कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: विनोद जी की आधुनिकता रोज़मर्रा के निम्न-मध्यवर्गीय जीवन में रसी-बसी रही है. उनके यहां जो स्थानीयता आकार पाती है वह मानवीय उपस्थिति, मानवीय विडंबना और मानवीय ऊष्मा की एक त्रयी को चरितार्थ, उत्कट और सघन करती है.
तीन वर्ष पहले उत्तर-पूर्व दिल्ली में हुई हिंसा को लेकर भूतपूर्व सिविल सेवकों, राजनयिकों, पुलिस अधिकारियों के ‘संवैधानिक आचरण समूह’ ने कुछ भूतपूर्व न्यायाधीशों और सिविल सेवकों की एक नागरिक समिति बनाकर उनसे इस हिंसा की पड़ताल करने और एक तथ्यपरक रिपोर्ट देने का आग्रह किया. यह रिपोर्ट पिछले पिछले अक्टूबर में सार्वजनिक कर दी गई. उसका शीर्षक है ‘अनिश्चित न्याय’.
समिति में शामिल सदस्यों में एक सर्वोच्च न्यायालय के भूतपूर्व न्यायाधीश, उच्च न्यायालय के एक मुख्य न्यायाधीश, दिल्ली और पटना उच्च न्यायालयों के भूतपूर्व दो न्यायाधीश और केंद्र सरकार के एक भूतपूर्व गृह सचिव थे. इस रिपोर्ट पर समूह द्वारा तीन घंटे का एक लंबा विचार-विमर्श सत्र इस हिंसा के तीन वर्ष होने पर आयोजित हुआ.
हमारा समय ऐसा है कि हम अनेक अनिश्चयों से घिरे हैं जिनमें से कुछ तो मनुष्य की नश्वरता आदि को लेकर शाश्वत हैं. पर ऐसे बहुत से हैं जो इस समय राजनीति, सत्ता, धर्म, मीडिया आदि ने या तो उपजाए हैं या गहरे-उत्कट किए हैं. इनमें दुर्भाग्य से मानवीय अधिकारों, मानवीय गरिमा, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और न्याय से संबंधित अनिश्चय हैं.
दिल्ली हिंसा के तीन बरस बाद स्थिति यह है कि दिल्ली पुलिस के अदालत में दाखि़ल एक शपथ पत्र में कहा गया है कि कुल 758 प्रथम सूचनापत्र रजिस्टर किए गए हैं, 367 मामलों में चार्जशीट अदालत में दाखि़ल की गई हैं, 384 मामलों में जांच तहकीकात चल रही है और सिर्फ 62 मामलों में अदालती कार्रवाई शुरू हो पाई है.
विचार सत्र में पांच खंडों में काफ़ी एकाग्र चर्चा हुई जिसमें नागरिक समिति के सदस्यों के अलावा दो पत्रकार-संपादकों और दो वकीलों ने हिस्सा लिया. पहला खंड था जिसमें हिंसा का कैसे धीरे-धीरे माहौल बनता गया इस पर था. दूसरा सांप्रदायिक हिंसा के विस्फोट और राज्य अधिकरणों द्वारा प्रतिक्रिया पर, तीसरा यूएपीए क़ानून का उपयोग और उसके अंतर्गत न्यायसम्मत जांच-परख होने की संभावना और चौथी जवाबदेही के उनुत्तरित प्रश्नों पर.
नागरिक रिपोर्ट में यह पाया गया है कि फरवरी 2020 में हुई हिंसा का मूल सीएए क़ानून को लेकर दिसंबर 2019 में शुरू हुए प्रतिरोध को, जो पूरी तरह से शांत और अहिंसक था, सत्तारूढ़ दल के राजनेताओं और मीडिया के एक हिस्से द्वारा राष्ट्र-विरोधी, देशद्रोही आदि क़रार देने में था.
‘गोली मारो सालों को’ जैसे नारे राजनेताओं ने खुलेआम फैलाए और टीवी चैनलों पर हुई बहसों के विश्लेषण से स्पष्ट नतीजा निकलता है कि उन्होंने सीएए को लेकर जो घटनाएं हो रही थीं उन्हें हिंदू बनाम मुसलमान के दुष्ट द्वैत में फंसाया और मुस्लिम संप्रदाय के विरुद्ध बिल्कुल अपरीक्षित और निराधार पूर्वाग्रह पोसे.
घृणा और झूठ का बड़ा क़िस्सा गढ़ा गया और नतीजन समाज का एक बड़ा हिस्सा मुस्लिम संप्रदाय के विरुद्ध फैलाई जा रही अफ़वाहों आदि का यक़ीन करने लगा.
समिति ने यह भी पाया है कि पिछले महीनों में जानबूझकर बनाए गए हिंदू-मुस्लिम द्वैत और घृणा फैलाऊ भाषणों आदि ने सांप्रदायिक हिंसा को जन्म दिया. यह भी नोट किया गया है कि सीएए विरोधी धरने जहां-जहां थे, जैसे कि चांद बाग, कर्दमपुरी, जाफ़राबाद, मुस्तफ़ाबाद और खजूरी ख़ास, वहां ज़ाहिर है कि हिंसा के दौरान सीएए-विरोधी वृत्ति पर लगाम लगाने की कोशिश भी की गई.
समिति इस नतीजे पर भी पहुंची है कि दिल्ली पुलिस ने राजनेताओं द्वारा दिए गए घृणा फैलाऊ भाषणों के विरुद्ध 23 फरवरी के पहले या उस दिन भी कोई रोधक कार्रवाई नहीं की. बल्कि समिति को ऐसा साक्ष्य मिला है कि जिससे पता चलता है कि मुस्लिमों के खिलाफ़ भीड़ के हमलों और हिंसा में पुलिस की कुछ हिस्सेदारी भी थी. इस मामले की अदालत द्वारा संयमित स्वतंत्र जांच होना चाहिए.
समिति ने यह मत व्यक्त किया है कि 24 और 25 फरवरी को बार-बार दोहराया गया कि स्थिति नियंत्रण में है जबकि तब भी हो रही हिंसा साफ़ नज़र आ रही थी. पुलिस बल की संख्या भी नहीं बढ़ाई गई जबकि ख़तरे को लेकर सबसे अधिक शिकायतें फ़ोन पर तभी गई थीं. समिति ने यह भी कहा है कि स्वयं दिल्ली सरकार द्वारा इस दौरान संप्रदायों के बीच संवाद स्थापित करने और स्थिति को शांत करने के लिए कोई कोशिश नहीं की गई.
समिति ने यह भी पाया है कि यूएपीए के अंतर्गत आतंकवादी कार्रवाई करने या देश की एकता, अखंडता, सुरक्षा, आर्थिक सुरक्षा या भारत की संप्रभुता के विरुद्ध कोई सामग्री रिकॉर्ड पर नहीं है और इसलिए कोई कार्रवाई शायद ही वैध हो सके. समिति ने यह नोट किया है कि जिन व्यक्तियों ने घृणा भरे भाषण दिए और हिंसा के लिए लोगों को उकसाया उनके विरुद्ध कोई कार्रवाई नहीं हुई है. यूएपीए के अंतर्गत कार्रवाई क़ानूनी प्रक्रिया को ही दंड बना देगी.
समिति ने एक बहुलतापरक समाज, उसमें संप्रदायों के बीच सद्भाव और संवाद, समझ और सामंजस्य ज़रूरी माना है और कहा है कि इस सांप्रदायिक दुर्घटना ने एक बहुसांस्कृतिक समाज में शांति और सद्भाव और बहुलता को शक्ति बनाने के प्रयास को ख़तरे में डाला है. हिंसा की और राहें खोलने और घृणा के स्थापत्य को स्थापित करने का काम किया है.
संप्रदाय मरहम लगाने और सद्भाव स्थापित करने की अपनी क्षमता में कम़जोर हो गए हैं. आगे की राह यही हो सकती है कि समता-स्वतंत्रता और भाईचारे के संयुक्त व्यवहार में बद्धमूल राज्य न्याय के लिए प्रयत्नशील हो.
विलंबित स्वीकृति
यों तो विनोद कुमार शुक्ल को अपने साहित्य के लिए किसी व्यापक स्वीकृति की दरकार नहीं है. वे दशकों से, लगभग चुपचाप, अपने लिखने में व्यस्त रहे हैं और तरह-तरह के पुरस्कार और मान्यताएं उन्हें, लगभग अनायास, मिलती रही हैं. हमारे बड़े लेखकों में उन जैसा अजातशत्रु कोई और नहीं हैं. वे साहित्य की तथाकथित मुख्यधारा से अलग-थलग रहे हैं और गोष्ठियों-समारोहों आदि में भी बहुत कम और वह भी संकोच से जाते रहे हैं.
फिर भी, अमेरिकन पेन का ‘लाइफटाइम अचीवमेंट अवॉर्ड’ उन्हें मिलना बेहद हर्षवर्द्धक घटना है. राजनांदगांव और रायपुर में लगभग ज़िद कर महदूद लेखक संसारभर में समादृत अमेरिकी पुरस्कार पा जाए यह ग़ौर करने की बात है.
यह पुरस्कार देते हुए चयन-समिति ने जो वक्तव्य दिया है उसमें कहा गया है कि ‘… शुक्ल ने ऐसा साहित्य रचा है जो हम जैसे आधुनिक को समझते हैं उसे बदला है.’ यह निश्चय ही एक बड़ी उपलब्धि है और इसलिए बहुत प्रासंगिक हो जाती है कि इससे पहले कभी किसी भारतीय लेखक को आधुनिक की समझ को बदलने वाला नहीं कहा गया.
हम सभी जानते हैं कि विनोद जी की आधुनिकता रोज़मर्रा के निम्न-मध्यवर्गीय जीवन में रसी-बसी रही है. उनके यहां जो स्थानीयता आकार पाती है वह मानवीय उपस्थिति, मानवीय विडंबना और मानवीय ऊष्मा की एक त्रयी को चरितार्थ, उत्कट और सघन करती है.
इसमें संदेह नहीं कि विनोद जी की स्थानीयता और कॉस्मिक वितान में कोई फांक नहीं है: वे दोनों को साधते हैं. उनका साहित्य अंतत: यह प्रतिपादित करता जान पड़ता है कि मानवीय जिजीविषा और मानवीय उद्यम उपराजेय हैं. भले देर से, उनके साहित्य के महत्व को पश्चिम में पहचाना-सराहा जा रहा है यह अच्छी बात है. साहित्य का जो घर उन्होंने बनाया है वह रोशनी में दिप रहा है और हम, एक बार फिर, उस रोशनी में नहा रहे हैं.
इस अवसर पर यह याद करना अप्रासंगिक नहीं है कि विनोद जी का पहला कविता संग्रह ‘लगभग जयहिंद’ ‘पहचान’ सीरीज में प्रकाशित हुआ था. ‘नौकर की कमीज’ उपन्यास लिखने के लिए उन्हें मध्य प्रदेश शासन की पहली मुक्तिबोध फेलोशिप मिली थी और उन्हें रज़ा द्वारा स्थापित युवा कविता के लिए पहला पुरस्कार ‘रज़ा पुरस्कार’ मिला था.
(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं.)