किसी मसाला फिल्म के एक गाने का ऑस्कर के लिए नामांकन भारतीय जनता को हर्षोन्मादित कर देता है. लेकिन, एक विदेशी चैनल द्वारा ज्ञात तथ्यों को दोहराने वाली डॉक्यूमेंट्री, जिसे भारत में दिखाया भी नहीं जाएगा, देश के ख़िलाफ़ एक साज़िश हो जाती है.
चार साल पहले भारत के प्रधानमंत्री को फिलिप कोटलर प्रेसिडेंट अवॉर्ड से नवाजा गया. इस पुरस्कार का नामकरण प्रसिद्ध मार्केटिंग गुरु के नाम पर किया गया था. यह एक ऐसा सम्मान था, जिसके बारे में न इससे पहले कभी सुना गया था, न इसके बाद. इस पुरस्कार का खूब बखान किया गया, हालांकि इसके बारे में आलोचकों ने सवाल उठाए थे. इसका सर्टिफिकेट देने वाले व्यक्ति जगदीश शेठ, जो एक अमेरिकी यूनिवर्सिटी में मैनेजमेंट के प्रोफेसर हैं, को इसके अगले साल पद्मभूषण पुरस्कार से सम्मानित किया गया.
यह एक ‘विदेशी’ नाम द्वारा दिया गया सम्मान था और यह इस बात का ‘सबूत’ था कि दुनिया भारत के नरेंद्र मोदी के राज में हो रही तरक्की को स्वीकार कर रही है. मोदी और उनके अनुयायी विदेशी सम्मानों का खूब ढोल पीटते हैं, लेकिन अगर विदेश से कहीं से आलोचना आती है, तो हर कोई उस पर टूट पड़ता है.
इनकी तरफ से दिए जाने वाले तर्क जाने-पहचाने हैं: उन्हें क्या पता है, भारत में क्या हो रहा है? वे हमारे आंतरिक मामलों में टिप्पणी करने वाले कौन होते हैं? यह भारत को अस्थिर करने की एक साजिश है. आजादी के साढ़े सात दशकों के बाद भी हम आज तक इतने असुरक्षित हैं कि एक डॉक्यूमेंट्री या एक निजी कंपनी का एक विश्लेषण हमारे देश की बुनियादी हिला सकता है.
और पिछले कुछ समय से विदेशी आलोचना की रफ्तार काफी बढ़ी है.
पहले, 2002 की गुजरात हिंसा, जिसमें हत्यारे गिरोहों द्वारा सैकड़ों मुस्लिमों को मार डाला गया था, पर केंद्रित बीबीसी की डॉक्यूमेंट्री आई. इसका पहला हिस्सा पूरी तरह से इसके बारे में था और इसमें यह उजागर किया गया कि ब्रिटिश सरकार को अपने फॉरेन ऑफिस से एक गोपनीय रिपोर्ट मिली थी, जिसमें राज्य के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को जिम्मेदार ठहराते हुए उन पर उंगली उठाई गई थी. ब्रिटेन के तत्कालीन सचिव का इस बाबत इंटरव्यू किया गया, जिन्होंने इसकी पुष्टि की.
इसके लिए दंगे में अपने परिवार के सदस्यों को गंवाने वाले एक ब्रिटिश नागरिक का भी इंटरव्यू किया गया. इसने उस बर्बर घटना की यादें ताजा कर दीं और दिल को झकझोर कर रख दिया. उन दिनों, जब वे पत्रकारों से बात किया करते थे, एक बीबीसी रिपोर्टर को दिए गए नरेंद्र मोदी के पुराने साक्षात्कारों में नरेंद्र मोदी के इस सिहरा कर रख देने वाली स्वीकारोक्ति को सुना जा सकता है कि इस हिंसा को लेकर उन्हें जिस एक बात का पछतावा है, वह यह कि वे मीडिया पर सही तरह से मैनेज नहीं कर पाए. जिसकी कसर उन्होंने अब पर्याप्त तरीके से निकाल ली है.
इस डॉक्यूमेंट्री ने भारत में काफी हलचल पैदा की और दिल्ली की मोदी सरकार ने सोशल मीडिया पर सख्त रुख अपनाते हुए उसे साफ शब्दों में इस डॉक्यूमेंट्री को नहीं दिखाने के लिए कह दिया- और वास्तव में इसकी कोई क्लिप भी ट्विटर पर नहीं दिखाई जा सकती थी. छात्रावासों में जिन विद्यार्थियों ने इसे देखने-दिखाने की कोशिश की, उन्हें हिरासत में ले लिया गया. डॉक्यूमेंट्री का दूसरा भाग, जो 2014 के बाद मोदी के शासन में भारत के बारे में था, में फिर से सांप्रदायिक लिचिंग आदि मुद्दों को उठाया गया था. यह एपिसोड मीडिया में आने से पहले ही गायब हो गया.
इस सबके दौरान भाजपा और इसके समर्थकों ने बीबीसी को भ्रष्ट और उससे भी बुरा कहा. और इनकम टैक्स विभाग ने- अनुमानों के मुताबिक ही- बीबीसी के दिल्ली और मुंबई दफ्तरों पर टैक्स चोरी के सबूतों की तलाश में 48 घंटे से ज्यादा समय तक छापेमारी. उन्होंने स्पष्टीकरण दिया कि यह एक ‘छापा’ नहीं, सर्वे था. यह जो भी था, लेकिन इसने न सिर्फ बीबीसी को बल्कि दूसरे मीडिया संगठनों, भारतीय और विदेशी दोनों, को यह स्पष्ट संदेश दिया कि आलोचना और पड़ताल को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा.
बीबीसी डॉक्यूमेंट्री के बाद एक अमेरिकी रिसर्च फर्म हिंडनबर्ग द्वारा अडानी समूह पर एक विस्तृत रिपोर्ट प्रकाशित की गई. इस पर बाजार ने काफी उग्र प्रतिक्रिया दी और 10 दिनों के भीतर अडानी समूह के 118 बिलियन डॉलर स्वाहा हो गए.
इसके बाद अडानी समूह के सीएफओ एक वीडियो में नजर आए, जिसमें उनके पीछे भारत का झंडा लहरा रहा था, जिसमें उन्होंने इस रिपोर्ट को को भारत पर हमला करार दिया. उन्होंने इसकी तुलना जालियांवाला बाग कत्लेआम से की. यह एक बेतुका बयान था, जिसके बाद उन्हें कम से कंपनी से बर्खास्त तो कर दिया जाना चाहिए था.
चूंकि भाजपा ने संसद के भीतर और बाहर हिंडनबर्ग पर या तो हमला किया है और इस शब्द के किसी भी जिक्र को, खासकर अगर वह मोदी के साथ जोड़कर किया जाए, को खामोश करा दिया है. सोशल मीडिया पर ऐसे मीम्स की बहार आ गई, जिसमें यह बताया गया था कि दुनिया भारत की तरक्की से जल रही है.
लेकिन यह सब 92 वर्षीय जॉर्ज सोरोस पर किए गए तीखे हमले के सामने कुछ नहीं था, जिन्होंने आशा के साथ एक भाषण में कहा था कि अडानी संकट मोदी को कमजोर करेगा और भारत में लोकतंत्र को मजबूत करेगा. मोदी समर्थक टेलीविजन चैनलों ने सोरोस का संबंध भारत के विभिन्न प्रकार के संगठनों और व्यक्तियों से जोड़ने का काम किया. और यहां तक कि कांग्रेस ने भी इसमें कूदते हुए कहा कि भारत में लोकतंत्र कमजोर होता है या मजबूत इसकी चिंता करना विपक्ष का काम है. (कांग्रेस के पास ‘विदेशी हाथ’, जिसका इस्तेमाल इंदिरा गांधी अक्सर किया करती थीं, का शिगूफा छोड़ने का कुछ पूर्व अनुभव है)
लेकिन सोरोस पर सबसे कठोर शब्दों का इस्तेमाल विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने किया. उन्होंने अरबपति सोरोस को ‘बूढ़ा, अमीर, पूर्वाग्रहग्रस्त और खतरनाक आदमी, जो नैरेटिव को बदलने के लिए संसाधनों का निवेश करते हैं’ बताया। पूर्व विदेश सचिव द्वारा इस्तेमाल की गई गैर-कूटनीतिक भाषा यह संकेत देती है कि सरकार सोरोस की टिप्पणी से विचलित हो गई थी.
विदेश के डर का संबंध उपनिवेशवाद से जोड़ा जा सकता है. इसकी सबसे अच्छी व्याख्या इतिहासकार, समाजविज्ञानी और यहां तक कि मनोविज्ञानी कर सकते हैं. भाजपा ‘1,200 साल की गुलामी’ की बात करती है, जिसका मतलब है कि भारत की गुलामी मुसलमानों के समय शुरू हुई, हालांकि कई आक्रमणकारी मुस्लिम थे ही नहीं.
और तब भी भारतीय मूल के किसी भी व्यक्ति का कोई सम्मान या उसकी कोई उपलब्धि, चाहे वह कितनी ही छोटी क्यों न हो- और इसमें अमेरिका में स्पेलिंग बी प्रतियोगिता में किसी बच्चे की जीत भी शामिल है- जश्न का मौका बन जाता है. भारतीयों का बड़ी विदेशी कंपनियों का सीईओ बनना भारत की श्रेष्ठ संस्कृति और हमारी शिक्षा व्यवस्था का सबूत है.
यह जवाहरलाल नेहरू द्वारा स्थापित वही व्यवस्था है, जिसकी आलोचना करते हुए मोदी और भाजपा थकते नहीं हैं. किसी मसाला फिल्म के एक गाने का ऑस्कर के लिए नामांकन भारतीय जनता को हर्षोन्मादित कर देता है. लेकिन, एक विदेशी चैनल द्वारा ज्ञात तथ्यों को दोहराने वाली डॉक्यूमेंट्री, जिसे भारत में दिखाया भी नहीं जाएगा, भारत के खिलाफ एक साजिश हो जाती है.
भारत को हर साल अलग-अलग देशों को मिलने वाली जी-20 की अध्यक्षता का मसला ही लें. इसे लेकर जिस तरह का माहौल बनाया गया है, वह कुछ ऐसा आभास कराता है कि भारत को अब विश्वगुरु की पदवी दे दी गई है और भारत के प्रधानमंत्री को विश्व के नेता के तौर पर स्वीकार लिया गया है और भारत लोकतंत्र की जननी है.
यह काफी विरोधाभासी है कि जहां ‘विदेशी’ को शक की निगाह से देखा जाता है, वहीं, उसी समय हम उनकी अनुशंसा के लिए व्याकुल रहते हैं. ‘विदेश’ आज भी श्रेष्ठता की कसौटी है, जिनके बरक्स हम अपनी कीमत आंकते हैं. 1950 और 60 के दशक में ऑस्ट्रेलिया एक राष्ट्रीय हीनता ग्रंथि के दौर से गुजरा, जिसे ‘सांस्कृतिक शर्मिंदगी’ कहकर पुकारा गया. हम शायद इसी का अनुभव कर रहे हैं.
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