अदालत ने कहा, बिना न्यूनतम मज़दूरी दिए लोगों से काम लेना आपराधिक कृत्य है और इसके लिए न्यूनतम मज़दूरी अधिनियम, 1948 के तहत दंडात्मक प्रावधान मौजूद हैं.
नई दिल्ली: दिल्ली उच्च न्यायालय ने सोमवार को कहा कि अपने कर्मचारियों को न्यूनतम मजदूरी नहीं देने वाले उद्योगों को चालू रहने का हक नहीं है.
अदालत ने न्यूनतम मजदूरी का भुगतान नहीं करने को अनुचित और अक्षम्य करार दिया. उच्च न्यायालय ने कहा कि बिना न्यूनतम मजदूरी दिए लोगों से काम लेना आपराधिक कृत्य है और इसके लिए न्यूनतम मजदूरी अधिनियम, 1948 के तहत दंडात्मक प्रावधान मौजूद हैं.
अदालत ने यह आदेश एक माली की याचिका पर सुनाया और उसके नियोक्ता केंद्रीय सचिवालय क्लब की याचिका खारिज कर दी. यह याचिका माली को दिल्ली सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम मजदूरी के भुगतान से जुड़ी थी.
जस्टिस सी हरिशंकर ने क्लब को निर्देश दिया कि वह श्रम अदालत द्वारा माली गीतम सिंह को दी गई रकम के अलावा उसे 1 सितंबर 1989 से सितंबर 1992 के बीच दी गई मजदूरी और अधिनियम के तहत निर्धारित न्यूनतम मजदूरी के अंतर की रकम का भी भुगतान करे.
अदालत ने क्लब को अक्टूबर 1992 से सितंबर 1995 की अवधि के लिए 14 साल पहले श्रम अदालत के 15,240 रुपये की रकम अदा करने के आदेश का अनुपालन नहीं करने पर वादी को 50,000 रुपये अदा करने का भी आदेश दिया.
इसमें कहा गया कि माली को अदा की जाने वाली कुल रकम उसके पक्ष में फैसला सुनाए जाने की तारीख 16 जुलाई 2004 से लेकर उसे भुगतान किए जाने तक 12 फीसदी वार्षिक ब्याज दर के साथ अदा की जाए. अदालत ने कहा कि आदेश पारित किए जाने के चार सप्ताह के अंदर इस रकम का भुगतान किया जाए.
अदालत ने कहा, एक कर्मचारी को न्यूनतम मजदूरी नहीं देना कानूनन अनुचित और अक्षम्य है. इस चर्चा में किसी भी तरह के संदेह की गुंजाइश नहीं होनी चाहिए कि न्यूनतम मजदूरी किसी भी कर्मचारी का मौलिक हक है और ऐसे उद्योग जो कर्मचारियों को बिना उन्हें न्यूनतम मजदूरी दिए काम पर रखते हैं उन्हें चालू रहने का कोई हक नहीं.