निजी क्षेत्र में आरक्षण समय की ज़रूरत ​है

निजी क्षेत्र में आरक्षण की मांग पर विचार करने से पहले यह उल्लेख कर देना ज़रूरी है कि आरक्षण के मसले पर मेरिट, सामान्य श्रेणी के साथ अन्याय व निजी क्षेत्र की स्वायत्तता में बेमानी दख़ल जैसे तर्कों पर फ़ालतू चर्चा का अब कोई मतलब नहीं है.

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(प्रतीकात्मक फोटो: रॉयटर्स)

निजी क्षेत्र में आरक्षण की मांग पर विचार करने से पहले यह उल्लेख कर देना ज़रूरी है कि आरक्षण के मसले पर मेरिट, सामान्य श्रेणी के साथ अन्याय व निजी क्षेत्र की स्वायत्तता में बेमानी दख़ल जैसे तर्कों पर फ़ालतू चर्चा का अब कोई मतलब नहीं है.

प्रतीकात्मक फोटो: रॉयटर्स
प्रतीकात्मक फोटो: रॉयटर्स

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने निजी क्षेत्र में आरक्षण की व्यवस्था लागू करने की हिमायत करते हुए इस पर राष्ट्रव्यापी बहस की मांग की है. कोई भी लोकतांत्रिक सोच रखनेवाला व्यक्ति इस विचार से असहमत नहीं हो सकता है.

असहमति आरक्षण या पॉज़िटिव अफरमेटिव एक्शन या रिक्रूटमेंट के लागू करने के तौर-तरीके के बारे में हो सकती है, और होनी भी चाहिए, लेकिन मेरिट या किसी ऐसे ही कुतर्क के सहारे इस मांग को ख़ारिज़ नहीं किया जा सकता है.

यह अलहदा बात है कि नीतीश कुमार की अपनी मंशा कितनी ईमानदार है. यह बात कहने का आधार यह है कि मुख्यमंत्री ने इसे अपनी निजी राय बतायी है. इस हिसाब से यह एक राजनीतिक दांव भी कहा जा सकता है.

बहरहाल, यह एक अलग मुद्दा है. जहां तक निजी क्षेत्र में आरक्षण का सवाल है, इसके पक्ष में अनेक ठोस तर्क हैं.

निजी क्षेत्र में आरक्षण की मांग की वैधता पर विचार करने से पहले यह उल्लेख कर देना ज़रूरी है कि आरक्षण के मसले पर मेरिट, सामान्य श्रेणी या अगड़ों के साथ अन्याय तथा निजी क्षेत्र की स्वायत्तता में बेमानी दख़ल जैसे तर्कों पर फ़ालतू चर्चा का अब कोई मतलब नहीं है.

संसद से सड़क और अदालतों तक दशकों तक ये चर्चाएं हुई हैं तथा आरक्षण के पक्ष में ठोस वैधानिक व्यवस्थाएं लागू हैं. आरक्षण कोई दया या दान नहीं है, यह कोई ग़रीबी मिटाओ योजना नहीं है, यह भी समझाया जा चुका है.

भारतीय संविधान के जिस हिस्से में आरक्षण-संबंधी प्रावधान हैं उनमें ‘प्रतिनिधित्व’ शब्द का प्रयोग हुआ है. इसका सीधा मतलब है कि सार्वजनिक जीवन के हर क्षेत्र में देश की वंचित आबादी का समुचित प्रतिनिधित्व होना चाहिए.

यह भी याद रखा जाना चाहिए कि जिन तबकों के लिए संवैधानिक आरक्षण की व्यवस्था है, आबादी में उनका हिस्सा तीन-चौथाई के क़रीब है. ये सब इसलिए कहना पड़ रहा है कि जब भी वंचितों के अधिकारों के बारे में बहस होती है, आरक्षण-विरोधी घिसे-पिटे तर्कों को बार-बार दोहराते हैं.

हमारे देश में वंचित समुदायों के लिए विशेष अवसर प्रदान करने की परंपरा सौ साल से अधिक पुरानी है, जब पुणे, मैसूर, त्रावणकोर आदि के रजवाड़ों ने शैक्षणिक संस्थाओं में पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण लागू किया था.

निजी क्षेत्र में आरक्षण की मौज़ूदा चर्चा पिछले साल फ़रवरी में तब शुरू हुई जब राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग ने इसकी अनुशंसा केंद्र सरकार से की. आयोग का कहना था कि सरकारी क्षेत्र में नौकरियां लगातार घट रही हैं, ऐसे में आरक्षण का विस्तार निजी क्षेत्र में करना होगा.

जो लोग यह शोर मचाते रहते हैं कि आरक्षण के कारण उन्हें अवसर नहीं मिल रहा है, उन्हें यह जानना चाहिए कि एक आकलन के मुताबिक शिक्षित लोगों के लिए देश में उपलब्ध कुल नौकरियों में मात्र 0.69 फ़ीसदी ही आरक्षित हैं यानी एक फ़ीसदी से भी कम.

वर्ष 2016-17 का आर्थिक सर्वे बताता है कि 2006 में सरकारी क्षेत्र में कार्यरत लोगों की संख्या 1.82 करोड़ थी, जो 2012 में घटकर 1.76 करोड़ हो गयी यानी उक्त अवधि में सरकारी नौकरियों में 3.3 फ़ीसदी की कमी आयी.

इसके बरक्स निजी क्षेत्र में 2006 में 87.7 लाख नौकरियां थीं, जो 2012 में बढ़ कर 1.19 करोड़ हो गयीं. यह 35.7 फ़ीसदी की बढ़त थी. नव-उदारवादी आर्थिक नीतियों की सबसे अधिक मार रोज़गार पर ही पड़ी है.

कुछ और ज़रूरी आंकड़ों पर नज़र डालते हैं. जनसंख्या के हिसाब से देश में 09 फ़ीसदी अनुसूचित जनजाति (एसटी), 19 फ़ीसदी अनुसूचित जाति (एससी) और 44 फ़ीसदी अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के लोग हैं. ध्यान रहे, जातिगत जनगणना के आंकड़े छुपा कर रखे गये हैं. अगर वे जारी हो जाएं तो ये आंकड़े बढ़ सकते हैं.

विभिन्न आकलनों की मानें तो एससी में 43 फ़ीसदी, एसटी में 29 फ़ीसदी और ओबीसी में 21 फ़ीसदी आबादी गरीबी रेखा से नीचे है. उच्च जातियों में यह आंकड़ा 13 फ़ीसदी है.

अब देखिये, राष्ट्रीय सैंपल सर्वे 2011-12 के आंकड़े क्या बता रहे हैं- माध्यमिक और उससे आगे की शिक्षा के हिसाब से एसटी में 21 फ़ीसदी, एससी में 17 फ़ीसदी और ओबीसी में 30 फ़ीसदी लोग शिक्षित हैं. उच्च जातियों में यह आंकड़ा 46 फ़ीसदी है. उच्च शिक्षा के क्षेत्र में हालत बेहद ख़राब है. एसटी के 03 फ़ीसदी, एससी के 04 फ़ीसदी, ओबीसी के 06 फ़ीसदी और उच्च जाति के 15 फ़ीसदी लोग उच्च शिक्षा प्राप्त हैं.

फाइल फोटो: पीटीआई
फाइल फोटो: पीटीआई

अब नौकरियों का हिसाब देखा जाये. अनियमित नौकरियों में एसटी के 83 फ़ीसदी, एससी के 75 फ़ीसदी और ओबीसी के 64 फ़ीसदी लोग हैं. नियमित रोज़गार में उच्च जाति का हिस्सा 70 फ़ीसदी है.

सरकारी क्षेत्र में एसटी और एससी का हिस्सा 09 और 18 फ़ीसदी है जो कि उनकी आबादी के अनुपात के क़रीब है, परंतु निजी क्षेत्र में यह आंकड़ा एसटी के लिए 03 फ़ीसदी और एससी के लिए 13 फ़ीसदी है. निजी क्षेत्र में उच्च जाति की भागीदारी अपनी आबादी के अनुपात से लगभग दुगुनी 39 फ़ीसदी है.

यह भी रेखांकित करना ज़रूरी है कि सरकारी नौकरी में वंचित तबकों की भागीदारी मुख्य रूप से निचली या कौशलरहित श्रेणियों में है. अध्ययन बताते हैं कि 60 फ़ीसदी से अधिक सरकारी सफ़ाई कर्मचारी अनुसूचित जाति से हैं.

इन आंकड़ों को अगर हम आर्थिक-सामाजिक सर्वेक्षण के अध्ययन के साथ रखकर देखें, तो निष्कर्ष यही निकलता है कि संविधान में वंचितों के प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित करने का जो उद्देश्य निर्धारित किया गया है, उसमें सात दशकों में बेहद निराशाजनक प्रगति हुई है.

आरक्षण के विरुद्ध दिये जाने वाले सभी तर्क इन आंकड़ों के सामने ध्वस्त हो जाते हैं. प्रताड़ना, शोषण, अपमान, कल्याण योजनाओं की बंदरबांट जैसे अन्य पहलू भी हैं, जिनका संज्ञान लिया जाना चाहिए. मजदूरों के मेहनताने से लेकर उनके अधिकारों का जो हनन होता रहा है, अभी उसका लेखा-जोखा लिया जाना तो बाक़ी ही है.

वर्ष 2005 में उच्च शिक्षा संस्थानों में ओबीसी आरक्षण का जो नियमन हुआ था, उसमें ग़ैर-सरकारी सहायता प्राप्त संस्थाओं में भी आरक्षण का प्रावधान है, पर एक दशक से अधिक समय बीत जाने के बाद भी उसे अमली जामा नहीं पहनाया जा सका है.

वर्ष 2004 के नवंबर में 218 बड़े औद्योगिक घरानों और कॉरपोरेट संस्थाओं ने तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से मुलाक़ात कर एक पत्र दिया था जिसमें सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े लोगों को सक्षम बनाने के लिए अफ़रमेटिव एक्शन के माध्यम से गंभीरता से प्रयास करने का आश्वासन दिया गया था.

तब वैधानिक तौर पर आरक्षण का ज़ोरदार विरोध भी दर्ज कराया गया था. लेकिन, यह बात दावे से कही जा सकती है कि कुछ गिने-चुने प्रयासों के अलावा कॉरपोरेट समूहों ने इस भरोसे का मान नहीं रखा.

बाबासाहेब आंबेडकर की यह बात हमेशा ध्यान में रखी जानी चाहिए कि सामाजिक विषमताओं के ख़ात्मे के बिना सिर्फ़ आर्थिक समस्याओं के आधार पर नीतियों का अंबार लगा देना कोई समाधान नहीं है और यह गोबर के टीले पर महल खड़ा करने जैसा होगा.

पिछले कुछ सालों से वैश्विक मंदी और मुनाफ़ाख़ोरी की बढ़ती प्रवृत्ति ने शिक्षा और रोज़गार के क्षेत्र में भारी संकट पैदा किया है. सरकारें भी अपनी जवाबदेही से लगातार पीछे हटती जा रही हैं. रोज़गार में कमी अब निजी क्षेत्र में भी है, निजी शिक्षण संस्थाओं की गुणवत्ता संदेह के घेरे में है.

ऐसी स्थिति में वंचित समुदायों के संवैधानिक अधिकारों के प्रति सचेत रहना होगा. निजी क्षेत्र में आरक्षण इस दिशा में एक बड़ी पहल होगी. इसके साथ ही आरक्षण के समर्थन और विरोध में खड़े सामान्य नागरिकों को बेहतर शिक्षा और रोज़गार बढ़ाने के लिए भी सरकारों पर दबाव बनाना होगा.

ऐसा नहीं हुआ तो आरक्षण का पूरा लाभ भी नहीं मिल सकेगा और आरक्षण के दायरे से बाहर के समुदायों को स्वार्थी समूह भड़काकर अपने हितों को साधते रहेंगे. समय-समय पर लगभग सभी राजनीतिक दलों ने निजी क्षेत्र में आरक्षण की मांग का समर्थन किया है. अब उनकी भी परीक्षा की घड़ी आ रही है.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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