उत्तर प्रदेश: क्या लोकसभा चुनाव से पहले दलितों और पिछड़ों की एकता मुमकिन होगी?

बाबासाहब डाॅ. भीमराव आंबेडकर ने दलितों में तो डाॅ. राममनोहर लोहिया ने पिछड़ी जातियों में सत्ता तथा शासन में हिस्सेदारी की भूख पैदा की और उन्हें संघर्ष करना सिखाया. आज की तारीख़ में इन दोनों के अनुयायियों को एकजुट करके ही हिंदुत्ववादी व मनुवादी ताकतों को निर्णायक शिकस्त दी जा सकती है.

(फाइल फोटो: पीटीआई)

बाबासाहब डाॅ. भीमराव आंबेडकर ने दलितों में तो डाॅ. राममनोहर लोहिया ने पिछड़ी जातियों में सत्ता तथा शासन में हिस्सेदारी की भूख पैदा की और उन्हें संघर्ष करना सिखाया. आज की तारीख़ में इन दोनों के अनुयायियों को एकजुट करके ही हिंदुत्ववादी व मनुवादी ताकतों को निर्णायक शिकस्त दी जा सकती है.

(फाइल फोटो: पीटीआई)

उत्तर प्रदेश की राजनीति में यह सवाल इन दिनों सत्तापक्ष व विपक्ष (दूसरे शब्दों में कहें तो सत्तारूढ़ भाजपा व उसके विरोधियों) दोनों को बेचैन किए हुए हैं कि क्या समाजवादी पार्टी (सपा) इन दिनों दलितों व पिछड़ों की जिस एकता के फेर में है, वह आगामी लोकसभा चुनाव से पहले संभव हो पाएगी?

खासकर तब जब नियति ने अतीत में इन जातीय समुदायों के नायकों बाबासाहब डाॅ. भीमराव आंबेडकर व डाॅ. राममनोहर लोहिया को ऐसी एकता की मंजिल तक पहुंचने का समय नहीं दिया और बीती शताब्दी के आखिरी दशक में बदली हुईं परिरिथतियों में कांशीराम व मुलायम सिंह यादव ने सपा व बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के गठबंधन की शक्ल में इसकी दोबारा कोशिश की तो ‘हवा हो गए जय श्रीराम’ तक पहुंचाकर भी उसे ऐसे अंतर्विरोधों व ग्रंथियों के हवाले कर गए, जो अखिलेश व मायावती द्वारा गत लोकसभा चुनाव में ‘बीती ताहि बिसारि दे’ की तर्ज पर किए गए गठबंधन के बावजूद जस के तस रह गए.

जाहिर है कि इस सवाल का जवाब उसके पीछे की बेचैनी जितना ही कठिन है. भले ही सपा नेता स्वामी प्रसाद मौर्य द्वारा पिछले दिनों अचानक गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरितमानस की महिलाओं, दलितों व पिछड़ी जातियों के प्रति अपमानजनक चौपाइयों के विरुद्ध मुखर होने को ऐसी ही एकता की कोशिश के रूप में देखा जा रहा है – यहां तक कि इससे बेचैन सपा की प्रतिद्वंद्वी भाजपा द्वारा भी – और प्रदेश की सारी राजनीतिक पार्टियों की लोकसभा चुनाव की तैयारियां इस सवाल के जवाब पर ही निर्भर करने की संभावना हैं.

फिर भी, इन कोशिशों में मुब्तिला सपा का मनोबल ऊंचा है, क्योंकि अभी कुछ साल पहले तक उसकी प्रबलतम प्रतिद्वंद्वी रही बसपा (जो खुद को प्रदेश के दलितों की एकमात्र प्रतिनिधि मानती आई है और एक समय सपा के लोहियावाद के बरक्स अपने आंबेडकरवाद को इस तरह प्रचारित करती थी कि लोहिया की जन्मभूमि तक में बाबासाहब व लोहिया एक दूजे के ‘दुश्मन’ बन गए थे.) न तीन में रह गई है और न तेरह में.

उसकी जगह लेने वाली कोई नई दलित या आंबेडकरवादी पार्टी भी अस्तित्व में नहीं ही है. उसके पराभव के बीच उसका दलित वोटबैंक भी बिखराव का शिकार हो गया है और गत विधानसभा चुनाव में उसके एक हिस्से ने सपा के प्रति अपनी पुरानी ग्रंथियों के कारण भाजपा का रुखकर उसकी सत्ता में वापसी का मार्ग प्रशस्त कर दिया, जबकि एक समय पूरे बहुमत से प्रदेश की सत्ता में आ चुकी बसपा के लिए अपना खाता खोलना तक मुश्किल कर दिया.

ऐसे में अकारण नहीं कि स्वामी प्रसाद मौर्य ने जो दिशा पकड़ी हुई है, कहा जाता है कि वह भाजपा की ओर चले गए दलितों, साथ ही पिछड़ों का प्रवाह सपा की ओर करने के पार्टी के इरादे से जुड़ी है.

पार्टी को कई कारणों से इसमें सफलता मिलने की भी उम्मीद है. पहला कारण यह कि भाजपा लाख कोशिशें कर ले, अपने सवर्ण प्रभुत्व से छुटकारा नहीं पा सकती और वह रामचरितमानस की विवादित चौपाइयों का जितना बचाव करेगी, उसके हिंदुत्व (जिसकी आड़ में वह ऊंची जातियों के साथ दलित व पिछड़ी जातियों को भी साध लेने के अपने पुरोधा दीनदयाल उपाध्याय का पुराना सपना साकार करने में लगी है.) के किले की दरारें उतनी ही चौड़ी होती जाएंगी, क्योंकि जागरूक दलित व पिछड़ों के लिए इस जाति अपमान को और सहना कठिन होगा.

ऐसे में सपा मुलायम व मायावती के काल की उनकी ग्रंथियों व अंतर्विरोधों को ‘नई सपा, नई हवा’ के नारे से जितना ज्यादा खोल व सुलझा लेगी, उतना ही लाभ में रहेगी.

इस लाभ के लिए वह कितनी आतुर है, इस बात को इस तथ्य से समझा जा सकता है कि उसने अपनी दो बेहद मुखर सवर्ण महिला नेताओं ऋचा सिंह और रोली तिवारी मिश्रा को स्वामी प्रसाद मौर्य के विरुद्ध बोलने के कारण पार्टी से निकाल दिया है और अपने सवर्ण विधायकों में कथित रूप से अंदर-अंदर सुलगते असंतोष की भी फिक्र नहीं कर रही.

इस कारण और कि गत दो लोकसभा व दो विधानसभा चुनावों के नतीजे गवाह हैं कि उसके लिए एम-वाई समीकरण से बाहर जाकर अतिरिक्त जन-समर्थन जुटाए और भाजपाई हिंदुत्व के किले में दरार डाले बगैर जीत का मुंह देख पाना संभव नहीं है. दूसरे शब्दों में कहें तो यह उसके लिए जीवन-मरण का प्रश्न है.

सपाई कहते हैं कि बसपा के रामअचल राजभर जैसे पुराने दिग्गजों के बूते (जो कभी बसपा की नींव की ईंट हुआ करते थे और अब सपाई हो गए हैं) सपा के लिए दलित-पिछड़ा ग्रंथियों व अंतर्विरोधों से पार पाना कतई कठिन नहीं होगा.

वैसे भी बसपा के अवसान के बाद सपा ही दलितों व पिछड़ों की एकमात्र स्वाभाविक पार्टी बची है. तिस पर सपाई इसको लेकर भी उत्साहित हैं कि प्रदेश के दलित मतदाता वरिष्ठ दलित नेता उदितराज (जो भाजपा के प्रति आकर्षण, फिर मोहभंग के बाद कांग्रेस में चले गए हैं.) के उस पुराने कथन को सही सिद्ध करने लगे हैं कि मायावती में कोई सुरखाब के पर नहीं लगे कि दलित हर हाल में उनके वोटबैंक बने रहें. जहां भी उन्हें बेहतर विकल्प मिलेगा, वे वहां चले जायेंगे.

ऐसे में सवाल है कि गत विधानसभा चुनाव में दलितों का जो हिस्सा भाजपा के साथ चला गया, वह अब भूल सुधार करते हुए सपा में क्यों नहीं आ सकता, खासकर त​ब जब जिन मुलायम व मायावती की ग्रथियों के कारण दलितों व पिछड़ों की एकता ग्रंथियों व अंतर्विरोधों के हवाले हुई थी, उनमें मुलायम इस संसार को ही अलविदा कह गए हैं, जबकि मायावती का नेतृत्व अपनी चमक खोकर ‘न यूपी हमारी, न दिल्ली की बारी’ तक पहुंच चुका है.

लेकिन क्या यह एकता सचमुच इतनी ही आसान है? पूछिए तो जवाब मिलता है: आसान न हो, लेकिन इसे आसान बनाने के अलावा कोई रास्ता नहीं है.

किसे नहीं मालूम कि स्वाधीनता के पूर्व व बाद में बाबासाहब दलितों के मसीहा बनकर उभरे तो लोहिया ने सदियों से बेजान पिछड़ी जातियों में नई राजनीतिक चेतना पैदा की.

बाबासाहब ने दलितों में तो लोहिया ने पिछड़ी जातियों में सत्ता तथा शासन में हिस्सेदारी की भूख पैदा की और उन्हें संघर्ष करना सिखाया. आज की तारीख में इन दोनों के अनुयायियों को एकजुट करके ही हिंदुत्ववादी व मनुवादी ताकतों को निर्णायक शिकस्त दी जा सकती है.

वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक डाॅ. रामबहादुर वर्मा की मानें तो दलितों व पिछड़ों कहें या आंबेडकर व लोहिया के अनुयायियों की एकता के पर्याप्त ऐतिहासिक आधार भी हैं. 1934 में कांग्रेस के भीतर कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी बनी तो बाबासाहब ने समाजवादियों से कहा था, ‘तुम किसी भी दिशा में जाओ, जातिवाद के राक्षस से तुम्हें दो-दो हाथ करने ही पड़ेंगे. जब तक इस राक्षस को नहीं मारोगे, तब तक कोई आर्थिक व सामाजिक परिवर्तन नहीं ला सकोगे.’

दरअसल, बाबासाहब चाहते थे कि सत्ता की ‘मास्टर की’ शूद्रों के हाथ में आए, क्योंकि इसी चाभी से तरक्की के सारे दरवाजे खुलते हैं, जबकि 1956 में जातिप्रथा की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में लोहिया ने लिखा था, ‘17 करोड़ का शूद्र समुदाय जब तक व्यक्तित्व प्राप्त नहीं करता, तब तक यह दलदल सूखेगा नहीं.’

इसीलिए वे दलितों, पिछड़ी जातियों व महिलाओं को विकास के विशेष अवसर देना चाहते थे. उन्होंने नारा दिया था ‘सोशलिस्टों ने बांधी गांठ, पिछड़ा पावै सौ में साठ’.

जाहिर है कि अनुसूचित जातियों के प्रति लोहिया के मन में बाबासाहब जैसा ही दर्द था. वे उन्हें अन्य जातियों के स्तर पर ले जाना चाहते थे. इसके लिए उन्होंने न सिर्फ जाति तोड़ो आंदोलन चलाए, बल्कि द्रविड़ मुन्नेत्र कषगम की जातिप्रथा समाप्ति के आंदोलन का समर्थन भी किया था.

लोहिया दलितों के प्रति बाबासाहब की सेवाओं के भी प्रशंसक थे. अलबत्ता, उन्हें बाबासाहब का मात्र दलितों का नेता बनना पसंद नहीं था. उन्होंने सोशलिस्ट पार्टी के कार्यकर्ताओं से कहा था कि वे दलितों के बीच जाएं और उनमें आत्मसम्मान व साहस की भावनाएं पैदा करें.

डाॅ. रामबहादुर वर्मा के अनुसार, लोहिया की बड़ी आकांक्षा थी कि बाबासाहब उनकी सोशलिस्ट पार्टी में शामिल हो जाएं, लेकिन बाबासाहब के असामयिक निधन के चलते इस बाबत बातचीत नहीं हो सकी. दूसरी ओर बाबासाहब भी लोहिया से मिलना चाहते थे और इसके लिए उन्होंने लोहिया को पत्र लिखकर पूछा था कि एक साथ आने के लिए हम लोग क्या कर सकते हैं?

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)