साहित्य को राजनीति की अधीनता से बहुत कुछ मुक्त रखने की कोशिश लगातार करते रहना चाहिए

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: राजनीति अपने आधिपत्य को फैलाने-बचाने के लिए हर दिन कोई नई तरक़ीब इस्तेमाल करती है, वैसे ही साहित्य को नवाचार में संलग्न होना चाहिए. यह कठिन है पर फिर सच्चा और ईमानदार साहित्य लिखना तो हमेशा ही कठिन रहा है. कठिनाई से निपटना साहित्य-धर्म है, उससे भागना नहीं.

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(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रवर्ती/द वायर)

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: राजनीति अपने आधिपत्य को फैलाने-बचाने के लिए हर दिन कोई नई तरक़ीब इस्तेमाल करती है, वैसे ही साहित्य को नवाचार में संलग्न होना चाहिए. यह कठिन है पर फिर सच्चा और ईमानदार साहित्य लिखना तो हमेशा ही कठिन रहा है. कठिनाई से निपटना साहित्य-धर्म है, उससे भागना नहीं.

(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रवर्ती/द वायर)

किसी सरकारी या तथाकथित स्वायत्त संस्थान को चित्रकार अम्बा दास की जन्मशती पर कुछ करने की याद नहीं आई: उनमें से किसी ने याद दिलाने पर भी रजा-शती पर कुछ नहीं किया. याद किया है एक निजी संग्राहक, धूमिमल गैलरी और प्रयाग शुक्ल ने, जिन्होंने अम्बा दास पर एक दिन भर का आयोजन किया. अम्बा दास व्यक्ति के रूप में संकोची, शांत, सौम्य व्यक्ति थे जो किसी पर अपने को थोपने से हमेशा अलग रहे.

चित्रकार जगदीश स्वामीनाथन ने दशकों पहले भारत के राष्ट्रपति जैल सिंह द्वारा उनसे यह पूछने पर कि सामने प्रदर्शित अम्बा दास की कलाकृति का अर्थ क्या है, वह किस बारे में है जो उत्तर दिया था वह यह था कि कलाकृति किसी के बारे में नहीं है, बस खुद है. हमारी कला-विचार की परंपरा में अमूर्तन शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है- यह शब्द कैसे भी नकारात्मक है जबकि अंग्रेज़ी शब्द ‘एब्स्ट्रैक्ट’ में ऐसी नकारात्मकता नहीं है. हमारे यहां उसे आत्मप्रतिष्ठ कहा गया.

आत्मप्रतिष्ठ अम्बा दास की कला को समझने-सराहने के लिए शब्द भर नहीं, अवधारणा भी है. आत्मप्रतिष्ठ वह है जिसे बाहर के किसी संदर्भ की दरकार नहीं. अम्बा दास की कला ऐसी आत्मप्रतिष्ठा की विधा थी. उसमें जो निरंतर, बेराहत और निस्संकोच ‘अमूर्तन’ है, वह चित्रकार की इस केंद्रीय वृत्ति से निकलता है कि वह जानबूझकर कृति को किसी अर्थ से बोझिल करना, उसमें कोई संकेत, कोई प्रस्ताव छोड़ना नहीं चाहता. उसके चित्र आनंद तो देते हैं, कोई संदेश या उपदेश नहीं.

सचाई का संधान कर, उसे व्यक्त और विन्यस्त करने के बजाय अम्बा दास ने अपनी सचाई स्वयं रची- ऐसी सचाई जिसकी जड़ें कल्पना में हैं, वह अदूषित-शुद्ध-अदम्य कल्पना से उपजी है. यह कला कल्पना की कला है, बजाय सचाई की कला होने के. यह कला सचाई का वैसा दबाव महसूस नहीं करती जैसी कि आज की ज़्यादातर कला करती है.

पिकासो ने जो दावा अपने बारे में किया था कि ‘वे खोजते नहीं है, पाते हैं’, अम्बा दास पर भी आयद होता है. वे कल्पना ही रेंज और गरिमा, उसकी पहुंच और गहराइयों, उसकी जटिलता, बारीकी और गतिशीलता, उसकी उपस्थिति और इसरार को उभारने-उकेरने का काम करते हैं. उनकी कृतियां एक तरह का न्योता हैं हमें कि हम जो ज़्यादातर तथाकथित सचाई की दुनिया में रहते हैं, एक नए भूगोल में, कल्पना के नए देश में, एक अप्रत्याशित संसार में प्रवेश करें.

पर हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि सारी कल्पना अंततः सचाई के संसार में ही होती और रूपाकार लेती है- इसलिए वह उतनी ही सच है जितनी कि सचाई. कल्पना सचाई की सीमाओं, बाड़ों से मुक्त हो पाती है. अम्बा दास हमसे यह कहते प्रतीत होते हैं कि कुछ भी सच नहीं है, जो पहले कल्पित न किया गया है. यह भी याद रखना चाहिए कि इतिहास, अम्बा दास के यहां, न तो उपस्थिति है, न दबाव, न विषय. इसलिए ये कलाकृतियां कभी बासी नहीं पड़ेंगी.

अम्बा दास के अपने वक्‍तव्‍यों से यह स्पष्ट है कि वे कला में इच्छा-आकांक्षा और अपेक्षा को अनावश्यक मानते थे. यह उन्हें निष्काम, निस्स्पृह और निर्गुण बनाता है. अम्बा दास ने अपनी कल्पना की सचाई को, अपनी चाक्षुष सचाई को किसी तथाकथित महान सत्य का उपनिवेश नहीं बनने दिया, न ही उसमें विलीन होने दिया. उनका कला-देवता छोटे-छोटे सत्यों का था, जिन्हें उनकी कल्पना, अपने कलात्मक प्रयत्न से, पाती थी.

‘सब कुछ राजनीति है’

‘सब कुछ राजनीति है’- इस वाक्य का हमारे समय में प्रयोग इतना लोकप्रिय है कि इसे हम अक्सर सच भी मानने लगे हैं. दरअसल हम ऐसा कर यह भूलने लगते हैं कि सब कुछ को राजनीति में बदल देने की कोशिश अधिनायकतावादी, सर्वसत्ता-लोलुप राजनीति और उसी वजह से बनी सत्ताएं करती हैं.

ऐसा कर वे नीति, न्याय, धर्म, सार्वजनिक जीवन, मानवीय संबंध, शिक्षा, व्यापार आदि सभी पर काबिज होना और उन्हें नियंत्रित-अनुशासित करना चाहती हैं. सचाई यह है कि राजनीति के हमारे समय में भीषण रूप से सर्वग्रासी होने के बावजूद, जीवन में, निजी और सार्वजनिक जीवन में, बहुत सारा ऐसा बच जाता है जो राजनीति के बाड़े में नहीं घेरा जा पाता. इस बचे हुए को साहित्य को संबोधित करना चाहिए और दर्ज कर बचाना चाहिए: यह राजनीति की सर्वग्रासिता का एक तरह का प्रतिरोध है.

जाहिर है कि ऐसा दर्ज करना तभी नैतिक होगा और प्रामाणिक भी जब साहित्य राजनीति की क्रूरता-हिंसा-सर्वग्रासिता-हत्यारी मानसिकता-घृणा फैलाने वाली वृत्तियों और उनके भयावह परिणामों को भी दर्ज करता चले. आज राजनीति के प्रति उदासीन होना या तटस्थता का भाव रखना और उसने जो भारतीय सभ्यता का संकट पैदा किया है उसे न समझना एक बड़ी चूक होगी जो अपने मूल में न तो नैतिक है, न ही साहित्यिक ही. यह अपने को भारतीय परंपरा के उज्जवल दाय से वंचित करने बराबर है.

जैसे राजनीति सब कुछ को अपने अधीन करने की दिन-रात कोशिश कर रही है वैसे ही साहित्य को राजनीति की अधीनता से बहुत कुछ को मुक्त रखने और बचाने की कोशिश लगातार, चौकन्ने ढंग से करते रहना चाहिए. अगर साहित्य की गवाही भी नहीं बचेगी तो बाक़ी सब प्रामाणिक गवाहियां और मानवीय सबूत तो राजनीति मिटा चुकी होगी. यह किसी भी हालत में नहीं होने देना चाहिए.

जैसे राजनीति अपने आधिपत्य को फैलाने-बचाने के लिए हर दिन कोई नई तरकीब इस्तेमाल करती है वैसे ही साहित्य को नवाचार में संलग्न होना चाहिए. याद करें कि गांधी जी ने दमनकारी ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध कितना अथक नवाचार किया था. यह कठिन है पर फिर सच्चा और ईमानदार साहित्य लिखना तो हमेशा ही कठिन रहा है. कठिनाई से निपटना साहित्य-धर्म है, उससे भागना नहीं.

अनैतिक समाज

यह कहना अतिशयोक्ति नहीं है कि भारतीय समाज का एक बड़ा हिस्सा अनीति को उचित और वांछनीय मानने लगा है. अंधभक्ति हमें यहां ले आई है कि उसमें हम अनीति से आंखें मूंदने लगे और अगर अवसर हो तो किसी सार्वजनिक मंच पर उसे कुतर्कों से उचित भी साबित करने लगे हैं.

इन दिनों कई शीर्ष राजनेताओं के बारे में यह कहा जाता रहा है कि वे अपने किसी भी विरोधी से बदला लेने या उसे सही-ग़लत साधनों से दंडित करने में कभी चूक नहीं करते. यह कहा जाता है, प्रशंसा के भाव से, जैसे ऐसा अनैतिक आचरण बड़ी शूरवीरता है.

ऐसे प्रसंग तो अब दैनंदिन हो गए हैं जिनमें छापे पड़ना, लोगों को अक्सर अकारण गिरफ़्तार करना लगभग स्वाभाविक घटनाएं मान लिया गया है. मीडिया का एक बड़ा और प्रभावशाली हिस्सा ऐसी घटनाओं की अनैतिकता पर न सिर्फ़ टिप्पणी नहीं करता बल्कि लगभग आपद्धर्म की तरह उनका समर्थन भी करता है.

निरपराधों पर हिंसा और हत्या की घटनाएं भी बढ़कर आम हो गई हैं. उनकी बुनियादी अनीति से नागरिक विचलित नहीं होते. अंतःकरण का विजड़न अब दैनंदिन की दुर्घटना है जिसे दुर्घटना कहने-मानने वाले लोग घट रहे हैं.

जिस तुलसी दास ने जिस राम से यह कहलवाया था, अयोध्या में रामराज्य स्थापित हो जाने के बाद कि ‘जौं अनीति कछु भाखौ भाई, तौ मोहि बरजहु भय बिसराई’, वे तुलसी दास और वे राम हमारे समाज के लिए पूरी तरह से अप्रसांगिक हो गए हैं. हमारे लगातार अनैतिक होते जाने का इससे दारूण और क्या प्रमाण चाहिए?

(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं.)

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