देश की बड़ी आबादी ‘अमृतकाल’ के अमृत से वंचित क्यों है

भारतीय मिथकीय संदर्भों में अमृत-विष की अवधारणा समुद्र मंथन से जुड़ती है, जहां मोहिनीरूपधारी विष्णु ने चालाकी से सारा अमृत देवताओं को पिला दिया था. आज मोदी सरकार ने आर्थिक संपदा व संसाधनों को प्रभुत्व वर्ग के हाथों में केंद्रित करते हुए मोहिनी की तरह अमृत का पूरा घड़ा ही उनके हाथ में दे दिया है.

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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी. (फाइल फोटो: पीटीआई)

भारतीय मिथकीय संदर्भों में अमृत-विष की अवधारणा समुद्र मंथन से जुड़ती है, जहां मोहिनीरूपधारी विष्णु ने चालाकी से सारा अमृत देवताओं को पिला दिया था. आज मोदी सरकार ने आर्थिक संपदा व संसाधनों को प्रभुत्व वर्ग के हाथों में केंद्रित करते हुए मोहिनी की तरह अमृत का पूरा घड़ा ही उनके हाथ में दे दिया है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी. (फोटो: पीटीआई)

कोई पूछे कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2047 में देश की आजादी के सौ साल पूरे होने तक की अवधि को अमृतकाल क्यों करार दिया और वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने 2023-24 के बजट को इस अमृतकाल का पहला बजट क्यों बताया है तो या तो कोई जवाब नहीं आता या उनकी ओर से जवाब देने वाले वैदिक ज्योतिष तक की शरण गहने लगते हैं. बताते हैं कि इस ज्योतिष के अनुसार अमृतकाल ऐसा महत्वपूर्ण समय है, जिसमें ज्यादा से ज्यादा आनंद के द्वार खुलते हैं और कोई भी नया काम के शुरू करने के लिए उसको सबसे शुभ माना जाता है.

लेकिन उत्तर प्रदेश के वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक डाॅ. रामबहादुर वर्मा कहते हैं कि भारतीय संदर्भों में अमृत व विष की कोई भी अवधारणा जितनी सुरों-असुरों द्वारा किए गए समुद्र मंथन से जुड़ती है, किसी और से नहीं जुड़ती. कथा है कि इस मंथन में समुद्र से अमृत निकला तो सुरों-असुरों में उसके बंटवारे को लेकर विवाद हो गया. तब भगवान विष्णु ने मोहिनी रूप धरकर उनको खुद अमृत बांटने का प्रस्ताव दिया. लेकिन उस पर सहमति हो गई और सुर-असुर अमृतपान के लिए अलग-अलग पंक्तियों में बैठ गए तो मोहिनीरूपधारी विष्णु ने चालाकी बरतकर सारा अमृत देवताओं को पिला दिया. राहु नामक असुर उनकी चालाकी ताड़कर छद्मवेश में देवताओं की पंक्ति में जा बैठा और अमृतपान करने में सफल हो गया तो जैसे ही विष्णु को इसका पता चला, उन्होंने उसका सिर धड़ से अलग कर दिया.

बहरहाल, केंद्र सरकार द्वारा अमृतकाल में कई अमृतनामधारी योजनाएं भी संचालित की जा रही हैं और कहा जा रहा है कि देश विश्व की पांचवें नंबर की अर्थव्यवस्था तो बन ही चुका है, सबसे तेज बढ़ती अर्थव्यवस्था भी है, इसलिए पूरा विश्व उसकी ओर देख रहा है. देखे भी क्यों नहीं, उसका ‘सामर्थ्य’ (कायदे से लाचारगी) कि वह 80 करोड़ लोगों को मुफ्त राशन दे रहा और घर-घर नल का जल, बिजली व शौचालय उपलब्ध करा रहा है. हर किसी पर अमृत वर्षा हो रही है और हर व्यक्ति अमृतपान कर रहा है! लेकिन हकीकत?

डाॅ. वर्मा के मुताबिक, ज्यादातर देशवासी नफरत का हलाहल पीने को मजबूर हैं. समुद्र मंथन से निकले हलाहल को तो भगवान शंकर ने अपने कंठ में धरकर लोगों को बचा लिया था, पर आज कोई शंकर नहीं है. दूसरी ओर 1991 में अपनाई गई नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के तहत आम लोगों से, जिनमें ज्यादातर पिछड़े व दलित शामिल हैं, आजादी के बाद उन्हें मिले कुछ एक लाभों को छीनकर छोटे से प्रभु वर्ग को सौंपने की जो शुरुआत हुई थी, मोदी सरकार उसे खासी तेजी से आगे बढ़ा रही है. वह आर्थिक संपदा व प्राकृतिक संसाधनों को इस प्रभुत्व वर्ग के हाथों में केंद्रित करते हुए मोहिनी की तरह अमृत का पूरा घड़ा ही उनके हाथ में दे दे रही है. स्वाभाविक ही यह वर्ग अमृत छककर उत्साहपूर्वक ‘मोदी-मोदी’ रट रहा और उनके विरोध को देश का विरोध बता रहा है.

प्रसंगवश, इस वर्ग के अमृतपान की एक झलक गत दिनों ऑक्सफैम इंटरनेशनल द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट में भी मिलती है, जिसके अनुसार देश के एक प्रतिशत अमीरों के पास उसकी कुल संपत्ति का 70 प्रतिशत केंद्रित हो गया है. रिपोर्ट के अनुसार, देश के अरबपतियों की पूरी संपत्ति पर दो प्रतिशत कर लगाया जाए तो तीन वर्ष के लिए कुपोषित लोगों के पोषण के लिए 40,423 करोड़ रुपये मिल जाएंगे.

गौतम अडानी के ही 2017-21 के बीच के लाभ पर एकमुश्त दो प्रतिशत कर लिया जाए तो 1.79 लाख रुपये जुटाए जा सकते हैं, जो 50 लाख से अधिक प्राथमिक विद्यालयों के अध्यापकों के एक वर्ष के वेतन के बराबर है. लेकिन बात इतनी-सी ही नहीं है. ऊपर की दस प्रतिशत आबादी के पास देश की दौलत का 90 प्रतिशत है, जिसमें अधिकतर ऊंची जातियों के लोग हैं. ऐसे में क्या आश्चर्य कि कांग्रेस नेता राहुल गांधी अमृतकाल को मित्रकाल कहकर खारिज कर रहे हैं.

डाॅ. रामबहादुर वर्मा कहते हैं कि देश के धन-दौलत और संसाधनों का ही नहीं, सरकारी नौकरियों का अमृत भी एक छोटा-सा वर्ग ही चख रहा है, जो खुद को सामान्य या सवर्ण कहता है और देश की आबादी के महज 20 प्रतिशत के आसपास हैं. केंद्रीय कार्मिक मंत्रालय द्वारा एक जनवरी 2016 को जारी आंकड़ों के हवाले से वे बताते हैं कि केंद्र की ग्रुप ‘ए’ की नौकरियों में 67.66 प्रतिशत पर यही वर्ग काबिज है, जबकि जो दलित व पिछड़े आबादी के 80 प्रतिशत हैं, वे महज 32.34 प्रतिशत पर. इसी तरह ग्रुप ‘बी’ के पदों में सामान्य वर्ग का 61.38 प्रतिशत पर कब्जा है, जबकि दलितों तथा पिछड़ों के हिस्से में महज 38.62 प्रतिशत नौकरियां हैं. ग्रुप ‘सी’ के भी 51.36 प्रतिशत पदों पर सामान्य वर्ग का ही कब्जा है. जहां तक उच्च शिक्षा का प्रश्न है, 2019 में एक आरटीआई के जवाब में बताया गया था कि केंद्रीय विश्वविद्यालयों के प्रोफेसरों, एसोसियेट प्रोफेसरों और असिस्टेंट प्रोफेसरों के पदों पर क्रमशः 95.2, 92.90 और 76.12 प्रतिशत सवर्ण हैं.

13 अगस्त, 2019 को संसद में प्रस्तुत एक रिपोर्ट के अनुसार नौकरशाही के प्रमुख पदों पर भी इस सामान्य वर्ग का ही असामान्य वर्चस्व है. केंद्र सरकार के 89 सचिवों में अनुसूचित जातियों व अनुसूचित जनजातियों का सिर्फ एक-एक सदस्य है, जबकि अन्य पिछड़ी जातियों का एक भी नहीं है. केंद्रीय मंत्रालयों व विभागों में तैनात कुल 93 एडीशनल सेक्रेटरियों मे भीं महज छह अनुसूचित जाति के और पांच अनुसूचित जनजाति के हैं, जबकि अन्य पिछड़ी जातियों का एक भी नहीं है. 275 जॉइंट सेक्रेटरियों में महज 13 अनुसूचित जाति के, पांच अनुसूचित जनजाति के और 19 अन्य पिछड़ी जातियों के, जबकि शेष सभी सवर्ण है. डिप्टी सेक्रेटरी के कुल 79 पदों में सात पर अनुसूचित जाति, तीन पर अनुसूचित जनजाति, 21 पर अन्य पिछड़ी जातियों और 48 पर सवर्णों का कब्जा है.

वरिष्ठ दलित चिंतक एचएल दुसाध की मानें, तो मोदी सरकार सतता में आने के बाद से ही देश की शक्ति के समस्त स्रोतों को जन्मजात सुविधाभोगी वर्ग के हाथ में सौंपने की दिशा में अभूतपूर्व कदम उठा रही है. इसके चलते देश में गगनचुंबी अपार्टमेंटों/भवनों के 80-90 प्रतिशत फ्लैट इसी वर्ग के पास हैं- महानगरों से कस्बों तक में बड़ी दुकानों व शॉपिंग मॉल्स का 80-90 प्रतिशत भी. चार से दस लेन की सड़कों पर चमचमाती गाड़ियों का जो सैलाब नजर आता है, वह भी 90 प्रतिशत से अधिक इसी वर्ग का है. तिस पर मीडिया पर भी इसी वर्ग का कब्जा है.

वे कहते हैं कि यह सरकार आजादी के बाद जतन से खड़े किए गए सार्वजनिक क्षेत्र के आाधारभूत उद्यमों को निजीकरण की आड़ में एक-एककर अपने चहेते पूंजीपति घरानों को सौंप रही है. इससे न केवल दलितों-पिछड़ों का आरक्षण खत्म हो रहा है (क्योंकि निजी क्षेत्र में आरक्षण लागू नहीं होता) बल्कि देश की आर्थिक संपदा का भी आम लोगों के लिए अहितकारी संक्रेंद्रण हो रहा है, जिसकी संविधान में मनाही है. इस मनाही को दरकिनार कर शिक्षा व चिकित्सा से लेकर सड़क व रेल यातायात और उड्डयन आदि सब-कुछ चहेते पूंजीपति वर्ग के हाथों में सौंपा जा रहा है.

दुसाध बताते हैं कि ग्लोबल जेंडर गैप की 2021 की रिपोर्ट भी इस अमृतकाल की पोल खोलती है, जिसके अनुसार भारत महिला सशक्तिकरण के मोर्चे पर बांग्लादेश, नेपाल, भूटान, म्यांमार, श्रीलंका आदि से भी पीछे चला गया है और जो हालात हैं, उनमें महिलाओं को आर्थिक समानता के लिए 257 साल प्रतीक्षा करनी पड़ सकती है. जुलाई 2022 के तीसरे सप्ताह में वर्ल्ड पावर्टी क्लॉक से पता चल चुका है कि भारत वर्ल्ड पावर्टी कैपिटल अर्थात गरीबी की विश्व राजधानी बन चुका है, जबकि शिक्षा क्षेत्र की एक अंतरराष्ट्रीय रिपोर्ट के अनुसार घटिया शिक्षा के मामले में वह दक्षिण अफ्रीका के मलावी जैसे छोटे-से देश के बाद दूसरे स्थान पर है.

इन हालात में वे चाहते हैं कि विपक्षी दल इसे 2024 के लोकसभा चुनाव का मुद्दा बनाएं और ऐलान करें कि सत्ता में आने पर वे बेची गई सरकारी परिसंपत्तियों और कंपनियों की समीक्षा कराएंगे और बन पड़ा तो फिर से इनका राष्ट्रीयकरण करेंगे, जबकि डाॅ. वर्मा चेताते हैं कि ‘देश के आम लोग तब तक अमृतपान नहीं कर पाएंगे, जब तक उस मोहिनी को पहचानकर उससे सावधान नहीं हो जाते, जिसने असुरों को झांसा देकर सारा अमृत सुरों को पिला दिया था.’

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)