जस्टिस रोहिणी आयोग के साथ 2011 के सामाजिक-आर्थिक जाति जनगणना का आंकड़ा साझा नहीं किया: सरकार

जस्टिस रोहिणी आयोग का गठन अक्टूबर 2017 में किया गया था. भारत के ओबीसी समुदाय की विभिन्न श्रेणियों का वर्गीकरण करने के लिए शुरू में इसे 12 सप्ताह का समय दिया गया था. 2017 से आयोग को कम से कम 14 बार विस्तार दिया गया है, जिनमें से नवीनतम विस्तार इस साल जनवरी में दिया गया था.

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(इलस्ट्रेशन: द वायर)

जस्टिस रोहिणी आयोग का गठन अक्टूबर 2017 में किया गया था. भारत के ओबीसी समुदाय की विभिन्न श्रेणियों का वर्गीकरण करने के लिए शुरू में इसे 12 सप्ताह का समय दिया गया था. 2017 से आयोग को कम से कम 14 बार विस्तार दिया गया है, जिनमें से नवीनतम विस्तार इस साल जनवरी में दिया गया था.

(इलस्ट्रेशन: द वायर)

नई दिल्ली: केंद्र सरकार ने संसद में खुलासा किया है कि उसने 12 साल पहले की गई अंतिम सामाजिक-आर्थिक जाति जनगणना के आंकड़ों को दिल्ली हाईकोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जी. रोहिणी के नेतृत्व वाले आयोग के साथ साझा नहीं किया है, जिसे अन्य पिछड़ा वर्ग के उप-वर्गीकरण का काम सौंपा गया है.

द्रविड़ मुनेत्र कड़गम के सांसद एकेपी चिनराज द्वारा 14 मार्च को एक अतारांकित प्रश्न में पूछा गया था कि क्या सरकार ने 2011 की सामाजिक-आर्थिक जाति जनगणना के आंकड़ों को जस्टिस जी. रोहिणी के नेतृत्व वाले आयोग के साथ साझा किया था?

इसके जवाब में सामाजिक न्याय और अधिकारिता राज्य मंत्री ए. नारायणस्वामी ने कहा, ‘नहीं, सर. जस्टिस जी. रोहिणी के नेतृत्व वाले आयोग से ऐसा कोई अनुरोध प्राप्त नहीं हुआ है.’

जस्टिस रोहिणी आयोग का गठन राष्ट्रपति द्वारा अक्टूबर 2017 में संविधान के अनुच्छेद 340 के तहत किया गया था. भारत के ओबीसी समुदाय की विभिन्न श्रेणियों के लगभग 3,000 जाति समूहों का वर्गीकरण करने के लिए शुरू में इसे 12 सप्ताह का समय दिया गया था. 2017 से आयोग को कम से कम 14 बार विस्तार दिया गया है, जिनमें से नवीनतम विस्तार इस साल जनवरी में दिया गया था.

आयोग के कार्य को यह सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक माना जाता है कि योग्य ओबीसी समूहों को सूची में कम प्रतिनिधित्व नहीं दिया गया है.

2018 में द इंडियन एक्सप्रेस द्वारा एक रिपोर्ट में बताया गया था कि केंद्रीय स्तर पर ओबीसी के लिए आरक्षित नौकरियों और शैक्षिक पदों में से 97 प्रतिशत सभी ओबीसी उप-जातियों के एक चौथाई से भी कम और ओबीसी उप-जातियों के 938 लोगों के पास गए थे – जो कुल संख्या का 37 प्रतिशत है – आरक्षित सीटों पर उनका कोई प्रतिनिधित्व नहीं था.

सरकार द्वारा लोकसभा में दी गई यह जानकारी ऐसे समय आई है, जब विभिन्न राज्यों में जातिगत जनगणना कराने की मांग की गई है. आखिरी जनगणना 2011 में हुई थी, जबकि इरादा हर दशक में कराने का था.

विशेषज्ञों और कार्यकर्ताओं ने कई बार सामाजिक न्याय सुनिश्चित करने के लिए पहले कदम के रूप में जातिगत जनगणना की आवश्यकता पर प्रकाश डाला है.

2011 की सामाजिक-आर्थिक जाति की जनगणना ग्रामीण विकास मंत्रालय के तहत की गई थी. तब मनमोहन सिंह सरकार के तहत जयराम रमेश की अध्यक्षता में देश भर में डोर-टू-डोर सर्वे के माध्यम से ऐसा किया गया था. यह आखिरी बार था, जब ऐसा अभ्यास किया गया था.

सितंबर 2021 में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने सामाजिक-आर्थिक जाति जनगणना को यह कहते हुए खारिज कर दिया था कि यह अव्यावहारिक, ‘प्रशासनिक रूप से कठिन और बोझिल’ है.

साल 2021 की जनगणना के दौरान ग्रामीण भारत के पिछड़े वर्ग के नागरिकों (बीसीसी) का आंकड़ा एकत्र करने के लिए सरकार को निर्देश देने की मांग करने वाली महाराष्ट्र सरकार की एक रिट याचिका के जवाब में केंद्र ने यह बात कही थी.

सुप्रीम कोर्ट में दायर उस हलफनामे में केंद्र सरकार ने यह भी आरोप लगाया था कि 2011 की सामाजिक-आर्थिक और जाति जनगणना में जाति की गणना ‘गलतियों और अशुद्धियों से भरी’ हुई थी.

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