कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: ग़ालिब ने अपनी शायरी का आलम घर, आग, तमाशे, ग़मेहस्ती, नाउम्मीदी, तमन्ना, बियाबान और उरियानी से रचा-गढ़ा. दिगंबरता को याने उरियानी को उनके यहां जैसे बरता गया है वह पश्चिमी न्यूडिटी की अवधारणा से बिल्कुल अलग है.
इसकी बेजा शिकायत नहीं कर सकता कि मुझे बहुत लेखक-बंधओं का संग-साथ नहीं मिला क्योंकि बहुत मिला, भले उसका एक सुखद कारण यह भी रहा है कि मैंने जैसा सार्वजनिक जीवन जिया उसका एक बड़ा हिस्सा ऐसे संग-साथ को अनिवार्य बनाने का रहा है.
कई पीढ़ियों के लेखकों से लगातार संवादरत रहा हूं और उनमें से शायद कुछ कई बार मेरी बतकही में अनमने भाव से भी शामिल हुए हैं. फिर भी, इस संग-साथ ने मुझे बहुत समृद्ध किया है, इसमें संदेह नहीं, न सिर्फ साहित्यिक स्तर पर बल्कि मानवीय स्तर पर भी. अगर ऐसा संग-साथ न मिला होता तो शायद जीवन बहुत कुछ आधा-अधूरा और विपन्न, लगभग निरर्थक हुआ होता. इसलिए इस लंबे संग-साथ के लिए मेरे मन में गहरी कृतज्ञता है.
लेकिन, दूसरी ओर, यह भी सही है कि अपने कई हमउम्रों के साथ वैसा नियमित संपर्क नहीं हो पाया जैसा मुझे ज़रूरी लगता था और है. नरेश सक्सेना तो स्वयं संग-साथ में रत व्यक्ति हैं तो उनसे फ़ोन पर अक्सर बातचीत हो जाती है. विनोद कुमार शुक्ल का स्वभाव शुरू से ही कम बोलने और ज़्यादातर सुनने का रहा है. वे चिट्ठियां भी कम ही लिखते हैं. तो उनसे मिलना-जुलना तो होता रहा है पर संग-साथ नहीं. फ़ोन पर भी उन्हें कर तंग नहीं करना चाहता क्योंकि उनके यहां साहित्य से अलग जो व्यावहारिक जीवन है उसमें ‘वागर्थ की अल्पता’ की ही प्रमुखता है.
ऋतुराज मेरी सार्वजनिक सक्रियता से थोड़ी दूर ही रहे हैं और उनसे कोई विशेष संवाद कभी नहीं हो पाया. उनकी वैचारिक निष्ठा भी शायद सख़्त है, अपने प्रति और मेरे प्रति भी. इधर दो पत्रिकाओं ‘कथादेश’ और ‘अंतिका’ ने क्रमशः मेरे इन दो हमउम्रों विनोद कुमार शुक्ल और ऋतुराज पर, विशेषांक प्रकाशित किए हैं. इस बहाने उन दोनों पर कुछ लिखने-सोचने का सुयोग बना.
विनोद जी पर जो लिखा उसमें संस्मरण का तत्व भी है. उसका एक अंश इस प्रकार है:
‘… विनोद जी हर स्तर पर अपनी कविताओं और गद्य में अदम्य रूप से घर-पड़ोस-संसार से आसक्ति के कवि हैं: एक गृहस्थ कवि जो मंगल ग्रह से भी अपने घर को देखना चाहता है. उनके यहां ब्रह्मांड घर-पड़ोस में ही शामिल है: वे नदी-पर्वत-प्रकृति-ब्रह्मांड आदि सबको अपने घर-पड़ोस में शामिल करना चाहते हैं: बल्कि शामिल करके ही देख-समझ पाते हैं. उनकी कविता और मनुष्यता एक तरह का शामिलात खाता है. वे यों ही नहीं कहते कि ‘इस अते-पते और बेठिकानों से भरे संसार में कहीं एक पत्ता बनने से पहले रहकर/रहते रहने का मन/इस समय पृथ्वी में निवास करना है’. वे अपने मोहल्ले और पृथ्वी के एक साथ निवासी हैं, जैसे हम सब भी हैं, लेकिन कविता में यह इस तरह पहले विन्यस्त नहीं किया गया है.’
ऋतुराज की कविता के बारे में लिखते हुए मैंने कहा है,
‘…कविता में सचाई होने का एक साक्ष्य उसमें विन्यस्त स्थानीयता रही है. कई बार बहुत सारी हिंदी कविता में, लगता है, ठोस स्थानीयता न होकर, एक तरह की सामान्य स्थानीयता से काम चला लिया जाता है. इसके बरक्स ऋतुराज के यहां जगह कोई भी जगह नहीं है. एक कविता में वे कहते हैं- ‘जगह छोड़कर जाने में घर तो होता है/पर जगह नहीं होती है’. उनकी कविता, इसी तरह, घर नहीं जगह है. पर इस जगह की शिनाख़्त निरे भूगोल या अंचल से नहीं होती- उसमें मानवीय उपस्थिति अनिवार्य है. मानवीय रूप से निस्संग भूगोल या प्रकृति ऋतुराज का सरोकार नहीं है. दूसरे शब्दों में, उनके यहां भूगोल भी मानवीयता का अंचल है.’
दो आलमों से अलग तीसरा आलम
कई विश्वविद्यालयों द्वारा, सभी निजी, ईरान और भारत के संबंध और संवाद में ग़ालिब की उर्दू कविता के दो आलमों, उर्दू और फारसी को लिखकर बनाए तीसरे आलम पर कुछ कहने कुछ की धृष्टता की. उनके लिए भारत एक ठोस-भौतिक-अपरिहार्य आलम था और फ़ारस एक कल्पना-लोक. उनके बिंब, कई दार्शनिक और साहित्यिक अभिप्राय, प्रतीक और आख्यान फ़ारसी से आते थे पर वे उनकी गहरी भारतीयता के रूपों में ढल जाते थे.
पहले मैं उनके कई अशआर उद्धृत कर चुका हूं जिनमें पहली पंक्ति पूरी या अधिकांशतः फ़ारसी में है और दूसरी उर्दू में. उनके कुल कृतित्व का चार बटा पांच हिस्सा फ़ारसी में लिखा गया है. यह भी कहा जाता है कि उनकी असली महत्वाकांक्षा फ़ारसी में एक बड़े कवि के रूप में मान्यता पाने की थी और उर्दू कविता को वे विशेष महत्व नहीं देते थे. लेकिन, दूसरी ओर, यह सच है कि उन्हें फ़ारसी के मुक़ाबले उर्दू की शक्ति पर भी भरोसा था. उनका एक शेर देखिए:
जो यह कहे, कि रेख़्तः क्योंकि हो रश्क-ए-फ़ारसी
गुस्तः-ए-ग़ालिब एक बार पढ़के उसे सुना, कि यों
उनका प्रसिद्ध शेर यह भी है:
जामे-हर-ज़र्रा, है सरशारे तमन्ना मुझसे
जिसका दिल हूं, कि दो आलम से लगाया है मुझे
इसे ग़ालिब का आत्मविश्वास कहें या कि एक क़िस्म की हेकड़ी कि उन्हें अपने लगभग असंभव होने का तीख़ा एहसास था. उन्होंने अपने को ‘मैं अंदली बे-गुलशने-नाआफ़रीदा हूं’ कहा था और यहां तक कह डाला था कि,
न सताइश की तमन्ना, न सिले की परवा
गर नहीं है मिरे अशआर में मानी, न सही
यह भी जोड़ा था
गंजीने-मानी का तिलिस्म उसको समझिए
जो लफ्ज़ कि ग़ालिब, मेरे अशआर में आवे
नाउम्मीदी का जो विशद स्थापत्य ग़ालिब ने अपनी कविता में रचा और जो भारतीय काव्य-परंपरा में उनका बहुत मूल्यवान अवदान है, वह तीख़ी बेचैनी और गहरे आत्मालोचन से उपजा था. तीन अशआर इसका अनोखा रूपांकन हैं:
उस शमअ की तरह से, जिसको कोई बुझा दे
मैं भी जले हुओं में, हूं दाग़-ए-नातमामी
न गुल-ए-नग़्मा हूं, न पर्दः-ए-साज़
मैं हूं अपनी शिकस्त की आवाज़
बस कि हूं, ग़ालिब, असीरी में भी आतश ज़ैर-ए-पा
मू-ए-आतश दीदः, है हल्कः मिरी जंज़ीर का
ग़ालिब ने अपनी शायरी का आलम घर, आग, तमाशे, ग़मेहस्ती, नाउम्मीदी, तमन्ना, बियाबान और उरियानी से रचा-गढ़ा. दिगंबरता को याने उरियानी को उनके यहां जैसे बरता गया है वह पश्चिमी न्यूडिटी की अवधारणा से बिल्कुल अलग है. उनका एक शेर है:
‘असद’ बज़्मे-तमाशा में, तग़ाफ़ुल पर्दादारी है
अगर ढांपे, तो आंखें ढांप, हम तस्वीरे-उरियां हैं
क्या हम ग़ालिब की कविता को, एक तरह से, तस्वीरे उरियां कह सकते हैं?
(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं.)