बॉम्बे लॉयर्स एसोसिएशन ने शीर्ष अदालत में दायर अपनी याचिका में कहा कि उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ और केंद्रीय क़ानून मंत्री किरेन रिजिजू ने संविधान में ‘विश्वास की कमी’ दिखाकर, इसकी संस्था यानी सुप्रीम कोर्ट पर हमला कर संवैधानिक पदों पर रहने से ‘ख़ुद को अयोग्य’ कर लिया है.
नई दिल्ली: न्यायपालिका और न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए कॉलेजियम प्रणाली पर उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ और केंद्रीय कानून मंत्री किरेन रिजिजू द्वारा लगातार की जारी बयानबाजी को लेकर उनके खिलाफ कार्रवाई की मांग करने वाली याचिका को बॉम्बे हाईकोर्ट द्वारा खारिज किए जाने के बाद मुंबई में वकीलों के एक संगठन ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया है.
बॉम्बे लॉयर्स एसोसिएशन ने शीर्ष अदालत के समक्ष अपनी विशेष अनुमति याचिका में कहा कि दोनों राजनीतिज्ञों ने संविधान में ‘विश्वास की कमी’ दिखाकर, इसकी संस्था यानी सुप्रीम कोर्ट पर हमला कर और इसके द्वारा निर्धारित कानून के प्रति बहुत कम सम्मान दिखा कर संवैधानिक पदों पर रहने से ‘खुद को अयोग्य’ कर लिया है.
हालांकि यह स्पष्ट नहीं है कि याचिका किन बयानों का जिक्र कर रही है, किरेन रिजिजू ने कॉलेजियम प्रणाली की बार-बार आलोचना की है. इस बीच उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने ऐतिहासिक केशवानंद भारती (1973) के फैसले पर सवाल उठाया था, जिसने बुनियादी ढांचे के सिद्धांत को स्थापित किया था.
बॉम्बे हाईकोर्ट ने बीते 9 फरवरी को बॉम्बे लॉयर्स एसोसिएशन की जनहित याचिका को ख़ारिज करते हुए कहा था कि सुप्रीम कोर्ट की विश्वसनीयता ‘गगनचुंबी’ है और इसे ‘व्यक्तियों के बयानों से कम या प्रभावित नहीं किया जा सकता है’.
अदालत ने यह भी कहा कि ‘निष्पक्ष आलोचना’ की अनुमति है और एसोसिएशन द्वारा सुझाए गए तरीके से उपराष्ट्रपति और कानून मंत्री को हटाया नहीं जा सकता है.
याचिका में संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत कार्रवाई की मांग की गई है, जो उच्च न्यायालयों को सरकार सहित किसी भी व्यक्ति या प्राधिकरण को निर्देश, आदेश और रिट जारी करने की क्षमता देता है.
याचिका में धनखड़ को उपराष्ट्रपति के रूप में और रिजिजू को केंद्रीय कैबिनेट मंत्री के रूप में अपने कर्तव्यों का निर्वहन करने से रोकने का आदेश देने की भी मांग की गई थी.
लॉयर्स एसोसिएशन का दावा है कि कानून के अनुसार यथास्थिति को बदलने के लिए संवैधानिक योजना के तहत उपलब्ध किसी भी सहारे के बिना दोनों ने सबसे अपमानजनक भाषा में सर्वोच्च न्यायालय पर ‘सामने से हमला’ किया.
एसोसिएशन ने उन पर ‘आपराधिक अवमानना’ का आरोप लगाते हुए दावा किया, ‘संवैधानिक पदों पर आसीन व्यक्तियों द्वारा इस तरह का अशोभनीय व्यवहार बड़े पैमाने पर जनता की नजर में सर्वोच्च न्यायालय की प्रतिष्ठा को कम और असंतोष को बढ़ावा दे रहा है.’
उल्लेखनीय है कि जजों की नियुक्ति की कॉलेजियम प्रणाली बीते कुछ समय से केंद्र और न्यायपालिका के बीच गतिरोध का विषय बनी हुई है, जहां कॉलेजियम प्रणाली को लेकर केंद्रीय कानून मंत्री किरेन रिजिजू कई बार विभिन्न प्रकार की टिप्पणियां कर चुके हैं.
इसी महीने किरेन रिजिजू ने एक कार्यक्रम के दौरान कहा था कि ‘तीन या चार’ रिटायर जज ‘भारत-विरोधी’ गिरोह का हिस्सा हैं. साथ ही कहा कि जिसने भी देश के खिलाफ काम किया है, उसे कीमत चुकानी होगी.
दिसंबर 2022 में संपन्न हुए संसद के शीतकालीन सत्र के दौरान रिजिजू सुप्रीम कोर्ट से जमानत अर्जियां और ‘दुर्भावनापूर्ण’ जनहित याचिकाएं न सुनने को कह चुके हैं, इसके बाद उन्होंने अदालत की छुट्टियों पर टिप्पणी करने के साथ कोर्ट में लंबित मामलों को जजों की नियुक्ति से जोड़ते हुए कॉलेजियम के स्थान पर नई प्रणाली लाने की बात दोहराई थी.
इससे पहले भी किरेन रिजिजू न्यायपालिका, सुप्रीम कोर्ट और कॉलेजियम प्रणाली को लेकर आलोचनात्मक बयान देते रहे हैं.
रिजिजू के अलावा उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ भी सुप्रीम कोर्ट को लेकर पिछले कुछ समय से आलोचनात्मक नजर आ रहे हैं. 7 दिसंबर 2022 को उपराष्ट्रपति और राज्यसभा के सभापति जगदीप धनखड़ ने अपने पहले संसदीय संबोधन में राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजेएसी) कानून को सुप्रीम कोर्ट द्वारा खारिज किए जाने को लेकर अदालत पर निशाना साधा था.
धनखड़ ने बीते 11 जनवरी को भी इस कानून को रद्द किए जाने को लेकर न्यायपालिका को घेरा था. उन्होंने कहा कि संसदीय कानून को अमान्य करना लोकतांत्रिक नहीं था. साथ ही कहा था कि वह शीर्ष अदालत द्वारा लगाए गए इस प्रतिबंध से सहमत नहीं हैं कि संसद संविधान के ‘मूल ढांचे’ में संशोधन नहीं कर सकती है.
इससे पहले 2 दिसंबर 2022 को धनखड़ ने कहा था कि वह ‘हैरान’ थे कि शीर्ष अदालत द्वारा एनजेएसी कानून को रद्द किए जाने के बाद संसद में कोई चर्चा नहीं हुई. उससे पहले उन्होंने संविधान दिवस (26 नवंबर 2022) के अवसर पर हुए एक कार्यक्रम में भी ऐसी ही टिप्पणी की थी.
इसी जनवरी माह की शुरुआत में वे फिर से न्यायपालिका पर हमलावर हो गए थे और 1973 के केशवानंद भारती फैसले को ‘गलत परंपरा’ करार दे दिया था.
संवैधानिक संस्थाओं के अपनी सीमाओं में रहकर संचालन करने की बात करते हुए उपराष्ट्रपति ने कहा था, ‘संविधान में संशोधन का संसद का अधिकार क्या किसी और संस्था पर निर्भर कर सकता है. क्या भारत के संविधान में कोई नया ‘थियेटर’ (संस्था) है, जो कहेगा कि संसद ने जो कानून बनाया उस पर हमारी मुहर लगेगी, तभी कानून होगा. 1973 में एक बहुत गलत परंपरा पड़ी, 1973 में केशवानंद भारती के केस में सुप्रीम कोर्ट ने मूलभूत ढांचे का विचार रखा कि संसद, संविधान में संशोधन कर सकती है, लेकिन मूलभूत ढांचे में नहीं.’
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