‘जिस बर्बर ने किया तुम्हारा ख़ून पिता… वह नहीं मूर्ख या पागल, वह प्रहरी है स्थिर-स्वार्थों का’

गांधी की हत्या पर नागार्जुन की लिखी कविता 'तर्पण' में गोडसे को जिन्होंने तैयार किया था, वे कवि की निगाह से छिप नहीं सके. गोडसे अकेला न था. वह उन स्वार्थों का प्रहरी था जिन्हें गांधी की राजनीति से ख़तरा था. वे कौन-से स्थिर स्वार्थ थे जो गांधी को रास्ते से हटाना चाहते थे?

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(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रबर्ती/द वायर)

गांधी की हत्या पर नागार्जुन की लिखी कविता ‘तर्पण’ में गोडसे को जिन्होंने तैयार किया था, वे कवि की निगाह से छिप नहीं सके. गोडसे अकेला न था. वह उन स्वार्थों का प्रहरी था जिन्हें गांधी की राजनीति से ख़तरा था. वे कौन-से स्थिर स्वार्थ थे जो गांधी को रास्ते से हटाना चाहते थे?

(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रबर्ती/द वायर)

पढ़ रहा हूं कि नाथूराम गोडसे के पक्ष को समझने और उसे ज़ाहिर होने का मौक़ा देने के लिए एक फिल्म बनाई गई है. यह ‘मानवीय’ प्रलोभन नया नहीं है. आख़िर बेचारे हत्यारे का भी तो कोई पक्ष होगा! यह कोई ज़मीन जायदाद के लिए या आपसी रंजिश में की गई हत्या तो थी नहीं. इस हत्या से हत्यारे को निजी लाभ तो होना नहीं था! फिर हत्यारा भी मामूली नहीं रह जाता. उसके विचार, उसकी मनोदशा को जानना न्यायोचित होगा. इस इरादे से फिल्म बनाई गई है. यह भी पढ़ा कि फिल्मकार ने आश्वासन दिया कि फिल्म देखने के बाद हत्यारे के प्रति श्रद्धा में कोई कमी नहीं आएगी.

मुझे कुछ वर्ष पहले दिल्ली के एक शिक्षा संस्थान की एक सभा याद आ गई. वहां काम करनेवाले एक कर्मचारी ने मुझसे पूछा कि आख़िर नाथूराम गोडसे साहब पढ़े लिखे थे. कुछ सोच-समझकर ही उन्होंने गांधी को मारा होगा. गांधी की कोई न कोई ऐसी ग़लती होगी जिससे उनको मारना ज़रूरी हो गया होगा.

गोडसे की मनोदशा के प्रति सहानुभूति नई नहीं है. इस प्रवृत्ति को एक कवि नागार्जुन ने पहचाना था. मार्च, 1948 में ‘हंस’ में उनकी कविता प्रकाशित हुई: ‘वाह, गोडसे !’ नागार्जुन का क्रोध उनके अपने ख़ास अंदाज़ में बरस पड़ता है,

‘अजी गोडसे,सुना तुम्हारे मनस्तत्व की
मीमांसा हो रही आज-कल,
बड़े-बड़े डॉक्टर तत्पर हैं-
नहीं पकड़ में आता है उन्माद तुम्हारा !’

नागार्जुन इस उन्माद को जिसके कारण गोडसे ने गांधी की हत्या की, ‘अद्भुत पागलपन’ कहते हैं,

‘यदि इस अद्भुत पागलपन का
नहीं निदान समझ में आवे
वियना के वैज्ञानिक को सरकार बुलावे
स-बहुमान सादर औ’ सांजलि !
-जब की होगी
गांधी की हत्या तूने-
तब की तेरी चित्तवृत्ति का फोटो वही उतार सकेगा !’

वियना का वैज्ञानिक फ़्रायड हैं! लेकिन गांधी की हत्या का कारण समझना हो, तो गोडसे को चित्तवृत्ति को नहीं, उन्हें पकड़ना होगा जिन्होंने उसे तैयार किया था:

‘खिला-खिलाकर मक्खन -मिसरी
आसव और अरिष्ट पिलाकर
नानाविध अवलेह चटाकर
दांव-पेंच सब सिखा-पढ़ाकर
देकर के पिस्तौल और छर्रों की पेटी
तुम्हें जिन्होंने
बना दिया था महावीर विक्रम बजरंगी
अकस्मात् पकड़े जाने पर
आज वही कर रहे तुम्हारे सिर की मालिश
गुलरोगन से
कहते हैं:
बिगड़े दिमाग़ ने
गांधीजी का खून कर दिया.’

नागार्जुन इस सिद्धांत को मानने को तैयार नहीं कि गोडसे एक ‘बिगड़ा दिमाग़’ था जिसने उन्माद में गांधीजी का खून कर दिया.  कौन थे जिन्होंने गोडसे को सारे दांव-पेंच सिखाए और गांधी की हत्या को तैयार किया?

गांधी की हत्या के बाद एक तरफ़ तो पूरे देश में सकता छा गया, दूसरी तरफ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में उल्लास की लहर दौड़ गई. हत्या के बाद मिठाइयां बांटी गईं. लेकिन फ़ौरन ही संघ को एहसास हो गया कि इस हत्या से और हत्यारे से ख़ुद को दूर करने में ही कुशल है. क़ानून से और उस समय के जनता के आक्रोश से.

संघ, हिंदू महासभा, सावरकर,आदि को लगा था कि बंटवारे के बाद देश के बहुसंख्यक हिंदुओं में गांधी के विरुद्ध इतनी घृणा भर गई है कि उनकी हत्या से वह संतुष्ट और प्रसन्न होगी. ख़ुद गोडसे को लगा था कि इस हत्या से एक हिंदुत्ववादी जन उभार उमड़ पड़ेगा और वह हीरो हो जाएगा.

लेकिन हत्या की प्रतिक्रिया ठीक उल्टी थी. दिल्ली हो या देश के दूसरे हिस्से, उनको इस हत्या ने हिला दिया. दिल्ली की मुसलमान विरोधी हिंसा, जिसे रोकने को गांधी दिल्ली में पड़ाव डाले बैठे थे, थम गई. महाराष्ट्र में तो संघ के  लोगों पर हमले होने लगे. पटेल ने संविधान सभा में ठीक ही कहा कि कौन जानता है कि विधाता गांधी के मिशन को उनकी हत्या के ज़रिये ही पूरा करना चाहते थे!

जिस वक्त गांधी मारे गए, उनका मिशन था भारत में मुसलमान विरोधी हिंसा का शमन. उनकी हत्या से जो झटका भारतवासियों को लगा, उसके कारण वह हिंसा रुक गई. गांधी के हत्यारों के ख़िलाफ़ रोष उमड़ पड़ा. इस वजह से संघ और हिंदू महासभा के लिए यह सुरक्षित न रहा कि आगे इस हत्या से उनका कोई रिश्ता दिखे.

सावरकर और संघ, दोनों ने गांधी की हत्या की निंदा की. नागार्जुन ने जनवरी , 1948 में ही ‘शपथ’ शीर्षक कविता लिखी जिसमें इस पाखंड पर उन्होंने आक्रमण किया:

‘कोटि-कोटि कंठों से नि:सृत सुन-सुनकर आक्रोश
भगवा-ध्वजधारी दैत्यों के उड़े जा रहे होश
लगे बदलने दुष्ट पैंतरे…’

संघ ने तुरत ही 13 दिनों के शोक की घोषणा की. नागार्जुन ने व्यंग्य किया,

‘कौन बताए कालनेमि की लीला अपरम्पार
काली टोपी जला-जला वह आज कर रहा
तेरी जय-जयकार ?

रोकर धोकर ठोक ठठाकर
तेरह दिन तक शोक मनाकर
भले और कुछ नहीं हुआ हो
भस्मासुर की आयु तो बढ़ी!’

काली टोपी और भगवा ध्वजधारियों के शोक के नाटक से कवि भ्रमित न था:

‘आहत बापू,
मृत्यु-समय की तेरी सौम्य मुखाकृति की ही
छवि उतारकर
रुद्ध कंठ हो, सजल नेत्र हो
जन-समूह से मांग रहा है भीख क्षमा की
गांव-गांव में
नगर-नगर में
सत्य अहिंसा शांति और करुणा, मानवता
तेरी बनी बनाई टिकिया बांट रहा है
सांझ-सवेरे
यातुधान की अद्भुत माया मुझसे कही न जाए’

नागार्जुन संघ के लिए यातुधान और कालनेमि जैसी कठोर उपमा का प्रयोग करते हैं. कवि का क्रोध पटेल के प्रति भी है जो संघ या हिंदुत्ववादियों के प्रति पर्याप्त कठोर न थे. नागार्जुन संघ के शोक से धोखे में न आने वाले थे. उन्हें पूरा पता था कि 13 दिनों के  इस शोक से उस भस्मासुर की आयु ही बढ़ेगी.

गांधी की हत्या पर नागार्जुन ने एक और कविता लिखी ‘तर्पण’. इस कविता में गांधी की हत्या के कारण के बारे में कवि की साफ समझ से चकित हो जाना पड़ता है. गोडसे को जिन्होंने तैयार किया था, नागार्जुन की निगाह से वे छिप नहीं सकते थे. गोडसे अकेला न था. वह उन स्वार्थों का प्रहरी था जिन्हें गांधी की राजनीति से ख़तरा था:

‘जिस बर्बर ने
कल किया तुम्हारा खून पिता
वह नहीं मराठा हिंदू है
वह नहीं मूर्ख या पागल है
वह प्रहरी है स्थिर-स्वार्थों का’

इन पंक्तियों में सबसे महत्त्वपूर्ण शब्द हैं, स्थिर स्वार्थ. वे कौन-से स्थिर स्वार्थ थे जो गांधी को रास्ते से हटाना चाहते थे? राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और हिंदू महासभा का हिंदू राष्ट्र क्या जनतांत्रिक या गणतांत्रिक राष्ट्र होने वाला था?

याद रखना चाहिए कि अंग्रेजों के भारत से जाने के बाद यहां की सैकड़ों देशी रियासतों के राजे रजवाड़े अपने राज का सपना देख रहे थे. पेशवाई की वापसी का ख़्याल भी लोगों के दिमाग़ में ज़िंदा था.अंग्रेजों के भारत में जम जाने के पहले बड़े हिस्से पर मराठा क़ब्ज़ा था. क्या उस राज की वापसी नहीं होनी चाहिए? ये स्थिर स्वार्थ नई परिस्थिति में सक्रिय हो उठे थे.

अप्पू एस्थोज़ सुरेश और प्रियंका कोटामराजु ने अपनी किताब ‘द मर्डरर, द मोनार्क एंड द फक़ीर’ में दस्तावेज़ों के सहारे साबित किया है कि राजशाही की वापसी और हिंदुत्व की स्थापना का सपना देखने वाले एक दूसरे के साथ मिलकर ऐसी स्थिति पैदा करना चाहते थे कि अंग्रेजों के जाते ही राज उनके हाथ आ जाए.

इसमें बड़ा रोड़ा कांग्रेस पार्टी तो थी ही जिसने आज़ादी की लड़ाई के दौरान आज़ाद हिंदुस्तान की एक तस्वीर भी गढ़ी थी. यह सार्वभौम मताधिकार पर आधारित धर्मनिरपेक्ष गणतंत्र की तस्वीर थी. इसमें जाहिरा तौर पर राजे रजवाड़ों की ताक़त उनके हाथ से जनता के हाथ जानी थी. यह उन्हें क़बूल न था. वे सीधे अंग्रेजों से मोल-तोल करने की कोशिश कर रहे थे. साथ ही सावरकर और संघ भी इनसे गठजोड़ कर रहे थे ताकि भारत को गणतंत्र की जगह हिंदू राष्ट्र में बदला जा सके. पाकिस्तान का गठन इसके लिए एक सुविधाजनक तर्क था.

सुरेश और कोटामराजु ने साबित किया है कि गांधी रजवाड़ों के लिए ख़तरा थे जिनसे वे छुटकारा चाहते थे क्योंकि वे उन्हें सख़्ती से कह रहे थे कि सत्ता उनकी नहीं, जनता की है और उनकी बेहतरी भी इसी में है कि वे जनतंत्र को स्वीकार कर लें और एक साधारण नागरिक का जीवन स्वीकार करें. यह बात कैसे राजाओं को पचती?

हिंदुओं को प्राचीन हिंदू राष्ट्र के नाम पर आकर्षित करना आसान था. रजवाड़ों को जनता का समर्थन लेने के लिए ऐसे संगठनों की ज़रूरत थी जो उनके बीच काम रहे थे. संघ और हिंदू महासभा इसके लिए उपयोगी संस्थाएं थीं. गोडसे इन्हीं स्थिर स्वार्थों का प्रतिनिधि था.

यह स्वाभाविक ही है कि आज प्राचीन हिंदू राजाओं को आदर्श बनाकर पेश किया जा रहा है. हिंदू जनता को समझाने की कोशिश हो रही है कि यह उनके राजा थे, उनका राज उसका राज था. यह भी ठीक ही है कि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के द्वारा सनातन धर्म को राष्ट्रीय धर्म बतलाया जा रहा है और ऐसे राष्ट्र की कल्पना की जा रही है जिसमें गाय और ब्राह्मण की रक्षा की जाएगी.

अब रजवाड़े नहीं रहे. आज के सावरकर और संघ का गठजोड़ इसलिए आज के राजाओं यानी कॉरपोरेट पूंजीपतियों के साथ है.आज ये वे स्थिर स्वार्थ हैं जिनके सजग प्रतिनिधि सत्ता में बैठे हैं. गांधी की हत्या के समय जो सपना पूरा नहीं हुआ, वह अब होता दिख रहा है.

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)