बजट को चाहे जितना भी बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जाए, नरेंद्र मोदी के सत्ता में नौ साल की विरासत मैन्युफैक्चरिंग, निजी निवेश और रोज़गार में ठहराव की है. हाल के दिनों में बढ़ती महंगाई एक अतिरिक्त समस्या बन गई है.
2023-24 का बजट निजी निवेश और रोज़गार के विकास में लगभग एक दशक की लंबी सुस्ती के बाद व्यक्तिगत आयकर रियायतों के जरिये मध्यम वर्ग के हाथों में अधिक पैसा देकर पूंजीगत व्यय और खपत की मांग को बढ़ावा देने का अंतिम प्रयास है. सालाना 7 लाख रुपये तक की आय पर कोई टैक्स नहीं लगेगा. यह बमुश्किल ही पहले से महंगाई से जूझ रहे मध्य वर्ग की वास्तविक आय के लिए कोई लाभ पहुंचा पाएगा. सरकार ने अपने पूंजीगत व्यय बजट को भी 33% बढ़ाकर 10 लाख करोड़ रुपये कर दिया है. लेकिन क्या यह सब अर्थव्यवस्था को सार्थक रूप से बदल देगा? जैसा कि हमने हाल के वर्षों में देखा है, केवल सरकारी पूंजीगत व्यय में बढ़ोतरी कोई रामबाण नहीं है.
मेरे विचार में बजट 2023-24 सिर्फ इसलिए अच्छा है कि यह वैश्विक अर्थव्यवस्था की मंदी की संभावना की पृष्ठभूमि और असामान्य रूप से कड़ी मौद्रिक नीति से उच्च मुद्रास्फीति का मुकाबला करने में व्यस्त विकसित देशों का सामना कर सकता है. वैश्विक वृद्धि दर के 2022 के 3.4% से 2023 में 2.9% तक गिरने के आईएमएफ के पूर्वानुमान से भारत शायद ही बच सकता है. भारत की जीडीपी वृद्धि 2023-24 के लिए 6.1% अनुमानित है, जो पिछले वित्त वर्ष के 6.8% से कम है.
यदि कोई इस तरह से सोचे, तो भारतीय बजट, जो 2024 के आम चुनावों से पहले मोदी सरकार का आखिरी बजट है, में विकास और रोजगार पर कोई महत्वपूर्ण प्रगति नहीं है. सच्चाई यह है कि मोदी सरकार के नौ साल निजी निवेश और रोजगार में ठहराव ही दिखा है. सरकार अब खुले तौर पर स्वीकार कर रही है कि 2019 से असंख्य कर और अन्य प्रोत्साहनों के बावजूद निजी निवेश नहीं आ रहा है.
बजट से पहले आर्थिक सर्वेक्षण जारी होने के बाद नीति आयोग के उपाध्यक्ष सुमन बेरी ने स्वीकार किया कि सरकार द्वारा पूंजीगत व्यय वृद्धि अनिवार्य हो गई है, जिसमें निवेश करने के लिए कॉरपोरेट्स अनिच्छुक हैं. हालांकि, इतिहास बताता है कि निजी निवेश के बिना विकास और रोजगार पूरी तरह से ठीक नहीं हो सकते. अकेले सार्वजनिक निवेश पर्याप्त नहीं होगा. एक तरह से पिछले नौ सालों में मोदीनॉमिक्स की यही कहानी रही है. निजी विनिर्माण निवेश के लिए यह दशक कुछ खास नहीं रहा है.
नतीजतन, रोजगार भी ठप हो गया है. सीएमआईई डेटा स्पष्ट रूप से दिखाता है कि 2019-20 के बाद से प्रत्येक वित्तीय वर्ष में अर्थव्यवस्था में कुल रोजगार 405-410 मिलियन की सीमा में स्थिर रहा है. केवल 2020-21 के कोविड वर्ष में लगभग 386 मिलियन की बड़ी गिरावट देखी गई और उसके बाद कुल रोजगार में कुछ सुधार हुआ है, लेकिन फिर भी यह 2019-20 के स्तर से नीचे बना हुआ है. यह ठहराव अर्थव्यवस्था के लिए कोई अच्छा संकेत नहीं है.
मोदी सरकार ने विनिर्माण और रोजगार को बढ़ावा देने के लिए कॉरपोरेट्स को भारी आपूर्ति प्रोत्साहन देने की कोशिश की है, लेकिन निजी क्षेत्र ने निवेश नहीं किया है क्योंकि उसे लगा कि हर तरफ मांग नहीं बढ़ रही है. उदाहरण के लिए, दोपहिया वाहनों की बिक्री कमोबेश वही है जो पांच से छह साल पहले थी. अगर पिरामिड के निचले हिस्से में लोगों की आय स्थिर है, तो मांग कैसे बढ़ेगी? अगर मांग नहीं बढ़ेगी तो निजी क्षेत्र निवेश क्यों करेगा? सरकार कई वर्षों से खुद की बनाई इसी मुश्किल स्थिति में फंसी हुई है. कोविड के बाद नीचे की 70% आबादी की आय और अधिक प्रभावित हुई.
बजट को चाहे जितना भी बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जाए, पीएम मोदी के सत्ता में नौ साल की विरासत मैन्युफैक्चरिंग, निजी निवेश और रोजगार में ठहराव की रही है. हाल के दिनों में बढ़ती महंगाई एक अतिरिक्त समस्या बन गई है. बुनियादी ढांचे पर सरकारी खर्च, हालांकि जो पर्याप्त है, निजी निवेश वृद्धि की अनुपस्थिति का मुकाबला करने में दूर-दूर तक भी सक्षम नहीं है. एक निम्न मध्य आय वाले देश में संसाधनों की कमी को देखते हुए सरकारें केवल इतना ही कर सकती हैं.
नतीजतन, भारत इस बड़े विरोधाभास के बीच है जहां सरकार दावा करती है कि यह सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था है, लेकिन फिर भी यह 81 करोड़ से अधिक लोगों को मुफ्त राशन देने के लिए मजबूर है! इसके अतिरिक्त, सरकार को विधायी रोजगार गारंटी कार्यक्रमों के लिए यथोचित उच्च बजट आवंटन रखना पड़ रहा है, जिसे पीएम ने कांग्रेस की आर्थिक नीतियों की विफलता का प्रतीक बताया था.
यह विरोधाभास संरचनात्मक है और भारत के सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था बनने के बारे में निरंतर अतिशयोक्ति का सहारा लेने के बजाय बारीकी से अध्ययन करने की आवश्यकता है. अब भी और बहुत काम किया जाना बाकी है.
इस सरकार के 10वें साल के बजट भाषण में जिस ‘अमृत काल’ का बार-बार जिक्र किया जाता है, उसमें पहुंचना सुविधाजनक है. अब सभी वादे अगले 25 सालों के लिए टाल दिए गए हैं, जैसा कि संयुक्त संसद सत्र में राष्ट्रपति के अभिभाषण ने सुझाया. पिछले नौ बरसों के निजी निवेश और रोजगार का रिकॉर्ड ‘अमृत काल’ के किसी फुटनोट में भी दर्ज नहीं होगा.