पुस्तक अंश: कनॉट प्लेस का मशहूर कॉफी हाउस 27 दिसंबर 1957 को पुराने कॉफी हाउस के हड़ताल पर बैठे कामगारों को राममनोहर लोहिया द्वारा प्रेरित किए जाने के बाद टेंट में शुरू हुआ था. तब यह दिल्ली का सबसे बड़ा राजनीतिक वैचारिक मुठभेड़ों का अड्डा हुआ करता था.
कनॉट प्लेस की बात हो और इंडियन कॉफी हाउस की तफ़्सील से चर्चा न हो, यह नहीं हो सकता. जहां अब पालिका बाज़ार है, पहले वहां पर थियेटर कम्युनिकेशन बिल्डिंग होती थी, उसकी बगल में कॉफी हाउस होता था. 1976 के आपातकाल में इसे तोड़ दिया गया था. 1936 में इंडियन कॉफी हाउस की श्रृंखला बनी. दिल्ली में जनपथ के पास 1950 में इसकी शुरुआत हुई. उस दौर में कॉफी बोर्ड ने कॉफी की कीमत बढ़ाकर आठ आने कर दी. इसके खिलाफ नियमित रूप से कॉफी हाउस आने वालों ने पीआरआरएम अर्थात प्राइस राइज रेज़िस्टेंस मूमेंट आरंभ कर दिया. दिल्ली के पत्रकार इंदर वर्मा इसके संयोजक थे.
1950 में कॉफी बोर्ड ने इसे बंद करने का निर्णय ले लिया. यहां के मुलाजिमों ने इसके विरुद्ध हड़ताल शुरू कर दी. शिखर समाजवादी नेता डॉ. राममनोहर लोहिया ने हड़ताल पर बैठे वर्करों को साथ में चल रहे समाजवादी साथियों से पैसे लेकर कामगारों को देते हुए कहा कि केतली कप-प्लेट और अंगीठी का इंतजाम करो और अपना काम शुरू करें.
लोहिया जी की प्रेरणा से मुलाजिमों ने सड़क पर कॉफी तैयार कर बेचने का काम शुरू कर दिया. कामगारों ने इंडियन कॉफी वर्कर कोऑपरेटिव सोसाइटी की स्थापना कर ली. शुरू में थियेटर कम्युनिकेशन बिल्डिंग में इसको जगह मिल गई, जगह बहुत कम थी, साथ में खाली पड़ी जगह में 27 दिसंबर 1957 को टेंट वाले कॉफी हाउस की स्थापना हुई.
कनॉट प्लेस में खालसा टेंट हाउस के मालिक एक नामधारी सिख होते थे, उन्होंने किराये पर कॉफी हाउस में टेंट लगा दिया. इस कॉफी हाउस में छत के नाम पर कपड़े का टेंट लगा रहता था, फर्श के स्थान पर पत्थर की रोड़ी बिछी रहती थी. कॉफी की कीमत चार आने तथा वड़ा की कीमत दो आने रखी गई.
यह कनॉट प्लेस के कॉफी के शुरूआती दिन थे. कॉफी हाउस साधारण-सी मेजें बिछी रहती थीं, उसके चारों ओर हर मेज के साथ 4-6 कुर्सियां पड़ी होती थीं. कॉफी हाउस में घुसते ही बायीं ओर नीचे जमीन पर बैठकर दो मोची जूतों की मरम्मत तथा पॉलिश का काम करते थे, कॉफी हाउस आने वाले, कॉफी पीने के साथ-साथ अपने जूतों की मरम्मत तथा पॉलिश भी करवा लेते थे. इधर ही दैनिक समाचारपत्रों, पुस्तिकाओं, पत्रिकाओं की बिक्री होती थी एक स्टॉल में स्टेशनरी का सामान भी बिकता था, पान का भी एक स्टॉल होता था. बाद में दो हो गए थे.
कॉफी हाउस के बाहर खुली ईटों की लगभग तीन फुट ऊंची दीवार बनी हुई थी. सुबह से लेकर रात्रि तक कॉफी हाउस खचाखच भरा रहता था, खूब गहमा-गहमी रहती थी. वहां का बड़ा रोचक नज़ारा होता था.
समाजवादी नेता और रामजस कॉलेज के प्रोफेसर रहे डॉ. राजकुमार जैन बताते हैं, ‘मैं इमरजेंसी के दौर में दिल्ली की तिहाड़ जेल में मीसाबंदी था. जेल में सुनने को आया था कि इसको संजय गांधी के आदेश पर तोड़ दिया गया है, क्योंकि उनको यह खबर दी जाती थी कि यह कॉफी हाउस कांग्रेस सरकार के विरोध का एक बहुत बड़ा अड्डा है. कॉफी हाउस के टूटने की खबर को जानकर जेल के साथियों को ऐसे लगा था कि मानों हमारा घर गिरा दिया गया है.’
कॉफी हाउस में बुद्धिजीवियों, लेखकों, पत्रकारों, कलाकारों, नाट्यकर्मी, संगीतकारों के साथ-साथ राजनीतिक कार्यकर्ताओं तथा दिन के वक्त दफ्तर के बाबुओं का हुजूम जमा रहता था. कॉफी हाउस दिल्ली का सबसे बड़ा राजनीतिक वैचारिक मुठभेड़ों का अड्डा होता था, कई मेजें बिना रिजर्व किए भी एक प्रकार से रिजर्व होती थी, कम्युनिस्टों, सोशलिस्टों तथा कुछ पुराने प्रगतिशील कांग्रेसी वहां नियमित रूप से आते थे.
वे अलग-अलग अपने और साहब ग्रुपों में बैठते थे, समसामयिकी विषयों पर ज़ोर-शोर से बहस चलती रहती थी. दिल्ली के बाहर से आने वाला लगभग हर सोशलिस्ट नेता, कार्यकर्ता, अगर टेंट वाले कॉफी हाउस न आए तो समझो कि उसका दिल्ली आगमन निरर्थक है. मजदूर नेता जेएस दारा और बृजमोहन तूफान उन लोगों से से थे, जो बारिश-तूफान, सर्दी या गर्मी से बेरपवाह कॉफी हाउस में हर रोज आते थे.
सरदार जेएस दारा शाम के समय रीगल के आसपास भी मिल ही जाते थे. अपनी पगड़ी या पेंट को ठीक करते हुए कॉफी हाउस की तरफ बढ़ रहे होते थे. उनकी शामें कॉफी हाउस में ही गुजरती थी. उनकी टेबल पर मजदूर और मजदूर नेता बैठे होते थे. इंटक नेता दारा जी नई दिल्ली म्युनिसिपल कमेटी वर्कर यूनियन के भी अध्यक्ष थे. उनका दफ्तर कॉफी हाउस से ही चलता था. वे दिन में किसी फैक्ट्री के बाहर धरना-प्रदर्शन कर रहे होते थे या वहां पर मजदूरों से मुलाकात करने चले जाते थे. वे कॉफी हाउस में रात नौ बजे तक गप-शप करने के बाद खान मार्केट की कोई बस पकड़कर या फिर किसी साथी के स्कूटर में बैठकर चले जाते थे. बहुत जबरदस्त किस्सागो थे, उनके इर्द-गिर्द महफिल जुटी रहती थी. दारा जी का 2005 में निधन हो गया था. पर उन्हें कॉफी हाउस में लोग अब भी बहुत शिद्दत के साथ याद करते हैं.
उन्होंने रखा कॉफी हाउस की संस्कृति को जिंदा
जेएस दारा मजदूर नेता के साथ-साथ राजधानी में कॉफी हाउस की संस्कृति को समृद्ध करने वालों के रूप में याद रखे जाएंगे. कॉफी हाउस पर जब भी संकट आया तो वे सक्रिय हो जाते. दिल्ली के अपने असरदार मित्रों जैसे आईके गुजराल या जगप्रवेश चंद्र के पास कॉफी हाउस में बैठने वालों की टोली ले जाते. कॉफी हाउस का संकट हल हो जाता.
जगप्रवेश चंद्र दिल्ली के मुख्य कार्यकारी पार्षद भी रहे थे. गुजराल साहब और जगप्रवेश जी कॉफी हाउस के पक्के शैदाई थे. जब गुजराल साहब देश के प्रधानमंत्री बने तो उनकी सदारत में कुछ कॉफी हाउस वाले गुजराल साहब के आवास में बधाई देने पहुंचे. वहां पर उन्होंने ठहाकों के बीच गुजराल साहब को ‘स्पष्ट’ कर दिया कि उनकी कॉफी हाउस से लंबे समय तक गैर-हाजिरी स्वीकार नहीं की जाएगी.
वे खड़ा कर देते थे कॉफी में ‘तूफान’
टेंट वाले कॉफी हाउस से मोहन सिंह हाउस प्लेस के कॉफी हाउस में नियमित रूप से बैठने वालों समाजवादी नेता ब्रजमोहन तूफान भी होते थे. वे भी लगातार कॉफी हाउस आते थे. भारत के समाजवादी आंदोलन में उनका बहुत ऊंचा मुकाम रहा है. वे हिंद मजदूर सभा के कद्दावर नेता थे. उनके एक आह्वान पर हजारों रेल मजदूर सड़कों पर उतर आते थे.
तूफान साहब अविवाहित थे. उनमें मजदूरों और मजलूमों के पक्ष में मर- मिटने का कमाल का जज्बा था. उन्होंने दर्जनों बार जेल यात्राएं की थीं. तूफान साहब उच्च कोटि के विद्वान थे. उनकी अंग्रेज़ी, हिंदी, उर्दू में कई किताबें छप चुकी थीं, उनके भाषण से किसी में भी जोश भर सकता था. तूफान साहब लोहियाजी के परम सहयोगियों में से थे. तूफान साहब देश की आजादी के समय दिल्ली आए थे. तब नौजवान थे. उसके बाद ये जीवनपर्यंत मजदूर आंदोलन से जुड़े रहे. इनकी ईमानदारी और मजदूर आंदोलन के प्रति निष्ठा को लेकर कभी कोई सवाल उठाने की किसी ने हिमाकत नहीं की.
दिल्ली अथवा देश में आज क्या घटना घटी है, उसकी खबर कॉफी हाउस में किसी न किसी के माध्यम से पहुंच जाती थी. राजकुमार जैन के अनुसार, ‘दिल्ली के समाजवादियों का दफ्तर तो एक मायने में यही कॉफी हाउस होता था. जब मीटिंग करनी होती थी तो सामने के मैदान में बैठकर चर्चा हो जाती थी. दिल्ली और बाहर से आने वाले किसी सोशलिस्ट को अगर आर्थिक संकट होताथा, तो वह कॉफी हाउस आ जाता था, उसको पता था कि सायंकाल वहां पर अपने लोग मिलेंगे. आपस में पैसा इकट्ठा करके साथी की मदद करने का कार्य भी होता था.’
कॉफी हाउस कई लोगों तथा संस्थाओं के लिए स्थायी कार्यालय का भी कार्य करता था. दिल्ली सफाई कर्मचारी यूनियन के संस्थापक अध्यक्ष रामरक्खामल जी भी कॉफी हाउस में अपने से मिलने वालों को बुलाते थे.
कॉफी हाउस में नियमित रूप से आने वालों में 3-4 लोगों को भुलाया नहीं जा सकता. एक ये प्रसिद्ध वकील तथा कांग्रेसी नेता, जो दिल्ली विधानसभा के सदस्य भी रहे थे. कंवरलाल शर्मा जो बहुत जबरदस्त किस्सागो थे, उनके इर्द-गिर्द महफिल जुटी रहती थीं. इसी तरह दिल्ली सोशलिस्ट पार्टी के अध्यक्ष रहे मास्टर नुरुद्दीन किस्से सुनाने तथा सोशलिस्टों के कॉफी के बिल चुकाने की जिम्मेदारी इन्हीं की रहती थी परंतु मास्टर जी के किस्सागोई में रोकने-टोकने की सख्त मनाही होती थी.
दिल्ली के इतिहास में जगप्रवेश चंद जी का नाम कभी भुलाया नहीं जा सकता, ये कई बार विधायक तथा मुख्य कार्यकारी पार्षद (मुख्यमंत्री के समकक्ष) भी रहे थे. टेंट वाले कॉफी हाउस के टूट जाने के बाद जगप्रवेश जी के प्रयास से बाबा खड़क सिंह मार्ग, कनॉट प्लेस पर हनुमान मंदिर के सामने दिल्ली सरकार द्वारा संचालित ‘कॉफी होम’ का निर्माण हुआ.
कॉफी हाउस में महिलाएं कम ही आती थी. कॉफी हाउस में साधारण कार्यकर्ताओं के साथ-साथ अनेक राष्ट्रीय नेता भी कॉफी हाउस में आते रहते थे. लोकसभा, राज्यसभा में बने नए-नए सदस्य जब दिल्ली आते थे तो कनॉट प्लेस में घूमने के साथ-साथ कॉफी हाउस भी आते थे. यहां आने वालों में डीएमके नेता श्री अन्नादुराई, कम्युनिस्ट नेता भूपेश गुप्त, सोशलिस्ट नेता सुरेंद्रनाथ द्विवेदी, बंबई के सोशलिस्ट मज़दूर नेता पीटर अल्वारिस, सोशलिस्ट नेता हरिविष्णु कायन्य, जनसंघ के प्रो. बलराज मधोक, भू.पू. प्रधानमंत्री इंद्रकुमार गुजराल भी थे.
गुजराल के साहब के साथ वरिष्ठ पत्रकार त्रिलोकदीप भी कभी-कभी बैठे मिलते थे. गुजराल साहब यहां तब से आने लगे थे जब वे नई दिल्ली नगर पालिका से जुड़े हुए थे. कांग्रेस के प्रसिद्ध वकील एवं भू.पू. केंद्रीय मंत्री हंसराज भारद्वाज भी यहां बैठकी करते थे. पुराने लोगों को याद होगा कि डॉ. राममनोहर लोहिया कॉफी हाउस आते रहते थे. डॉ. लोहिया के साथ विश्व प्रसिद्ध पेंटर मकबूल फिदा हुसैन, प्रो. रमा मित्रा, साहित्यकार श्रीकांत वर्मा, प्रसिद्ध कार्टूनिस्ट राजेंद्र पुरी इधर आते थे.
डॉ. लोहिया के कॉफी हाउस में आते ही हलचल बढ़ जाती थी. उनकी मेज के इर्द-गिर्द जमघट हो जाता था. कॉफी हाउस के कामगारों को जैसे ही पता चलता कि डॉ. लोहिया आए है वे अपना काम छोड़कर डॉ. साहब को नमस्कार करने तथा उनके पैर छूने का प्रयास करते थे परंतु डॉ. साहब पैर छूने को सख्ती से मनाई करते थे. उस समय मौजूद अन्य पार्टियों के लोग बड़ी बेसब्री से डॉ. लोहिया से जानकारी लेने का प्रयास करते थे, डॉ. साहब के साथ आए समाजवादी बातचीत को रोकने का प्रयास करते थे ताकि डॉ. साहब इत्मीनान से कॉफी पी सके.
12 अक्टूबर 1967 को डॉ. साहब के देहावसान के बाद उनकी शवयात्रा कनॉट प्लेस होकर कॉफी हाउस के सामने से गुजरने लगी तो सारा कॉफी हाउस सड़क पर बाहर आकर नतमस्तक होकर उनको नमन करने लगा. कॉफी हाउस के वर्करों ने शवयात्रा के वाहन को रोकर एक बड़े फूलों के चक्र के साथ अश्रुपूरित नयनों के साथ अपनी श्रद्धाजंलि अर्पित की थी.
इमरजेंसी के समय कॉफी हाउस टूटा तो उसके बदले में मोहन सिंह प्लेस में कॉफी हाउस शुरू हो गया. तब से मोहन सिंह प्लेस भी गुलजार रहने लगा. हालांकि, इसमें पहले वाली बात तो नहीं थी पर यहां विष्णु प्रभाकर, कमलेश्वर, भीष्म साहनी जैसे वरिष्ठ साहित्यकारों के साथ-साथ पंकज बिष्ट, बलराम, प्रताप सहगल, रूप सिंह चंदेल जैसे उभरते हुए दर्जनों साहित्यकार पहुंचते रहे.
(वरिष्ठ पत्रकार विवेक शुक्ला की किताब ‘दिल्ली का पहला प्यार कनॉट प्लेस’ का अंश)