नेताजी के पौत्र का सावरकर पर तंज़, कहा- अंग्रेज़ों से दया चाहने वाले का म्यूज़ियम क्यों होना चाहिए

बीते दिनों संस्कृति मंत्रालय ने एक सवाल के जवाब में बताया था कि विनायक दामोदर सावरकर के नाम पर देश में कोई संग्रहालय नहीं है. इस पर नेताजी सुभाष चंद्र बोस के पौत्र चंद्र कुमार बोस ने कहा कि क्या ब्रिटिश सरकार से दया की गुहार लगाने वाला शख़्स किसी सम्मान या संग्रहालय का हक़दार है.

विनायक दामोदर सावरकर. (फोटो साभार: फेसबुक/@savarkarsmarak)

बीते दिनों संस्कृति मंत्रालय ने एक सवाल के जवाब में बताया था कि विनायक दामोदर सावरकर के नाम पर देश में कोई संग्रहालय नहीं है. इस पर नेताजी सुभाष चंद्र बोस के पौत्र चंद्र कुमार बोस ने कहा कि क्या ब्रिटिश सरकार से दया की गुहार लगाने वाला शख़्स किसी सम्मान या संग्रहालय का हक़दार है.

विनायक दामोदर सावरकर. (फोटो साभार: फेसबुक/@savarkarsmarak)

नई दिल्ली: बीते सप्ताह नासिक से शिव सेना के सांसद हेमंत तुकाराम गोडसे ने संस्कृति मंत्रालय से सवाल किया था कि क्या यह बात सही है कि विनायक दामोदर सावरकर और अन्य स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के ‘बेहद कम’ म्यूजियम हैं व फिर हैं ही नहीं.

इंडिया टुडे के अनुसार, इसके जवाब में एक लिखित जवाब में 6 फरवरी को संस्कृति मंत्री जी. किशन रेड्डी ने बताया कि देशभर में स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के सम्मान में 15 संग्रहालय बनाए गए हैं, लेकिन सावरकर के नाम पर कोई म्यूजियम नहीं है.

इसके बाद बीते शुक्रवार को नेताजी सुभाष चंद्र बोस के पौत्र चंद्र कुमार बोस ने कटाक्ष करते हुए सवाल किया कि क्या यह हिंदुत्व नेता इनके नाम पर संग्रहालय या सम्मान पाने की योग्यता भी रखते हैं.

बोस ने शुक्रवार को ट्विटर पर संस्कृति मंत्री के बयान संबधी खबर का लिंक साझा करते हुए लिखा, ‘एक ऐसा शख्स, जिसने ब्रिटिश साम्राज्यवादी शासकों से लगातार रहम की अपील की हो, वह किसी संग्रहालय या सम्मान का हक़दार भी है?’

इंडिया टुडे से बात करते हुए बोस ने कहा, ‘पहले वे भी ब्रिटिश शासन से आजादी चाहते थे लेकिन जेल में रहने के बाद वो बदल गए. एक बार क़ैद से बाहर निकलने के बाद उनका ध्यान हिंदुत्व, हिंदू राष्ट्र आदि मुद्दों पर केंद्रित रहा, स्वाधीनता संग्राम पर नहीं.’

उल्लेखनीय है कि एक ओर जहां भाजपा सावरकर को एक स्वतंत्रता सेनानी और एक ‘बहादुर क्रांतिकारी’ के रूप में चित्रित करने को बेताब रहती है, तो दूसरी ओर इतिहासकार कहते रहे हैं कि सावरकर ने जेल से रिहा किए जाने को लेकर अंग्रेजों के सामने दया याचिका लगाई थी, जिसके बाद उन्हें जेल से छोड़ा गया. उसके बाद उन्होंने न सिर्फ स्वतंत्रता संग्राम का हिस्सा बनने से दूरी बरती बल्कि ब्रिटिश शासकों का सहयोग भी किया.

बीते साल महात्मा गांधी को समर्पित राष्ट्रीय मेमोरियल और संग्रहालय द्वारा इसकी मासिक पत्रिका का विशेष अंक हिंदुत्व नेता विनायक दामोदर सावरकर पर निकाला था, जिसकी विपक्ष ने खासी आलोचना की थी.

पत्रिका के ऐसा करने पर महात्मा गांधी के परपौत्र और गांधी पर कई किताबें लिख चुके तुषार गांधी ने कहा था कि यह हास्यास्पद है.

उनका कहना था, ‘गांधीवादी संस्थाओं को नियंत्रित करने वाले इस प्रशासन के साथ यह बार-बार होता रहेगा. यहीं पर गांधी की विचारधारा पर राजनीतिक विचारधारा के हावी होने का खतरा है. हम इसका विरोध करते रहे हैं. सावरकर की तुलना गांधी के साथ करना उनकी हताशा को भी दिखाता है. यह दिखाता है कि सावरकर के बारे में उनकी आस्था कितनी छिछली और कमजोर है.’

कांग्रेस नेता अधीर रंजन चौधरी का कहना था कि केंद्र सरकार गांधी स्मृति संस्था को उसी तरह नष्ट करने की कोशिश कर रहा है जैसे वह अन्य संस्थानों के साथ कर रहा है.

उन्होंने कहा था, ‘सावरकर को एक बड़ी शख्सियत के तौर पर प्रदर्शित किया जा रहा है. यह आरएसएस का एजेंडा है. लेकिन इतिहास ब्रिटिश साम्राज्यवाद के प्रति सावरकर के रुख को बयां करता है. वर्तमान सरकार को संतुष्ट करने के लिए देश के इतिहास से छेड़छाड़ की जा रही है. यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है.’

ज्ञात हो कि द वायर  ने अपने एक लेख में बताया है कि सावरकर ने अंग्रेज़ों को सौंपे अपने चर्चित माफ़ीनामे में लिखा था, ‘अगर सरकार अपनी असीम भलमनसाहत और दयालुता में मुझे रिहा करती है, मैं यक़ीन दिलाता हूं कि मैं संविधानवादी विकास का सबसे कट्टर समर्थक रहूंगा और अंग्रेज़ी सरकार के प्रति वफ़ादार रहूंगा.’

1948 में नाथूराम गोडसे द्वारा महात्मा गांधी की गोली मारकर हत्या के आठ आरोपी थे जिनमें से एक वीडी सावरकर भी थे, हालांकि उनके ख़िलाफ़ यह आरोप साबित नहीं हो सका और वे बरी हो गए.

1910-11 तक वे क्रांतिकारी गतिविधियों में शामिल थे. वे पकड़े गए और 1911 में उन्हें अंडमान की कुख्यात जेल में डाल दिया गया. उन्हें 50 वर्षों की सज़ा हुई थी, लेकिन सज़ा शुरू होने के कुछ महीनों में ही उन्होंने अंग्रेज़ सरकार के समक्ष याचिका डाली कि उन्हें रिहा कर दिया जाए.

इसके बाद उन्होंने कई याचिकाएं लगाईं. अपनी याचिका में उन्होंने अंग्रेज़ों से यह वादा किया कि ‘यदि मुझे छोड़ दिया जाए तो मैं भारत के स्वतंत्रता संग्राम से ख़ुद को अलग कर लूंगा और ब्रिट्रिश सरकार के प्रति अपनी वफ़ादारी निभाउंगा.’

अंडमान जेल से छूटने के बाद उन्होंने यह वादा निभाया भी और कभी किसी क्रांतिकारी गतिविधि में न शामिल हुए, न पकड़े गए.

वीडी सावरकर ने 1913 में एक याचिका दाख़िल की जिसमें उन्होंने अपने साथ हो रहे तमाम सलूक का ज़िक्र किया और अंत में लिखा, ‘हुजूर, मैं आपको फिर से याद दिलाना चाहता हूं कि आप दयालुता दिखाते हुए सज़ा माफ़ी की मेरी 1911 में भेजी गई याचिका पर पुनर्विचार करें और इसे भारत सरकार को फॉरवर्ड करने की अनुशंसा करें…’

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