2014 और 2019 में नरेंद्र मोदी ने न केवल यह दिखाया कि भाजपा अपने बलबूते पर चुनाव जीत सकती है बल्कि इस प्रक्रिया में इसने कांग्रेस को बर्बाद कर दिया. अब, बिना किसी केंद्रीय ताकत के हर क्षेत्रीय पार्टी के उसके एजेंडा, महत्वाकांक्षाओं के साथ इकट्ठा कर कोई संयुक्त मोर्चा बनाना लगभग असंभव लगता है.
2024 के आम चुनाव में प्रभावशाली भाजपा से लड़ने के लिए विपक्षी दलों का एक संयुक्त मंच हमेशा से एक कल्पना ही रहा है- हालांकि, अब यह एक ऐसा विचार बन गया है जो दूरी की कौड़ी नजर आता है. 2019 के आम चुनाव के दौरान भी इसी तरह का विचार रखा गया था, प्रमुख दलों के नेताओं की कई बैठकें भी हुई थीं, लेकिन इसका कोई हासिल नहीं निकला.
इस बार, अब तक दिखावे के लिए भी ऐसा नहीं किया गया है कि यह सोचा जाए कि बड़े क्षेत्रीय दलों का मोर्चा बनना संभव होगा. ऐसा लगता है कि वे या तो और दूर जा रहे हैं या क्षेत्रीय चुनावों में विश्वासघात के लिए अपने संभावित सहयोगियों की आलोचना कर रहे हैं. इसके अलावा देशभर में पहुंच रखने वाली कांग्रेस को अन्य दलों द्वारा दुश्मन नहीं, प्रतिद्वंद्वी माना जाता है और तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) और आम आदमी पार्टी (आप) जैसी पार्टियां इससे कोई राब्ता नहीं रखना चाहती हैं. इसकी मौजूदगी के बिना कोई विपक्षी एकता संभव नहीं होगी.
इस बीच कई विपक्षी नेता जांच एजेंसियों की पूछताछ का सामना भी कर रहे हैं- दिल्ली के पूर्व उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया को सीबीआई (अब ईडी ने भी) ने गिरफ्तार किया, भाजपा के मुखर आलोचक और शिवसेना के नेता संजय राउत भी जेल जाकर लौटे हैं. और कई इस फेहरिस्त में हैं जो एजेंसियों के सवाल-जवाब में उलझे हैं. किसी के पास विपक्ष की बैठक के लिए न समय है न ही कोई मंशा.
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी पहले ही कह चुकी हैं कि वे 2024 के चुनाव में अकेले ही उतरेंगी. ऐसा बंगाल के सागरदिघी उपचुनाव में माकपा के समर्थन के साथ कांग्रेस प्रत्याशी के जीतने के बाद हुआ. बनर्जी का कहना है कि टीएमसी को हराने के लिए इन दोनों दलों की भाजपा के साथ सांठगांठ है. ऐसे तो यह कॉन्सपिरेसी थ्योरी सरीखा ही है, लेकिन अगर आखिरकार विपक्ष किसी तरह साथ आकर खड़ा होता भी है, तो टीएमसी उसमें शामिल नहीं होगी.
इसी तरह, आम आदमी पार्टी ने भी किसी विपक्षी मोर्चे के लिए कोई प्रतिबद्धता जाहिर नहीं की है, भले ही इसके प्रमुख कई जगह विपक्षी नेताओं के साथ हाथ थामकर फोटो खिंचवाते नजर आए हैं. ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने ऐसे किसी भी प्रस्ताव से हमेशा दूरी बनाए रखी है. तेलंगाना के केसीआर और आंध्र प्रदेश के वाईएस जगन मोहन रेड्डी इस बारे में क्या सोचते हैं? शायद बाकी कइयों की तरह चुनाव नजदीक आने पर वे अपने पत्ते खोलें!
अब एक नया मसला भी उभरकर सामने आ रहा है- बीते सप्ताह आठ विपक्षी दलों ने मनीष सिसोदिया की गिरफ़्तारी के खिलाफ प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखी, इसमें तीन दल शामिल नहीं हुए, जिनमें से कांग्रेस भी एक है.
आज की तारीख में अगर कांग्रेस की मौजूदगी वाले एक विपक्षी मोर्चे को गठित का प्रस्ताव रखा जाए, तो इसमें जुड़ने के लिए केवल शिवसेना (उद्धव गुट), द्रमुक, राष्ट्रीय जनता दल, जनता दल (एस) और नेशनल कॉन्फ्रेंस पूरी तरह से तैयार होंगे. इसके लिए भी सीट बांटने को लेकर कांग्रेस अपनी मर्जी चलाने की उम्मीद नहीं कर सकती. मुश्किल ही है कि यह कोई ताकतवर संयुक्त मोर्चा होगा.
बहुत समय पहले कांग्रेस की देश में प्रभावशाली राजनीतिक उपस्थिति थी और समय-समय पर विभिन्न दल किसी न किसी तरह का मोर्चा बनाते हुए साथ आते थे, जिसमें कभी-कभी वामपंथी और दक्षिणपंथी पार्टियां, जैसे माकपा और भाजपा, दोनों शामिल हुआ करती थीं. कांग्रेस विरोध एक तरह की विचारधारा थी, जिसने दूसरों को एकजुट करने के लिए प्रेरणा का काम किया. हालांकि एक सच यह भी है कि कोई भी गैर-कांग्रेसी सरकार कभी भी कुछ महीनों से अधिक नहीं चली. 90 के दशक के अंत में दो गड़बड़ शुरुआतों के बाद अटल बिहारी वाजपेयी छोटे दलों की एक विस्तृत श्रृंखला के समर्थन से इस चलन को तोड़ने में कामयाब रहे. इसके बाद कांग्रेस फिर सत्ता में लौटी.
2014 और 2019 में नरेंद्र मोदी ने न केवल यह दिखाया कि भाजपा अपने बलबूते पर चुनाव जीत सकती है बल्कि इस प्रक्रिया में इसने कांग्रेस को बर्बाद कर दिया. अब, बिना किसी केंद्रीय ताकत के हर क्षेत्रीय पार्टी के उसके एजेंडा, महत्वाकांक्षाओं के साथ इकट्ठा कर कोई संयुक्त मोर्चा बनाना लगभग असंभव लगता है.
इसके अलावा, भाजपा ने अपने पक्ष में पैसे और कार्यपालिका के समर्थन वाला ऐसा ताकतवर गुट तैयार कर लिया है, जिसे पूरी तरह मीडिया का साथ मिला हुआ है और जिसके पास आसानी से पहचाने जाने वाला और सर्वव्यापी चेहरा- नरेंद्र मोदी हैं, जो दिखने का कोई मौका नहीं चूकते.
वहीं, विपक्षी दलों के पास इनमें से कुछ नहीं है. उल्लेखनीय यह भी है कि इन दलों की किसी एक जमीन पर साथ आकर कोई रणनीति बनाने की अक्षमता और अनिच्छा को भाजपा ध्यान में रखेगी.
चुनावी नतीजों की भविष्यवाणी करना हमेशा ही एक खतरनाक काम रहा है और अभी 2024 से पहले कई राज्यों में चुनाव होने हैं. बहुत कुछ बदल सकता है और कुछ ही दिनों में बदल सकता है, और फिर आम चुनाव में अब भी सालभर से ज्यादा समय बाकी है. हालांकि, फिलहाल तो ऐसा ही लग रहा है कि वो चुनाव एक और इकतरफा मुकाबला होगा, जिसका नतीजा सबको पहले से ही मालूम है.
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