महिला आरोपी का कौमार्य परीक्षण कराना असंवैधानिक, जीने के अधिकार का उल्लंघन: दिल्ली हाईकोर्ट

दिल्ली हाईकोर्ट की न्यायाधीश जस्टिस स्वर्णकांता शर्मा ने एक याचिका पर फैसला सुनाते हुए कहा कि हिरासत में ली गई एक महिला, जांच के दायरे में आरोपी, पुलिस या न्यायिक हिरासत में गई महिला का कौमार्य परीक्षण असंवैधानिक और संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन है, जिसमें गरिमा का अधिकार भी शामिल है.

/
(फोटो: पीटीआई)

दिल्ली हाईकोर्ट की न्यायाधीश जस्टिस स्वर्णकांता शर्मा ने एक याचिका पर फैसला सुनाते हुए कहा कि हिरासत में ली गई एक महिला, जांच के दायरे में आरोपी, पुलिस या न्यायिक हिरासत में गई महिला का कौमार्य परीक्षण असंवैधानिक और संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन है, जिसमें गरिमा का अधिकार भी शामिल है.

(फोटो: पीटीआई)

नई दिल्ली: दिल्ली उच्च न्यायालय ने मंगलवार को कहा कि महिला आरोपी का ‘कौमार्य परीक्षण’ (Virginity Test) कराना असंवैधानिक, लैंगिक भेदभाव और गरिमा के अधिकार का उल्लंघन  है.

अदालत ने कहा कि ऐसी कोई कानूनी प्रक्रिया नहीं है जो ‘कौमार्य परीक्षण’ का प्रावधान करती हो और ऐसा परीक्षण अमानवीय व्यवहार का एक रूप है.

यह आदेश जस्टिस स्वर्णकांता शर्मा ने सिस्टर सेफी की याचिका पर सुनाया, जिन्होंने 1992 में केरल में एक नन की मौत से संबंधित आपराधिक मामले के सिलसिले में उनका ‘कौमार्य परीक्षण’ कराए जाने को असंवैधानिक घोषित करने की मांग की थी.

जस्टिस शर्मा ने कहा, ‘यह घोषित किया जाता है कि हिरासत में ली गई एक महिला, जांच के दायरे में आरोपी, पुलिस या न्यायिक हिरासत में गई महिला का कौमार्य परीक्षण असंवैधानिक और संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन है, जिसमें गरिमा का अधिकार भी शामिल है.’

न्यायाधीश ने कहा, ‘इसलिए, यह अदालत व्यवस्था देती है कि यह परीक्षण लैंगिक भेदभाव पूर्ण है और महिला अभियुक्त की गरिमा के मानवाधिकार का उल्लंघन है, अगर उसे हिरासत में रखते हुए इस तरह का परीक्षण किया जाता है.’

अदालत ने जोर देकर कहा कि एक महिला की ‘हिरासत में गरिमा’ की अवधारणा के तहत पुलिस हिरासत में रहते हुए भी सम्मान के साथ जीने का महिला का अधिकार शामिल है और उसका कौमार्य परीक्षण करना न केवल उसकी शारीरिक पवित्रता, बल्कि उसकी मनोवैज्ञानिक पवित्रता के साथ जांच एजेंसी के हस्तक्षेप के समान है.

अदालत ने यह भी कहा कि गरिमा का अधिकार तब भी निलंबित नहीं होता है, जब किसी व्यक्ति पर अपराध करने का आरोप लगाया जाता है या उसे गिरफ्तार कर लिया जाता है तथा जीवन एवं व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार को कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के तहत ही निलंबित किया जा सकता है, जो न्यायोचित एवं निष्पक्ष होना चाहिए, न कि मनमाना, काल्पनिक और दमनकारी.

अदालत ने कहा, ‘आरोपी की व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार उसी क्षण निलंबित हो जाता है, जब उसे गिरफ्तार किया जाता है, क्योंकि यह राज्य की सुरक्षा के लिए आवश्यक हो सकता है. हालांकि, आरोपी, विचाराधीन या दोषी व्यक्ति के गरिमा के अधिकार को निलंबित नहीं किया जा सकता.

रिपोर्ट के अनुसार, जस्टिस शर्मा ने यह भी आदेश दिया कि परीक्षण को असंवैधानिक घोषित किए जाने की सूचना गृह मंत्रालय और स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के माध्यम से सभी जांच एजेंसियों को प्रसारित की जाए.

उन्होंने कहा कि दिल्ली न्यायिक अकादमी को भी इस जानकारी को अपने पाठ्यक्रम में और जांच अधिकारियों, अभियोजकों और अन्य हितधारकों के लिए कार्यशालाओं में शामिल करना चाहिए.

मालूम हो कि 2008 में एक मामले में गिरफ्तारी के बाद सिस्टर सेफी ने सीबीआई पर उनकी सहमति के बिना कौमार्य परीक्षण कराने का आरोप लगाया. उन्होंने इसे लेकर 2009 में रिट याचिका दायर की थी. 2020 में सीबीआई की एक विशेष अदालत ने 1992 की हत्या के मामले में उन्हें दोषी पाया था और आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी.

लाइव लॉ के अनुसार, अदालत ने कथित तौर पर इस फैसले पर पहुंचने के लिए कौमार्य परीक्षण पर भरोसा किया, क्योंकि इसे यह साबित करने के लिए इस्तेमाल किया गया था कि हत्या सिस्टर सेफी और एक अन्य आरोपी फादर कोट्टूर के बीच संबंधों को छिपाने के लिए की गई थी.

सीबीआई अदालत की सजा वर्तमान में केरल उच्च न्यायालय द्वारा निलंबित है, जबकि एक अपील पर सुनवाई हो रही है.

यह पूछे जाने पर कि क्या सिस्टर सेफी को मुआवजा दिया जाएगा, दिल्ली उच्च न्यायालय ने कहा कि राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को हिरासत में यातना पर नन के अभ्यावेदन पर नए सिरे से विचार करना चाहिए.

(समाचार एजेंसी भाषा से इनपुट के साथ)