अमजद इस्लाम अमजद: मोहब्बत और प्रतिरोध के शायर का जाना…

स्मृति शेष: बीते 10 फरवरी को पाकिस्तान के प्रतिष्ठित शायर, नाटककार, अनुवादक अमजद इस्लाम अमजद का देहांत हो गया. मुशायरे की भाषा में कहें तो वे ‘भीड़ खींचने वाले’ शायर थे. उनकी अभूतपूर्व शोहरत मोहब्बत की थीम को शानदार तरीके से बरतने के उनके हुनर पर आधारित थी.

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अमजद इस्लाम अमजद. (फोटो साभार: फेसबुक/@amjad.islam.amjad.official)

स्मृति शेष: बीते 10 फरवरी को पाकिस्तान के प्रतिष्ठित शायर, नाटककार, अनुवादक अमजद इस्लाम अमजद का देहांत हो गया. मुशायरे की भाषा में कहें तो वे ‘भीड़ खींचने वाले’ शायर थे. उनकी अभूतपूर्व शोहरत मोहब्बत की थीम को शानदार तरीके से बरतने के उनके हुनर पर आधारित थी.

अमजद इस्लाम अमजद. (फोटो साभार: फेसबुक/@amjad.islam.amjad.official)

 फ़ना की राह पर कोई दोबारा जा नहीं सकता
गुज़रता पल कभी फिर से गुज़ारा जा नहीं सकता

-अमजद इस्लाम अमजद

हम जिंदा रहते हैं, एक दिन मर जाने के लिए. हम यहां सिर्फ इसलिए हैं ताकि वहां जा सके. हमारा हर कदम हमें उस अंधेरे की ओर ले जाता है, जिसमें हमारा समा जाना तय है- वह अंधकार जिसे भले और तार्किक आत्माओं द्वारा अमरता का नाम दिया गया है.

अमजद इस्लाम अमजद अमर हो गए. वे अब हमारे बीच नहीं हैं. लेकिन, वे उनके बारे में हमारी यादों में अपनी मौजूदगी महसूस कराते रहेंगे. वे अपने विस्तृत रचना-संसार के जरिये हमसे संवाद करते रहेंगे.

अमजद एक कवि, एक नाटककार, एक स्तंभकार, अनुवादक और एक यात्रा-वृत्तांत लेखक थे. हालांकि, उन्होंने ग़जलें और नज़्में दोनों ही लिखीं, लेकिन उनका असली महारत नज्मों में ही था. उन्होंने अपने साहित्यिक करिअर का आगाज़ 1960 के दशक के शुरुआत में किया, जब वे देशभर के मुशायरों में अपने शेर पढ़ते थे और जल्दी ही एक जाना-पहचाना नाम बन गए.

लेकिन उन्हें सेलेब्रिटी बनाया पाकिस्तान टेलीविजन पीटीवी पर 1979-80 पर प्रसारित टेलीविजन धारावाहिक वारिस ने. वे कहा करते थे कि वारिस से पहले, उनके पाठकों/श्रोताओं/दर्शकों की संख्या कुछ हजार थी, लेकिन वारिस के बाद यह बढ़कर चार करोड़ हो गई. फिर भी शायरी, नाटक की तुलना में उनकी पहली मोहब्बत और प्राथमिकता बनी रही.

अमजद इस्लाम अमजद, जिनका इंतकाल बीते 10 फरवरी को हो गया, मुशायरे की भाषा में कहें तो ‘क्राउड पुलर’ (भीड़ आकर्षित करने वाले) थे. उनकी जबरदस्त शोहरत, खासकर युवाओं के बीच, मोहब्बत के थीम को देखने के उनके तरीके पर टिकी थी.

मूल रूप से सियालकोट से ताल्लुक रखने वाला अमजद का साधारण दस्तकार परिवार बंटवारे से पहले लाहौर आ गया था. अमजद- जिनका वास्तविक नाम मुहम्मद इस्लाम था- का जन्म 4 अगस्त, 1944 को लाहौर में हुआ था. उनका बचपन लाहौर के प्रसिद्ध फ्लेमिंग रोड पर बीता, जिस जगह की यादें उनके साथ हमेशा बनी रहीं.

उन्होंने मैट्रिकुलेशन का इम्तिहान 16 साल की उम्र में पास किया और उसी साल से उन्होंने शायरी करना भी शुरू कर दिया. हालांकि, अपने स्कूली और कॉलेज के दिनों में वे हास्य कहानियां लिखा करते थे, जिनका प्रकाशन ‘चांद’ पत्रिका में हुआ था, उन्होंने जल्दी ही यह महसूस कर लिया कि उनकी रचनात्मक क्षमता का वास्तविक प्रदर्शन सिर्फ शा’इरी के जरिये ही हो सकता है.

लेकिन इसी बीच एक दुखद घटना घटी. अमजद में क्रिकेट के खेल के प्रति जबरदस्त दीवानगी थी, मगर वे यूनिवर्सिटी की टीम में जगह नहीं बना सके. इससे उन्हें काफी धक्का लगा और वे काफी नाउम्मीद हुए, लेकिन बाद में उन्हें यह एहसास हुआ कि यह एक छिपा हुआ वरदान था. उन्होंने क्रिकेट का ख्याल अपने मन से निकाल दिया और अपने दिल और रूह को पूरी तरह से शायरी में झोंक दिया और क्रिकेट के मैचों से उन्हें जितनी कामयाबी और शोहरत मिलती, उससे कहीं ज्यादा कामयाबी और शोहरत उन्हें मुशायरों से मिली.

अपने शुरुआती दिनों में अमजद एक तरफ रूमानी-इंकलाबी शायरों साहिर लुधियानवी और फैज़ अहमद फैज़ से प्रभावित हुए और दूसरी तरफ जिगर मुरादाबादी से. बाद में वे अहमद नसीम कासमी से प्रभावित हुए, जो उनके उस्ताद भी बने.

उन दिनों जब जनरल अयूब खान की तानाशाही के खिलाफ जनता बगावत कर रही थी, अमजद ने एक इंकलाबी कविता, ‘हवा -ए-शहर-ए-वफा-शरां’ लिखी, जो हनीफ रमय द्वारा संपादित और काफी प्रसार वाली एक साहित्यिक पत्रिका ‘नुसरत’ में प्रकाशित हुई. लेकिन वक्त के बीतने के साथ अमजद की कविता का इंकलाबी स्वर गायब होने लगा और रोमांटिक और नियो-क्लासिक तत्व मजबूत होता गया.

बरज़ख  (मौत और रोज़-ए-हश्र (द डे ऑफ जजमेंट) के बीच का समय) उनकी कविताओं का पहला संग्रह था, जिसका प्रकाशन 1974 में हुआ. ‘सातवां दर’, ‘फिशार’, ‘जरा फिर से कहना’, ‘उस पार’, ‘सहर आसार’, ‘मोहब्बत ऐसा दरिया है’ और ‘जिंदगी के मेले में’ आदि अन्य संकलन इसके बाद आए. उनके सारे संग्रह एक ‘मेरे भी हैं कुछ ख्वाब’ नाम से एक एक जगह रचनावली के तौर पर 1999 में प्रकाशित हुए.

उन्होंने कुछ नाटकों, मसलन वारिस, दहलीज और रात आदि का भी प्रकाशन किया. उनकी किताब ‘नये पुराने’  क्लासिक चुनिंदा उर्दू कविता का शानदार और दिलचस्प मूल्यांकन है, जो बेहद पठनीय है.

अमजद की कविता का अनुवाद अंग्रेजी, इतालवी, तुर्की और अरबी में हुआ है. हाल ही में प्रकाशित ‘लाइट ऑफ द शैडो: पोएम्स ऑफ लव एंड अदर वर्सेज़’ अमजद की कविताओं का एक भारी भरकम, द्विभाषी संग्रह है, जिसे अंग्रेजी में बेदार बख्त द्वारा अनूदित किया गया है.

महज एक महीने पहले अमजद साहेब ने यह किताब मुझे तोहफे में दी थी, जब लाहौर में मेरी उनसे मुलाकात इरफान जावेद के घर पर हुई थी. वे उदास-से थे, लेकिन वहां इकट्ठा हुए लोगों में से कोई यह अंदाजा नहीं लगा सकता था कि यह हमारी उनसे आखिरी मुलाकात है.

पेशेवर करिअर की बात करें तो, अमजद पहले वकील बनना चाहते थे, लेकिन उनके मेंटर आक़ा बैदर बख्त ने उन्हें उर्दू में मास्टर्स की डिग्री हासिल करने की सलाह दी. उसके बाद अमजद ने अध्यापन को अपने करिअर के तौर पर चुना. लाहौर के गवर्नमेंट मुहम्मडन एंग्लो ओरिएंटल (MAO) कॉलेज से एसोसिएट प्रोफेसर के तौर पर रिटायरमेंट के बाद उन्होंने उर्दू साइंस बोर्ड, द चिल्ड्रन लाइब्रेरी कॉम्प्लेक्स में और पंजाब करिकुलम एंड टेक्स्टबुक बोर्ड के अध्यक्ष के तौर पर काम किया.

अमजद एक लोकप्रिय शायर थे- मुशायरा आयोजित करने वालों की शब्दावली में ‘भीड़ खींचने वाले’ थे. वे ‘जनता’ -ज्यादातर युवा- को अपनी शायरी और उसके पढ़ने के अंदाज से मोहित कर देते थे. उनकी अभूतपपूर्व शोहरत मोहब्बत की थीम को शानदार तरीके से बरतने के उनके हुनर पर आधारित थी.

प्रेम विश्व साहित्य का सबसे पुराना, लोकप्रिय और ताकतवर थीम है- साथ ही साथ यह एक बहुत बड़ी रूढ़ि भी है. प्रेम को अकल्पनीय, विलक्षण तरीकों से सोचा गया है. उसका अनुभव विभिन्न तरीकों से किया गया है. उसे अलग-अलग तरीके से सुनाया गया है. उसे अनेक तरीकों से रंगा और व्याख्यायित किया गया है. इसलिए हर कलाकार प्रेम की थीम को अपने अद्वितीय तरीके से बरतता है.

श्रोताओं/पाठकों को प्रभावित करने की प्रेम की अनोखी शक्ति को समझते हुए अमजद ने इसके एक खास विचार को गढ़ा और इसे सामान्य तौर पर अपने गज़लों में और विशेष तौर पर नज्मों में खूब इस्तेमाल किया. यह विचार मौजूदा मानकों और समाज के मूल्यों को चुनौती नहीं देता और शारीरिक सुखों के खतरनाक इलाकों में जाने से बचता है.

‘शारीरिक सुख एक जोखिम भरा इलाका है’ यह आधुनिकतावादी लेखकों का विचार था. जनता को अनुशासित करने के लिए सत्ता लोगों के शरीर पर नियंत्रण कायम करना चाहती है. आधुनिक लेखकों ने शारीरिक सुखों के उन्मुक्त अनुभवों को लिखकर इसकी मुखालफत की.

अमजद ने प्रेम की ख्वाहिशों के बारे में लिखा, बजाय जिस्मानी अनुभवों के बारे में. उनकी प्रसिद्ध कविताएं ‘मोहब्ब्त की एक कहानी’, ‘एक लड़की’, ‘जरा सी बात’, ‘तुम’ और ‘हवा सीटी बजाती है’, उनके विचार को सर्वश्रेष्ठ तरीके से मूर्त रूप देती हैं.

जब कोई लेखक तजुर्बे की जगह ख्वाहिश के बारे में लिखता है, तब वह इसे आगे बढ़ाने और अनुभव को टाल देने को प्राथमिकता देता है. ‘मोहब्बत की एक नज्म’ और दूसरी कविताओं में भी शायर उन्मुक्त, कामातुर मिलन को भी सुरुचिपूर्ण तरीके से प्रकृति पर प्रतिबिंबित कर देता है.

अमजद की कविता ज्यादा रोमांटिक, अशरीरी (प्लेटोनिक),कल्पनाशील और आदर्शवादी ज्यादा है और शारीरिक तौर पर यथार्थपरक कम है. यह यादों, सपनों, विचारों, फंतासियों और प्रेम के ख्वाब को जगाती है. उनके अपने ही शब्दों में जो भी कुछ है, मोहब्बत का फैलाव है- हालांकि वहदत-उल-वुजूदी (अस्तित्व की एकता) के अर्थ में नहीं.

अमजद जानते थे कि कल्पना, आखिरकार सपने और फंतासियां स्वच्छंद हो सकते हैं और रिवाजों को नकार और जंजीरों को तोड़ सकती हैं

जंजीर कोई भी हो
चांदी, लोहे या रिवाजों की
मोहब्ब्त इसे तोड़ सकती है.

लेकिन वे कल्पना की स्वच्छंदता पर भी लगाम लगाते हुए और प्लेटोनिक प्रेम की संभावित अराजक ताकत को जंजीरों में बांधते हुए और मोहब्बत की आग को वैध मानकों के दायरे में लाते हुए दिखते थे.

दिलचस्प तरीके से, इस तरह की कविता, मुल्क के लिए कविता के साथ मेल खाती है. अमजद ने राष्ट्रीय नायकों के लिए कई कविताएं लिखीं. उन्होंने पाकिस्तानी सरकार द्वारा पेश किए गए और पाठ्यपुस्तकों और आधिकारिक मीडिया द्वारा लोकप्रिय बनाए हुए राष्ट्र के विचार को सीने से लगाया.

यही कारण है कि उर्दू आलोचक फतेह मुहम्मद मलिक ने अमजद को एक ऐसा शायर करार दिया जिसकी समझदारी 6 सितंबर, 1965 की तारीख से निकली- इस दिन को पाकिस्तानी राष्ट्र डे ऑफ डिफेंस (रक्षा दिवस) के तौर पर मनाता है. इस बिंदु पर अमजद की लोकप्रियता ने एक अलग ही रास्ता अख्तियार किया जो हबीब जालिब, फैज़ और इफ्तिख़ार आरिफ से अलग था.

दिलचस्प बात यह है कि अपनी शायरी के शुरुआती इंकलाबी तत्व को याद करते हुए अमजद ने प्रतिरोध की कविता की दो मुख्तलिफ लड़ियों का तर्जुमा किया. इनमें से एक फिलिस्तीन में इजरायल के अत्याचारों के खिलाफ अरबी कवियों द्वारा लिखी गई कविताएं थीं. ‘अक्स’ शीर्षक वाला यह संग्रह 1976 में प्रकाशित हुआ यानी जनरल जिया-उल-हक द्वारा देश में मार्शल लॉ लगाए जाने से एक साल पहले.

ज़िया की तानाशाही के दौर में उर्दू कवि पाकिस्तान के संविधान और मानवाधिकारों के उल्लंघनों और जिया के इस्लामीकरण के खिलाफ प्रतिक्रिया को लेकर बंटे हुए थे. लेखकों का एक धड़े ने तानाशाह का विरोध किया, दूसरे ने उसका समर्थन किया.

1981 में ‘काले लोगों की रोशन नज़्में’ संग्रह प्रकाशित हुआ. यह अफ्रीकी कवियों की कविताएं थीं, जिसे अमजद ने उर्दू में अनुवाद किया था. इसमें ‘प्रतिरोध की कविता’ के कई तत्व थे- एक तरह का लेखन जो शोषण और गुलाम बनाने के मकसद से मजहब का इस्तेमाल करने वाले धरती के खुदाओं से सीधे बात करता है.

मिसाल के लिए ‘खुदा को बताओ’ शीर्षक पहली कविता में, एक काला कवि एक अज्ञात व्यक्ति को संबोधित करते हुए अपना संदेश ईश्वर तक पहुंचाने के लिए कहता है कि -‘बीमार, लाचार, उजड़े और भुला दिए गए लोग रो-रोकर उसका आशीर्वाद मांग रहे हैं/ वे ईश्वर को अपने स्वर्ग से उतरकर उनके मलिन घरों में, जिस नरक से वे घिरे हुए हैं, उसमें आकर उन्हें देखने के लिए पुकार रहे हैं.

ज़िया के इस्लामीकरण की पृष्ठभूमि में देखें, तो ऐसी कविता एक तरह का अप्रत्यक्ष प्रतिरोध थी और पाकिस्तानी जनता तक इसे पहुंचाकर अमजद अपने तरीके से हुक्मरानों को कह रहे थे, घुमाकर ही सही, कि ‘हम भी एक जिंदा नरक में रह रहे हैं.’

(लेखक आलोचकऔर कथाकार हैं, जो लाहौर की यूनिवर्सिटी ऑफ पंजाब में पढ़ाते हैं.)

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