़ानून में प्रावधान नहीं जोड़ सकती हैं क्योंकि इसका अर्थ कानून बनाना होगा जो देश के संविधान में स्वीकार्य नहीं है.’

याचिका को खारिज करते हुए उच्च न्यायालय ने जॉन पैली बनाम केरल राज्य में सुप्रीम कोर्ट के 2021 के एक फैसले का हवाला दिया, जहां शीर्ष अदालत ने कहा था कि अदालतों के पास रिट आदेश जारी करते हुए कोई सहायक समिति या न्यायाधिकरण स्थापित करने की शक्ति नहीं है.

अदालत ने कहा कि न्यायपालिका की भूमिका मुख्य रूप से किसी क़ानून की वैधता का परीक्षण करना है न कि इसमें संशोधन करना. न्यायाधिकरणों, प्राधिकरणों, नियामकों की स्थापना विशुद्ध रूप से विधायिका के अधिकार क्षेत्र में आती है न कि अदालतों के अधिकार क्षेत्र में. उपरोक्त के मद्देनजर, वर्तमान रिट याचिका में कोई दम नहीं है.’