जनजातीय मंत्रालय ने संसद में समुदायों को एसटी दर्जा दिए जाने संबंधी सवाल को नज़रअंदाज़ किया

ओडिशा के कांग्रेस सांसद सप्तगिरी शंकर उल्का ने लोकसभा में सवाल पूछा था कि केंद्र सरकार और उपयुक्त अधिकरणों के पास अनुसूचित जनजाति के दर्जे के कितने अनुरोध लंबित हैं. इस पर जनजातीय मामलों के राज्य मंत्री बिश्वेश्वर टुडू ने सरकार के पास लंबित ऐसे अनुरोधों की संख्या बताने से इनकार कर दिया.

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(फोटो साभार: फेसबुक/TribalAffairsIn)

ओडिशा के कांग्रेस सांसद सप्तगिरी शंकर उल्का ने लोकसभा में सवाल पूछा था कि केंद्र सरकार और उपयुक्त अधिकरणों के पास अनुसूचित जनजाति के दर्जे के कितने अनुरोध लंबित हैं. इस पर जनजातीय मामलों के राज्य मंत्री बिश्वेश्वर टुडू ने सरकार के पास लंबित ऐसे अनुरोधों की संख्या बताने से इनकार कर दिया.

(प्रतीकात्मक फोटो साभार: फेसबुक/@TribalAffairsIn)

नई दिल्ली: जनजातीय मामलों के मंत्रालय ने सोमवार को ओडिशा के कांग्रेस सांसद सप्तगिरी शंकर उल्का द्वारा पूछे गए एक सवाल को टाल दिया, जिसमें उन्होंने पूछा था कि केंद्र सरकार और उपयुक्त अधिकरणों के पास अनुसूचित जनजाति (एसटी) के दर्जे के कितने अनुरोध लंबित हैं.

द हिंदू की रिपोर्ट के मुताबिक, जनजातीय मामलों के राज्य मंत्री बिश्वेश्वर टुडू ने लोकसभा में सवाल का जवाब देते हुए केंद्र सरकार के पास लंबित ऐसे अनुरोधों की संख्या निर्दिष्ट करने से इनकार कर दिया और इसके बजाय राज्य में जनजातियों को अनुसूचित करने के लिए जटिल प्रक्रिया का हवाला देते हुए कहा, ‘ऐसे कई प्रस्ताव इसलिए लंबित हो सकते हैं क्योंकि विभिन्न स्तरों पर जांच के अधीन होते हैं.’

उल्का उन कई विपक्षी सांसदों में से थे, जिन्होंने पिछले शीतकालीन सत्र में सरकार से बार-बार सवाल किया था कि वह एसटी सूची में केवल चुनिंदा समुदायों को ही क्यों शामिल कर रही है, जबकि इस तरह के कई अनुरोध लंबित हैं, जिनमें कई ऐसे भी हैं जिन्हें 2014 में एक आंतरिक सरकारी टास्क फोर्स द्वारा प्राथमिकता पर शामिल करने की सिफारिश पहले ही की जा चुकी थी.

तत्कालीन जनजातीय मामलों के सचिव ऋषिकेश पांडा की अध्यक्षता वाली टास्क फोर्स ने निष्कर्ष निकाला था कि अनुसूचित करने की मौजूदा प्रक्रिया बेहद ही ‘दुष्कर’ है और ‘सकारात्मक कार्रवाई और समावेशन के संवैधानिक एजेंडा’ के खिलाफ है. इसने मानदंडों को ‘पुराने समय का’ करार दिया था और उन 40 से अधिक समुदायों, जिनके अनुरोध लंबित थे, को प्राथमिकता में शामिल करने की सिफारिश की थी, .

पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाले मंत्रिमंडल ने कुछ सिफारिशों को लागू करने के लिए एक कैबिनेट नोट जारी किया था, लेकिन आठ साल बाद इस प्रस्ताव को रोक दिया गया.

वर्तमान प्रक्रिया में आवश्यक है कि ऐसा प्रत्येक अनुरोध संबंधित राज्य/केंद्र शासित प्रदेश सरकार की ओर से जारी किए जाए. इसके बाद इसे जनजातीय मामलों के मंत्रालय के पास भेजा जाता है, जो इसे भारत के रजिस्ट्रार जनरल के कार्यालय (ओआरजीआई) और राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग को मंजूरी के लिए भेजता है.

अगर ये दोनों निकाय समुदाय को इस दायरे में शामिल करने के लिए सहमत होते हैं, तो एक कैबिनेट नोट तैयार किया जाता है और संबंधित एसटी सूची में संशोधन के लिए कानून लाया जाता है.

अगर ओआरजीआई आवेदन को अस्वीकार करता है तो संबंधित राज्य सरकार से अपेक्षित जानकारी मांगी जाती है और यदि ओआरजीआई इसे दो बार अस्वीकार करता है तो प्रस्ताव रद्द हो जाता है.

मालूम हो कि ओआरजीआई लोकुर समिति द्वारा 1965 में तय किए गए मानदंडों का पालन करता है. समिति ने एक जनजाति को ‘आदिम लक्षणों, विशिष्ट संस्कृति, भौगोलिक पृथकता, बड़े समुदाय से संपर्क करने में शर्म और पिछड़ेपन के आधार पर परिभाषित किया था.

अखबार के मुताबिक, लोकसभा में एक अलग सवाल के जवाब में जनजातीय मंत्रालय ने कहा कि उसने पिछले तीन वर्षों में झारखंड (पुराण जनजाति), त्रिपुरा (दारलोंग की उप-जनजाति), और तमिलनाडु (नारीकोरवन और कुरुविकरण) की एसटी सूची में चार समुदायों को जोड़ने की मंजूरी दी है.

मंत्रालय ने कहा कि उत्तर प्रदेश में छह समुदायों को तीन जिलों में एसटी घोषित किया गया था; दो जनजातियों को क्रमशः अरुणाचल प्रदेश और झारखंड में एसटी सूची से हटा दिया गया; और पिछले तीन वर्षों में मौजूदा एसटी के लिए कई पर्यायवाची शब्द जोड़े गए हैं.

हालांकि, असम की एसटी सूची में कोच राजबंशी और पांच अन्य समुदायों (ताई-अहोम, चुटिया, मटक, मोरन और चाय जनजाति) को शामिल करने के प्रस्ताव की स्थिति पर असम के सांसद अब्दुल खालिक के विशिष्ट प्रश्न का उत्तर देते हुए टुडू ने फिर से सीधा जवाब देने से इनकार कर दिया.

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