देश में मनुस्मृति के प्रति मोह छूटता क्यों नहीं दिख रहा है?

बीएचयू के धर्मशास्त्र मीमांसा विभाग ने ‘भारतीय समाज में मनुस्मृति की प्रयोज्यता’ पर शोध का प्रस्ताव दिया है. 21वीं सदी की तीसरी दहाई में जब दुनियाभर में शोषित उत्पीड़ितों में एक नई रैडिकल चेतना का संचार हुआ है, 'ब्लैक लाइव्ज़ मैटर' जैसे आंदोलनों ने विकसित मुल्कों के सामाजिक ताने-बाने में नई सरगर्मी पैदा की है, तब अतीत के स्याह दौर की याद दिलाती इस किताब की प्रयोज्यता की बात करना दुनिया में भारत की क्या छवि बनाएगा?

/
(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रवर्ती/द वायर)

बीएचयू के धर्मशास्त्र मीमांसा विभाग ने ‘भारतीय समाज में मनुस्मृति की प्रयोज्यता’ पर शोध का प्रस्ताव दिया है. 21वीं सदी की तीसरी दहाई में जब दुनियाभर में शोषित उत्पीड़ितों में एक नई रैडिकल चेतना का संचार हुआ है, ‘ब्लैक लाइव्ज़ मैटर’ जैसे आंदोलनों ने विकसित मुल्कों के सामाजिक ताने-बाने में नई सरगर्मी पैदा की है, तब अतीत के स्याह दौर की याद दिलाती इस किताब की प्रयोज्यता की बात करना दुनिया में भारत की क्या छवि बनाएगा?

(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रवर्ती/द वायर)

समय की निहाई अक्सर बेहद निर्मम मालूम पड़ती है.

कब विश्व की क्लासिकीय रचनाएं- जिनके बिखेरे ज्ञान के मोतियों पर अक्सर बात होती रहती है, कभी-कभी जबरदस्त विवाद का भी सबब बन सकती हैं, यह नहीं कहा जा सकता या कब कल के अग्रणी विचारक, क्रांतिकारी- जिन्होंने युग को प्रभावित किया- वह कुछ मामलों में कब अपने समय की सीमाओं में ही कैद नज़र आ जाएंगे, इसकी भी भविष्यवाणी नहीं की जा सकती.

वरना ऐसे कहां संभव था कि दुनिया के महानतम नाटककारों में शुमार शेक्सपीयर, जो आज भी विश्व भर में सराहे जाते हैं और लोग उनके कलम से ताकत हासिल करते हैं, वह भी अपने कथित ‘यहूदी विरोध के लिए’ (सामीवाद विरोध) आलोचना का शिकार बन जाते. जब उनके बहुुचर्चित नाटक मर्चेंट आफ वेनिस के ‘खलनायक’ शायलाॅक के चित्रण को लेकर आक्षेप खड़े किए जाते या फ्रांसिसी क्रांति (1789) के सबसे प्रभावशाली राजनीतिक समूह के तौर पर जाने वाले जैकोबिन, स्त्रियों के प्रति उनके संकीर्ण नज़रिये के रेखांकित किए जाते  या गौतम बुद्ध, जिन्होंने अपने राजपाट को त्याग दिया और जो सत्य की तलाश में निकल पड़े, उन्हें भी महिलाओं को लेकर उनके उद्गारों या रुख के लिए आज भी आलोचना झेलनी पड़ती.

पिछले दिनों ऐसा ही प्रसंग हिंदुस्तान में तारी हुआ जब तुलसीदास द्वारा रचित रामचरितमानस- जिसमें स्त्रियों और उत्पीड़ित जातियों के कथित तौर पर अपमानजनक चित्रण को लेकर बहस चल पड़ी; एक खेमा जहां इस बात को सिरे से खारिज कर रहा था, वहीं दूसरा खेमा उन सबूतों को एक के बाद पेश कर रहा था कि उसकी बात किस तरह सही है .

अभी यह मसला बहसतलब था कि ऐसी रचनाओं को आधुनिक युग की संवेदनाओं के मद्देनज़र किस तरह देखा जाए. क्या ऐसी रचनाओं का संपादन किया जाए या उन्हें बिल्कुल त्याग दिया जाए, उस पृष्ठभूमि में देश के अग्रणी केंद्रीय विश्वविद्यालय में शुमार काशी हिंदू विश्वविद्यालय का धर्मशास्त्र मीमांसा विभाग ऐसा प्रस्ताव लेकर सामने आया है, जिससे यह विवाद थमने के बजाय और बढ़ने के ही आसार लग रहे हैं.

प्रस्ताव था उस किताब की उपयोगिता/प्रयोज्यता को लेकर शोध करने का, जो मध्यकाल के पहले से रचित बताई जाती है और जो विगत एक सदी से अधिक समय से लगातार विवादों के केंद्र में रही है, यह किताब किस तरह ‘दलितों एवं स्त्रियों को अपमानित ढंग से पेश करती है,’ उसे रेखांकित करते हुए आंदोलन भी चले हैं.

‘भारतीय समाज में मनुस्मृति की प्रयोज्यता’ (Applicability of the Manusmriti in Indian society) इस विषय पर शोध की योजना का यह प्रस्ताव इस शिक्षा संस्थान के धर्मशास्त्र मीमांसा विभाग से पेश हुआ है- जहां पहले से ही प्राचीन भारतीय ग्रंथों के अध्ययन के तहत मनुस्मृति की पढ़ाई होती है.

इस संबंध में जारी अधिसूचना के मुताबिक, इसके लिए केंद्र सरकार द्वारा इंस्टिट्यूशंस ऑफ एमिनेंस स्कीम के तहत प्रदत्त फंड का इस्तेमाल किया जाएगा. मालूम हो कि इस योजना के तहत देश के दस अग्रणी सार्वजनिक संस्थानों को एक हजार करोड़ रुपये तक की राशि रिसर्च और डेवलपमेंट के लिए दी जाने वाली है.

यह प्रस्ताव दो वजहों से सर्वथा अनुचित दिख रहा है:

एक ऐसे वक्त़ में जब तमाम सार्वजनिक विश्वविद्यालय के फंड में कटौती हो रही है और उन्हें अपने जरूरी खर्चे भी पूरे करने में जबरदस्त दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है, उस समय ऐसे वायवीय मसले पर फंड दिए जा रहे हैं, जिस पर पहले भी काफी अध्ययन हो चुके हैं.

दूसरे, याद किया जा सकता है कि लगभग एक सदी पहले डॉ. आंबेडकर की अगुवाई में आधुनिक समय में हुए पहले दलित विद्रोह में मनुस्मृति का बाकायदा एक सार्वजनिक समारोह में दहन किया गया था (25 दिसंबर 1927) जब डॉ. आंबेडकर ने उसे ‘प्रतिक्रांति का सुसमाचार’ (gospel of counter revolution) घोषित किया था, तत्कालीन मुंबई प्रांत के महाड़ में संपन्न इस सत्याग्रह में सूबे के विभिन्न भागों से वहां पहुंचे हजारों दलितों और अन्य न्यायप्रेमियों ने हिस्सा लिया था.

इस अवसर पर हुए सम्मेलन में इस संबंध में जिस प्रस्ताव को पढ़ा गया वह ध्यान देने योग्य है, जिसे गंगाधर सहस्त्रबुद्धे नामक सामाजिक कार्यकर्ता ने पढ़ा था, इसमें कहा गया था:

‘…इस सम्मेलन का यह स्पष्ट मत है कि मनुस्मृति, अगर हम उन श्लोकों पर गौर करें जिसमें शूद्र जातियों को अपमानित किया गया है, उसने उनकी प्रगति को बाधित किया है, उनकी सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक गुलामी को स्थायी बनाया है…. वह किसी भी रूप में धार्मिक या पवित्र किताब कहलाने लायक नहीं है. और इसी बात को जुबां देने के लिए यह सम्मेलन ऐसी धार्मिक किताब का अंतिम संस्कार कर रहा है जिसने लोगों को विभाजित किया है और जिसने मानवता को नष्ट किया है.’ (पेज 251, Mahad The Making of the First Dalit Revolt, Anand Teltumbde, Navayana, 2017)

इस सत्याग्रह के 23 साल बाद जब भारत के संविधान को देश की जनता को सौंपा जा रहा था, तब संविधान की मसविदा समिति के प्रमुख डॉ. आंबेडकर ने ऐलान किया था कि इसे अपनाने के साथ ‘मनु का शासन समाप्त हो गया है.’

मराठी के अग्रणी विद्वान, लेखक और सार्वजनिक बुद्धिजीवी प्रोफेसर नरहर कुरूंदकर (1932-1982) ने मनुस्मृति  को लेकर अपने किताब (जिसका अंग्रेजी में अनुवाद मधुकर देशपांडे ने किया है- Manusmriti – Contemporary Thoughts, Prof Narhar Kurundkar, प्रकाशक, देशमुख एंड कंपनी, पुणे, 1993) में इसका विश्लेषण करते हुए एक महत्वपूर्ण बात जोड़ी थी. उनके मुताबिक,

‘Protecting and justifying an existent unequal social structure and providing a religious brief for maintaining economic as well as other interests of the upper classes is the main object of this law book. This book bestows rights on Brahmins and Kshatriyas as against the lower classes, and it advocates enslavement of all women.’  ( Page 6, -do-)

अभी पिछले साल की बात है जब दिल्ली उच्च अदालत की न्यायाधीश सुश्री प्रतिभा सिंह ने एक सार्वजनिक कार्यक्रम में मनुस्मृति की तारीफ करके विवाद को जन्म दिया था. ‘जातिवाद और वर्गवाद’ को बढ़ावा देने के लिए उनकी तीखी आलोचना हुई थी, दरअसल फिक्की द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में उन्होंने कहा था कि मनुस्मृति ‘महिलाओं को सम्मानजनक दर्जा देती है.’

यह सोचना मासूमियत की पराकाष्ठा होगी कि वाराणसी की इस अग्रणी यूनिवर्सिटी, जिसकी स्थापना आज़ादी के आंदोलन के दौरान हुई थी, से जुड़े अकादमिक मनुस्मृति  की अंतर्वस्तु या उससे जुड़े असंख्य विवाद आदि को लेकर परिचित नहीं होंगे, वह इस बात को लेकर स्मृतिलोप का शिकार हो गए होंगे कि संविधान मसविदा समिति के अध्यक्ष डॉ. आंबेडकर ने इस किताब का सार्वजनिक दहन क्यों किया था या क्या कहा था?

21वीं सदी की तीसरी दहाई में जबकि दुनियाभर में शोषित उत्पीड़ितों में एक नई रैडिकल चेतना का संचार हुआ है, जबकि ‘ब्लैक लाइव्ज़ मैटर’ जैसे आंदोलनों ने विकसित मुल्कों के सामाजिक ताने-बाने में एक नई सरगर्मी पैदा की है, उस वक्त़ अतीत के स्याह दौर की याद दिलाती इस किताब की प्रयोज्यता अर्थात एप्लीकेबिलिटी की बात करना, दुनिया में भारत की क्या छवि बनाएगा?

निस्संदेह, मनुस्मृति की प्रयोज्यता की खोज का यह प्रयास एक तरह से न केवल भारत में सामाजिक समानता एव उत्पीड़न विरोध के लिए जारी तमाम आंदोलनों को एक तरह से अवैध, निरर्थक साबित करता है तथा साथ ही मनुस्मृति को नए सिरे से सैनिटाइज्ड/साफ-सुथराकृत ढंग से पेश करने की कवायद को नई वैधता प्रदान करता है.

निश्चित यह पूरी योजना संघ परिवार के हिंदुत्व वर्चस्ववाद के व्यापक चिंतन से मेल खाती है, आज़ादी के बाद जब संविधान का मसविदा बन रहा था तब इन्ही ताकतों ने हर कदम पर उसका विरोध किया था. गोलवलकर और सावरकर, जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और हिंदू महासभा के शीर्षस्थ नेतृत्व में थे, उनके वक्तव्य इस बात की बार-बार ताईद करते हैं

व्यक्तिगत पसंदगी/नापसंदगी की बात अलग आखिर मनुस्मृति के प्रति समूचे हिंदुत्व ब्रिगेड में इस किस्म का सम्मोहन क्यों दिखता है?

समझा जा सकता है कि मनुस्मृति का महिमामंडन जो ‘परिवार’ के दायरों में निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है उससे दोहरा मकसद पूरा होता है:

– वह मनुस्मृति को उन तमाम ‘दोषारोपणों से मुक्त’ कर देती है जिसके चलते वह रैडिकल दलितों से लेकर तर्कशीलों के निशाने पर हमेशा रहती आई है

– दूसरे, इससे संघ परिवारी जमातों की एक दूसरी चालाकी भरे कदम के लिए जमीन तैयार होती है जिसके तहत वह दलितों के ‘असली दुश्मनों को चिह्नित करते हैं’ और इस कवायद में ‘मुसलमानों’ को निशाने पर लेते हैं. वह यही कहते फिरते हैं कि मुसलमान शासकों के आने के पहले जाति प्रथा का अस्तित्व नहीं था और उनका जिन्होंने जमकर विरोध किया, उनका इन शासकों द्वारा जबरदस्ती धर्मांतरण किया गया और जो लोग धर्मांतरण के लिए तैयार नहीं थे, उन्हें उन्होंने गंदे कामों में धकेल दिया.

आज ऐसे आलेख, पुस्तिकाएं यहां तक किताबें भी मिलती हैं जो मनुस्मृति के महिमामंडन के काम में मुब्तिला दिखती हैं. इस मसले पर विस्तार से फिर कभी.

(सुभाष गाताडे वामपंथी एक्टिविस्ट, लेखक और अनुवादक हैं.)